एक बार की बात है । परम अनासक्त, समस्त लोकों में आकाश मार्ग से विचरण करने वाले, चतुर्मुख ब्रह्मा के मानस पुत्र सनकादि मुनि, उन परम ब्रह्म के अलौकिक वैकुण्ठधाम में जा पहुँचे । उनके मन में भगवददर्शन की असीम लालसा थी, इस कारण वे अन्य दिव्य दर्शनीय सामग्रियों की उपेक्षा करते आगे बढ़ते हुए छः ड्योढ़ियाँ (Sixth Dimension) पार कर गये ।
जब वे सातवीं ड्योढ़ी (Seventh Dimension) पर पहुँचे, तब उन्हें हाथ में अस्त्र लिये दो समान आयु वाले देवश्रेष्ठ दिखलायी दिये । वे बाजूबंद, कुण्डल और किरीट आदि अनेक बहुमूल्य आभूषणों से अलंकृत थे । उनकी चार श्यामल भुजाओं के बीच वनमाला सुशोभित थी, जिस पर भ्रमर गुंजार कर रहे थे । समदर्शी सनकादि सातवीं ड्योढ़ी (Seventh Dimension) में प्रवेश कर ही रहे थे कि श्री भगवान के उन दोनों द्वारपालों ने उन्हें दिगम्बर रूप में देखकर उनकी हँसी उड़ायी और अपने अस्त्र अड़ाकर उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया ।
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सनकादि मुनियों ने शांत भाव से उनसे कहा ‘तुम भगवान वैकुण्ठनाथ के पार्षद हो, किंतु तुम्हारी बुद्धि अत्यन्त मन्द है ।’ इसके बाद भी उनके समझ में न आने पर उन सनकादि मुनियों ने क्रुद्ध होकर उन्हें शाप देते हुए कहा ‘तुम तो देव-रूपधारी हो, फिर भी तुम्हें ऐसा क्या दिखायी देता है, जिससे तुमने भगवान के साथ कुछ भेदभाव के कारण होने वाले भय की कल्पना कर ली?
तुम अपनी भेदबुद्धि के दोष से इस वैकुण्ठ लोक से निकलकर उन पापपूरित योनियों में जाओ, जहाँ काम, क्रोध एवं लोभ-प्राणियों के ये तीन शत्रु निवास करते हैं ।’ उन निर्विकार मुनियों से श्राप मिलते ही दोनों पार्षदों को वस्तुस्थिति समझ में आयी | क्षण मात्र में ही उनके मन भय से व्याकुल हो गए |
रहस्यमय एवं विचित्र घटनाएं तथा संयोग
‘भगवन् ! हमने निश्चय ही अपराध किया है, सनकादि के दुर्निवार शाप से व्याकुल होकर दोनों पार्षद उनके चरणों में लोटकर अत्यन्त दीनभाव से प्रार्थना करने लगे | ‘आपके दण्ड से हमारे पाप का प्रक्षालन हो जायगा, किंतु आप इतनी कृपा करें कि अधमाधम योनियों में जाने पर भी हमारी भगवत्स्मृति बनी रहे ।’
इधर श्री भगवान पद्मनाभ को जब विदित हुआ कि हमारे पार्षदों ने सनकादि का अनादर किया है, तब वे तुरंत लक्ष्मी जी के साथ वहाँ पहुँच गये । समाधि के विषय भुवनमोहन चतुर्भुज विष्णु के अचिन्त्य, अनन्त सौन्दर्यराशि के दर्शन कर सनकादि मुनियों की विचित्र दशा हो गयी । वे अपने को सँभाल न सके और करूणासिन्धु भगवान कमलनयन के चरणारविन्द-मकरन्द से मिली तुलसीमंजरी की अलौकिक गंध से उनके मन में भी खलबली उत्पन्न हो गयी ।
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‘भगवान का मुख नील कमल के समान था, अति सुन्दर अधर और कुन्दकली के समान मनोहर हास से उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी । उसकी झाँकी करके वे कृतकृत्य हो गये और फिर पद्यराग के समान लाल-लाल नखों से सुशोभित उनके चरण-कमल देखकर वे उन्हीं का ध्यान करने लगे ।’ फिर प्रभु के प्रत्यक्ष दर्शन का परम सौभाग्य प्राप्तकर वे निखिलसृष्टिनायक की स्तुति और उनके मंगलमय चरण कमलों में प्रणाम करने लगे ।
‘मुनियों ! वैकुण्ठ निवास श्रीहरि ने उनकी प्रशंसा करते हुऐ कहा ‘ये जय-विजय मेरे पार्षद हैं । इन्होंने आपका अपराध किया है । आपने इन्हें दण्ड देकर उचित ही किया है । ब्राह्मण मेरे परम आराध्य हैं । मेरे अनुचरों के द्वारा आप लोगों का जो अनादर हुआ है, उसे मैं अपने द्वारा ही किया कृत्य मानता हूँ । मैं आप लागों से प्रसन्नता की भिक्षा माँगता हूँ ।’
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त्रैलोक्यनाथ ! सनकादि मुनियों ने प्रभु की अर्थपूर्ण और सारयुक्त गम्भीर वाणी सुनकर उनका गुणगान करते हुए कहा, ‘आप सत्त्वगुण् की खान और सम्पूर्ण जीवों के कल्याण के लिये सदा उत्सुक रहते हैं । इन द्वारपालों को आप दण्ड अथवा पुरस्कार दें, हम विशुद्ध हृदय से आपसे सहमत हैं या हमने क्रोधवश इन्हें शाप दे दिया, इसके लिये हमें ही दण्डित करें, हमें यह भी सहर्ष स्वीकार होगा ।’
‘मुनियों! दयामय प्रभु ने सनकादि से अत्यन्त स्नेहपूर्वक कहा ‘आप सत्य समझिये, आपका यह शाप मेरी ही प्रेरणा से हुआ है । ये दैत्ययोनि में जन्म तो लेंगे, किंतु क्रोधावेश से बढ़ी उद्विग्नता के कारण शीघ्र ही मेरे पास लौट आयेंगे ।’
सनकादि ऋषियों ने प्रभु की अमृतमयी वाणी से आप्यायित होकर उनकी परिक्रमा की और उनके त्रैलोक्यवन्दित चरणों में प्रणाम कर उनकी महिमा का गान करते हुए वे लौट गये । ‘तुम लोग निर्भय होकर जाओ ।’ प्रभु ने ऋषियों के प्रस्थान के बाद अपने अनुचरों से कहा ‘तुम्हारा कल्याण होगा’ ।
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मैं सर्वसमर्थ होकर भी ब्रह्मतेज की रक्षा चाहता हूँ, यही मुझे अभीष्ट है । एक बार मेरे योगनिद्रा में स्थिर होने पर तुम दोनों ने द्वार में प्रवेश करती हुई लक्ष्मी जी को रोका था । उस समय उन्होंने क्रुद्ध होकर पहले ही तुम्हें शाप दे दिया था । अब दैत्ययोनि में मेरे प्रति अत्यधिक क्रोध के कारण तुम्हारी जो उद्विग्नता होगी, उससे तुम विप्र-तिरस्कार जनित पाप से मुक्त होकर कुछ ही समय में मेरे पास लौट आओगे ।’
श्री भगवान के पधारते ही सुरश्रेष्ठ जय-विजय ब्रह्मशाप के कारण भगवान के उस श्रेष्ठ धाम में ही श्रीहीन हो गये और उनका सारा गर्व चूर्ण हो गया । लीलामय प्रभु की लीला अत्यन्त विचित्र होती है । उसका हेतु (कारण) तथा रहस्य, देवता और ऋषि-महर्षियों की भी समझ में नहीं आता, मनुष्य समझे तो कैसे समझे?
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किंतु प्रभु की लीला जब हो, जैसी हो, होती है परम मंगलमयी, उसकी परिणति शुभ और कल्याण में ही होती है, वो कहते हैं न ‘अंत भला तो सब भला’ । प्रभु की इसी अदभुत लीला के फलस्वरूप तपस्वी मरीचिनन्दन कश्यपमुनि जब खीर की आहुतियों द्वारा अग्निजिहृ भगवान की उपासना कर सूर्यास्त देख अग्निशाला में आकर ध्यानमग्न बैठे ही थे कि तभी उनकी पत्नी दक्षपुत्री दितिदेवी उनके समीप पहुँचकर सर्वश्रेष्ठ संतान प्राप्त करने की कामना व्यक्त करने लगीं ।
महर्षि कश्यप ने उनकी इच्छापूर्ति का आश्वासन देते हुए असमय की ओर संकेत किया, पर दिति अपनी कामनापूर्ति के लिये हठ करती ही जा रही थीं । महर्षि कश्यप जब सब प्रकार से समझाकर थक गये, किंतु उनकी पत्नी का दुराग्रह नहीं टला, तब विवश होकर इसे श्रीभगवान् की लीला समझकर उन्होंने मन-ही-मन सर्वान्तर्यामी प्रभु के चरणों में प्रणाम किया और एकान्त में स्थित शयनकक्ष में जाकर दिति की कामना-पूर्ति की और फिर स्नानोपरान्त यज्ञशाला में बैठकर तीन बार आचमन किया और सायंकालीन संध्या-वंदन करने लगे ।
संध्या-वन्दनादि कर्म से निवृत्त होकर महिर्ष कश्यप जब बाहर आये तो उन्होंने देखा कि उनकी सहधर्मिणी दिति भयवश थर-थर काँप रही है और अपने गर्भ के लौकिक तथा पारलौकिक उपद्रवों से रक्षा के लिये प्रार्थना कर रही है ।
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‘तुमने चतुर्विध अपराध किया है ।’ महर्षि कश्यप ने उद्विग्न स्वर में दितिदेवी से कहा ‘एक तो कामासक्त होने के कारण तुम्हारा चित्त मलिन था, दूसरे वह गर्भाधान के लिए उचित समय नहीं था, तीसरे तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया और चौथे, तुमने रूद्र आदि देवताओं का तिरस्कार किया है, इस कारण तुम्हारे गर्भ से दो अत्यन्त अधम और क्रूरकर्मा पुत्र उत्पन्न होंगे ।
उनके कुकर्मों एवं अत्याचारों से महात्मा पुरूष क्षुब्ध एवं धरित्री व्याकुल हो जायगी । वे इतने पराक्रमी और तेजस्वी होंगे कि ब्रह्मतेज से भी वे प्रभावित नहीं होंगे और ना ही उनका कुछ बिगड़ेगा । उनका वध करने के लिये स्वयं नारायण दो पृथक्-पृथक् अवतार ग्रहण करेंगे । तुम्हारे दोनों पुत्रों की मृत्यु उन परम प्रभु के ही हाथों होगी ।’
‘भगवान् चक्रपाणि के हाथों मेरे पुत्रों का अन्त हो, यह मैं भी चाहती हूँ ।’ कुछ संतोष के साथ दिति बोली ‘बस ब्राह्मणों के शाप से उनकी रक्षा हो जाय, क्योंकि ब्रह्मशाप से दग्ध प्राणी पर तो नारकीय जीव भी दया नहीं करते । मेरे पुत्रों के कारण लक्ष्मीवल्लभ श्रीविष्णु अवतार ग्रहण करेंगे, यह अत्यन्त प्रसन्नता की बात है, यद्यपि वे प्रभुभक्त नहीं होंगे, इस बात का मुझे दुःख होगा ।’
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दितिदेवी का सर्वेश्वर प्रभु के प्रति सम्मान का भाव देखकर महामुनि कश्यप संतुष्ट हो गये । उन्होंने शांत भाव से कहा-‘देवि! तुम्हें अपने कर्म के प्रति पश्चात्ताप हो रहा है, शीघ्र ही तुम्हारा विवेक जाग्रत् हो गया और भगवान् विष्णु, भूतभावन शिव तथा मेरे प्रति भी तुम्हारे मन में आदर का भाव दीख रहा है, इस कारण मै प्रसन्न मन से तुम्हे आशीष दे रहा हूँ कि तुम्हारे एक पुत्र के चार पुत्रों में एक (तुम्हारा पौत्र) श्री भगवान् का अनन्य भक्त होगा ।
वह श्रीभगवान् का अत्यन्त प्रीतिभाजन होगा और भक्तजन उसका सदा गुणगान करते रहेंगे । तुम्हारे उस पौत्र को कमलनयन हरि का प्रत्यक्ष दर्शन होगा ।’ ‘मेरा पौत्र श्रीनारायण प्रभु का भक्त होगा तथा मेरे पुत्रों के जीवन का अन्त श्रीहरि द्वारा होगा’ यह जानकर दिति का मन उल्लास से भर गया किन्तु अपने पुत्रों के द्वारा सुर-समुदाय के कष्ट की कल्पना कर उन्होंने अपने पति (कश्यपजी)-के तेज को सौ वर्ष तक अपने उदर में ही रखा ।
उस गर्भस्थ तेज से लोकों में सूर्यादि का तेज क्षीण होने लगा । इन्द्रादि लोकपाल सभी तेजोहत हो गये । भूमन् ! इन्द्रादि देवगण तथा लोकपालादि ने ब्रह्मा के समीप जाकर उनकी स्तुति के बाद निवेदन किया ‘पितामह, इस समय सर्वत्र अंधकार बढ़ता जा रहा है ।
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दिन-रात का विभाग स्पष्ट न रहने से लोकों के सारे कर्म लुप्त होते जा रहे हैं । सब दुःखी और व्याकुल हैं । आप उनके दुःख का निवारण कीजिये । दिति का गर्भ चतुर्दिक अंधकार फैलाता हुआ बढ़ता जा रहा है ।’ ‘इस समय दक्षपुत्री दिति के उदर में महर्षि कश्यप का तेज है’ विधाता ने अपने मानस पुत्र सनकादि के द्वारा वैकुण्ठधाम में श्रीनारायण के पार्षद जय-विजय को दिये शाप का वृत्तान्त सुनाते हुए उन सुरगणों से कहा ‘और उसमें श्रीनारायण के उन दोनों पार्षदों ने प्रवेश किया है ।
उन दोनों पार्षदों (दैत्यों) के तेज के सम्मुख ही तुम सबका तेज मलिन पड़ गया है । इस समय लीलाधर श्रीहरि की यही इच्छा प्रतीत होती है । वे सृष्टि-स्थिति-संहारकारी श्रीहरि ही हम सबका कल्याण करेंगे । इस सम्बन्ध में हम लागों के सोच-विचार करने का कोई अर्थ नहीं ।’ शंका-निवारण हो जाने के कारण देवगण श्रीभगवान् का स्मरण करते हुए स्वर्ग के लिये प्रस्थित हुए ।
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‘मेरे पुत्र उपद्रवी होंगे और उनसे सतपुरूषों को कष्ट होगा’, यह आशंका दिति के मन में हमेशा बनी रहती थी । इस कारण सौ वर्ष पूरा हो जाने के बाद उन्होंने दो यमज (जुड़वाँ) पुत्र उत्पन्न किये । उन दैत्यों (दिति की संतान होने से उन्हें दैत्य कहा जाता है) के धरती पर पैर रखते ही पृथ्वी, आकाश और स्वर्ग में अनेकों उपद्रव होने लगे ।
अन्तरिक्ष तिमिराच्छन्न हो गया और बिजली चमकने लगी । पृथ्वी और पर्वत काँपने लगे । पृथ्वी पर भयानक आंधियाँ चलने लगी । सर्वत्र अमंगलसूचक शब्द तथा प्रलयकारी दृश्य दृष्टिगोचर होने लगे । सनकादि मुनियों के अतिरिक्त सभी जीव भयभीत हो गये । उन्होंने समझा कि अब संसार का प्रलय होने वाला ही है । वे दोनों दैत्य जन्म लेते ही पर्वताकार एवं परम पराक्रमी हो गये ।
प्रजापति कश्यप जी ने, उनमें से जो उनके वीर्य से दिति के गर्भ में पहले स्थापित हुआ था, उसका नाम ‘हिरण्युकशिपु’ तथा जो दिति के गर्भ से पृथ्वी पर पहले आया, उसका नाम ‘हिरण्याक्ष’ रखा । हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष, दोनों भाईयों में बड़ी प्रीति थी । दोनों एक-दूसरे को अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे । दोनों ही महाबलशाली, अमित पराक्रमी एवं उद्धत थे ।
ब्रह्माण्ड के चौदह भुवन, स्वर्ग और नर्क आदि अन्यान्य लोकों का वर्णन
वे अपने सम्मुख किसी को कुछ नहीं समझते थे । हिरण्याक्ष ने अपना परम विनाशकारी अस्त्र अपने शरीर पर धारण किया और स्वर्ग जा पहुंचा । इन्द्रादि देवताओं के लिये उसका सामना करना सम्भव नहीं था । सभी भयभीत होकर छिप गये । निराश हिरण्याक्ष अपने प्रतिपक्षी को ढूँढने लगा, किंतु उसके सम्मुख कोई टिक नहीं पाता था ।
एक बार उसने सोचा, ‘भविष्य में, मृत्युलोक में रहने वाले स्त्री-पुरूष, पृथ्वी पर रहकर देवताओं का यजन करेंगे (जैसा की पिछले कल्पों में होता आया है), इससे उनका बल, वीर्य और तेज बढ़ जायगा’, यह सोचकर महान असुर हिरण्याक्ष ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि-रचना की जाने पर उसे धारण करने की भूमि में जो धारणा-शक्ति थी, उसे ले जाकर जल के भीतर-ही भीतर रसातल (Earth’s Core) में ले कर चला गया ।
आधार शक्ति से रहित होकर यह पृथ्वी भी रसातल (Earth’s Core) में ही चली गयी । पौराणिक ग्रंथों में यह पूरा वृत्तान्त धार्मिक दृष्टिकोण से लिखा गया है किन्तु शोध के दृष्टिकोण से देखने और पढ़ने पर इसमें कई वैज्ञानिक तथ्य निकल कर आ सकते हैं | यहाँ एक ऐसी घटना का वर्णन किया गया है जो इस ब्रह्माण्ड में हो चुकी है, यह कोई कथा मात्र नहीं है |
प्राचीन वाइकिंग्स द्वारा प्रयोग किया जाने वाला जादुई सूर्य रत्न क्या एक कल्पना थी या वास्तविकता ?
धारणा शक्ति से विहीन पृथ्वी के रसातल में जाने का तात्पर्य उसका (पृथ्वी की भूमि का), पृथ्वी के अन्दर समा जाना था | भूमि के पृथ्वी के अन्दर समा जाने से, अब पृथ्वी पर सर्वत्र जल ही जल था, कहीं हिम के रूप में, कहीं पानी के रूप में | सर्वत्र प्रलय काल की परिस्थिति थी |
आज के वैज्ञानिकों को भी, अतीत में पृथ्वी पर ऐसी परिस्थितियों की जानकारी मिली है | शोधकार्य जारी है, हो सकता है निकट भविष्य में प्रमाण के साथ इसका प्रकटीकरण हो | अपने भीषण पुरुषार्थ से ऐसा करने के बाद, मदोन्मत्त हिरण्याक्ष ने देखा कि उसके तेज के सम्मुख सभी देवता छिप गये हैं, तब वह महाबलवान् दैत्य जलक्रीड़ा के लिये गम्भीर समुद्र में घुस गया ।
उसे देखते ही जलदेव वरूण के सैनिक जलचर भयवश उससे दूर भागे । वहाँ भी किसी को उसका सामना करने के लिए उद्धत न पाकर वह समुद्र की विकराल, भीषण उत्ताल तरंगों पर ही अपने अस्त्र (वज्र) का प्रहार करने लगा । इस प्रकार प्रतिपक्षी को ढूँढ़ते हुए वह वरूण देव की राजधानी विभावरीपुरी में जा पहुँचा ।
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वहां पहुँचते ही उसने, ‘मुझे युद्ध की भिक्षा दीजिये ।’ कहने के साथ ही भयंकर अट्टहास किया | बड़ी ही अशिष्टता से उसने वरूणदेव को प्रणाम करते हुए व्यंग्यसहित कहा । ‘आपने कितने ही पराक्रमियों के वीर्यमद को चूर्ण किया है । सुना है एक बार अपने सम्पूर्ण दैत्यों को पराजित कर राजसूय यज्ञ भी किया था । कृपया मेरी भी युद्ध की क्षुधा का निवारण कीजिये न ।’ यह कहकर वह हँसा |
‘भाई ! अब तो मेरी युद्ध की इच्छा नहीं है ।’ पराक्रमी और उन्मत्त हुए शत्रु के व्यंग्य पर वरूणदेव क्रुद्ध तो बहुत हुए, पर प्रबल दैत्य को देखकर धैयपूर्वक उन्होंने कहा ‘मेरी दृष्टि में श्रीहरि के अतिरिक्त अन्य कोई योद्धा नहीं दीखता, जो तुम्हारे जैसे वीरपुंगव को संतुष्ट कर सके । इसलिए तुम उन्हीं के पास जाओ । उनसे भिड़ने पर तुम्हारा मद शान्त हो जायेगा । वे तुम-जैसे दैत्यों के संहार के लिये अनेक अवतार ग्रहण किया करते हैं ।’
लेकिन जब हिरण्याक्ष और वरुणदेव का संवाद इधर चल रहा था तो उधर सत्यसकंल्प ब्रह्मा जी मानुषी सृष्टि-विस्तार के लिये मन-ही-मन श्रीहरि का स्मरण कर रहे थे | वे अभी ध्यानमुद्रा में थे ही कि अकस्मात उनके शरीर के दो भाग हो गये । एक भाग से ‘नर’ हुआ और दूसरे भाग से ‘नारी’ । विधाता अत्यन्त प्रसन्न हुए ।
मयूर सिंहासन यानी तख्ते ताऊस के रहस्यमयी ख़जाने का इतिहास
‘‘मेरे मन के अनुरूप होने के कारण तुम्हारा नाम ‘मनु’ होगा ।’’ नर की ओर देखकर उन्होंने कहा | ‘‘मुझ स्वयम्भू के पुत्र होने से तुम्हारा ‘स्वायम्भुव’ नाम भी प्रख्यात होगा । तुम्हारी बगल में अपने शत-शत रूपों से मन को आकृष्ट करने वाली सुन्दरी खड़ी है । इसका नाम ‘शतरूपा’ प्रसिद्ध होगा । तुम पति और यह तुम्हारी अर्धान्गिनी, तुम्हारी पत्नी होगी । मेरे आधे अंग से बनने के कारण यह तुम्हारी अर्धागिंनी होगी ।
तुम दोनों के मध्य धर्म स्थित है । इसे साक्षी देकर तुम इसे सहधर्मिणी बना लो । यह तुम्हारी धर्मपत्नी होगी । तुम्हारे वंशज ‘मनुष्य’ कहे जायँगें ।’’ ‘भगवन् ! एकमात्र आप ही सम्पूर्ण प्राणियों के जीवनदाता हैं ।’ अत्यन्त विनयपूर्वक स्वायम्भुव मनु ने अपने पिता विधाता से हाथ जोड़कर कहा । ‘आप ही सबको जीविका प्रदान करने वाले पिता हैं । हम ऐसा कौन-सा उत्तम कर्म करें, जिससे आप संतुष्ट हों और लोक में हमारे यश का विस्तार हो ।’
‘मैं तुमसे अत्यधिक संतुष्ट हूँ ।’ सृष्टि-विस्तार के कार्य में अपने पहले के पुत्रों से निराश विधाता ब्रह्मा जी ने प्रसन्न होकर मनु से कहा । ‘तुम अपनी इस भार्या से अपने ही समान गुणवती संतति उत्पन्न कर धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करते हुए यज्ञों के द्वारा श्रीभगवान् की उपासना करो ।’ ‘मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूँगा’ |
दैत्याकार व्हेल ने जिसे निगल लिया वो मौत के मुंह से जिन्दा वापस आया
मनु ने श्रीब्रह्मा से निवेदन किया । ‘किंतु आप मेरे तथा मेरी भावी प्रजा के रहने योग्य स्थान तो बताइये । पृथ्वी तो प्रलयजल में डूबी हुई है । उसके उद्धार का यत्न कीजिये ।’ ‘अथाह जल में डूबी पृथ्वी को कैसे निकालूँ?’ चतुर्मुख ब्रह्मा जी विचार करने लगे । ‘क्या करूँ?’ फिर उन्होंने सोचा, ‘जिन श्रीहरि के संकल्पमात्र से मेरा जन्म हुआ है, वे ही सर्वसमर्थ प्रभु यह कार्य करें ।’
सर्वान्तर्यामी, सर्वलोकमहेश्वर प्रभु की स्मृति होते ही अकस्मात ब्रह्मा जी के नासा छिद्र से उनके अँगूठे के बराबर एक श्वेत वराह-शिशु निकला । विधाता उसकी ओर आश्चर्यचकित हो देख ही रहे थे कि वह तत्काल एक विशालकाय प्राणी के बराबर हो गया । ‘निश्चय ही यज्ञमूर्ति भगवान् का वराह-वषु पर्वताकार हो गया ।
उन यज्ञमूर्ति वराह भगवान् का घोर गर्जन चतुर्दिक व्याप्त हो गया । वे घुरघुराते और गरजते हुए उन्मत्त गजेन्द्र की-सी लीला करने लगे । उस समय सप्तर्षि आदि मुनिगण प्रभु की प्रसन्नता के लिये स्तुति कर रहे थे । वराह भगवान् का बड़ा ही अदभुत एवं दिव्य स्वरूप था | ‘पहले वे शूकररूप भगवान् पूँछ उठाकर बड़े वेग से ब्रह्मलोक के आकाश में उछले और अपनी गर्दन के बालों कों को फटकार कर खुरों के आघात से वहाँ के बादलों को छितराने लगे ।
भगवान राम के राज्य की एक विचित्र घटना
उनका शरीर बड़ा कठोर था, त्वचा पर कड़े-कड़े बाल थे, दाढ़ें सफेद थीं और नेत्रों से तेज निकल रहा थ, उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी । उनकी दाढ़ें बड़ी कठोर थीं । इस प्रकार यद्यपि वे बड़े क्रूर से जान पड़ते थे, तथापि अपनी स्तुति करने वाले मरीचि आदि मुनियों की ओर बड़ी सौम्य दृष्टि से निहारते हुए उन्होंने जल में प्रवेश किया ।’
वज्रमय पर्वत के सामान अत्यन्त कठोर और विशाल वराह भगवान् के कूदते ही महासागर में अत्यंत ऊँची-ऊँची लहरें उठने लगीं । समूची पृथ्वी को अपने में ढक लेने वाला महासमुद्र जैसे व्याकुल होकर आकाश की ओर जाने लगा । भगवान् वराह बड़े वेग से जल को चीरते हुए रसातल (Earth’s Core) में पहुँचे । वहाँ उन्होंने सम्पूर्ण प्राणियों की आश्रयभूता पृथ्वी को देखा ।
हिरण्याक्ष ने पृथ्वी के चारो तरफ कुछ विशिष्ट प्रकार के अर्ध-तरल अवस्था के द्रव्यों का घेरा बना रखा था जिसकी चपेट में आने पर कोई भी जीवित प्राणी मृत्यु का ग्रास बन जाता | किन्तु महावराह रूप धारण किये उन परमप्रभु ने उन कीचड़ रुपी अत्यंत खतरनाक द्रव्यों का भक्षण करना शुरू किया और क्षण भर में उनको चट कर गए फिर उन्होंने एक भयानक गर्जना की |
अमेरिका के एक प्रेतग्रस्त मकान में होने वाली प्रेतलीला
वराह रूप में प्रभु को सम्मुख उपस्थित देखकर पृथ्वी ने प्रसन्न होकर उनकी अनेक प्रकार से स्तुति की | पृथ्वी बोली-‘शंख, चक्र, गदा एवं पद्य धारण करने वाले कमलनयन प्रभो ! आपको नमस्कार है । आज आप इस पाताल से मेरा उद्धार कीजिये ।
पूर्वकाल में आपसे ही मैं उत्पन्न हुई थी । प्रभो ! आपका जो परमतत्त्व है, उसे तो कोई भी नहीं जानता, अतः आपका जो रूप अवतारों में प्रकट होता है, उसी की देवगण पूजा करते हैं । मन से जो कुछ ग्रहण (संकल्प) किया जाता है, चक्षु है, बुद्धि द्वारा जो कुछ (विषयरूप से) ग्रहण करने योग्य है, बुद्धि द्वारा जो कुछ आकलनीय है, वह सब आपका ही रूप है । हे पुरूषोत्तम! हे परमेश्वर! मूर्त-अमूर्त, दृश्य-अदृश्य तथा जो कुछ इस प्रसंग में मैने कहा है और जो नहीं कहा, वह सब आप ही हैं । अतः आपको नमस्कार है, बारम्बार नमस्कार है ।’
धरित्री की स्तुति सुनकर भगवान् वराह ने घर्घर-शब्द गर्जन की और ‘फिर विकसित कमल के समान नेत्रों वाले उन महावराह ने अपनी दाढ़ों से पृथिवी की समूची भूमि को, जो उसकी नाभि (Core) से लिपट गयी थी, उठा लिया और वे कमल-दल के समान श्याम तथा नीलांचल के सदृश विशालकाय भगवान् रसातल (Earth’s Core) से बाहर निकले ।’
भगवान ब्रहमा जी की पूजा उपासना प्रचलित क्यों नहीं है
उधर वरूणदेव के द्वारा अपने प्रतिपक्षी का पता पाकर हिरण्याक्ष अत्यन्त प्रसन्न हुआ । उसने उनसे कहा, ‘आप मुझे श्रीहरि का पता बता दें ।’ वरुणदेव ने उसे देवर्षि नारद के बारे में बताया और कहा की श्रीहरि के बारे में सही-सही जानकारी, देवर्षि नारद जी ही दे सकते हैं | हिरण्याक्ष तुरंत देवर्षि नारद के पास पहुँच गया । उसे युद्ध की अत्यन्त त्वरा थी ।
देवर्षि के मन में दया थी | उन्होंने उससे कहा, ‘श्रीहरि ने अभी-अभी श्वेतवराह के रूप में समुद्र में प्रवेश किया है ।’ उन्होंने सोचा-‘यह भगवान् के हाथों मरकर दूसरा जन्म ले । तीन ही जन्म लेना है इसे । तीन जन्म के बाद तो यह अपने स्वरूप को प्राप्त हो ही जाएगा ।’ वे हिरण्याक्ष से बोले, ‘यदि शीघ्रता करो तो तुम उन्हें पा जाओगे ।’ हिरण्याक्ष ने देर न की |
महाविशालकाय वाराह रुपी प्रभु को देखकर चिल्लाया ‘अरे शूकररूपधारी सुराधम! चिल्लाते और भगवान् की ओर तेजी से दौड़ते हुए हिरण्याक्ष ने कहा । ‘मेरी शक्ति के सम्मुख तुम्हारी योगमाया का प्रभाव नहीं चल सकता । मेरे देखते हुए तू पृथ्वी को लेकर नहीं भाग सकता । निर्लज्ज कहीं का ।’
ब्रह्मा जी के अंशावतार ऋक्षराज जाम्बवन्त जी की कथा
श्री भगवान् दुर्जय दैत्य के वाग्बाणों की चिन्ता न कर पृथ्वी को ऊपर लिये चले जा रहे थे । वे भयभीत पृथ्वी को उचित स्थान पर स्थापित करना चाहते थे । इस कारण हिरण्याक्ष के दुर्वचनों का कोई उत्तर नहीं दे रहे थे । कुपित होकर दैत्य ने कहा, ‘सत्य है, तेरे-जैसे प्राणी सभी अकरणीय कृत्य कर डालते हैं ।’
प्रभु ने पृथ्वी को जल के ऊपर लाकर व्यवहार योग्य स्थल पर स्थापित किया और उसमें अपनी आधार शक्ति का संचार किया । उस समय हिरण्याक्ष के सामने ही भगवान् पर देवगण पुष्प-वृष्टि और ब्रह्मा उनकी स्तुति करने लगे । ‘मैं तो तेरे सामने कुछ भी नहीं ।’ तब प्रभु ने काजल के पर्वत के सामान हिरण्याक्ष से कहा ।
वह अपने हाथ में विशाल गदा लिये अनर्गल प्रलाप करता हुआ दौड़ा आ रहा था । प्रभु बोले, ‘अब तू अपने मन की कर ले ।’ फिर तो महाबलशाली हिरण्याक्ष एवं भगवान् वराह में भयानक संग्राम हुआ । दोनों के वज्रतुल्य शरीर गदा की चोट से रक्त में सन गये । हिरण्याक्ष और माया से वराह रूप धारण करने वाले भगवान् यज्ञमूर्ति का युद्ध देखने मुनियों सहित ब्रह्माजी वहाँ आज पहुँचे थे ।
कहानी, सूपर्णखा, मंथरा, और कुब्जा के पूर्वजन्म की
उन्होंने प्रभु से प्रार्थना की, ‘प्रभो ! अब शीघ्र इसका वध कर डालिये ।’ विधाता के भोलेपन पर श्री भगवान् ने मुस्कराकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली । अब अत्यन्त शूर हिरण्याक्ष से प्रभु का भीषणतम संग्राम हुआ । अपने किसी अस्त्र-शस्त्र, छल-छद्य तथा माया-प्रपंच का आदिवराह पर कोई प्रभाव पड़ता न देख हिरण्याक्ष श्रीहत होने लगा ।
अंत में श्री भगवान् ने हिरण्याक्ष की कनपटी पर एक थप्पड़ मारा । श्री भगवान् ने यद्यपि तमाचा उपेक्षा से मारा था, किंतु उसकी चोट से हिरण्याक्ष के नेत्र, अपने कोटरों से बाहर निकल आये । वह घूमकर कटे वृथ की तरह धाराशयी हो गया । उसके प्राण-पखेरू उड़ चुके थे । ‘ऐसी दुर्लभ मृत्यु किसे प्राप्त होती है!’
ब्रह्मादि देवताओं ने हिरण्याक्ष के भाग्य की सराहना करते हुए कहा । ‘मिथ्या उपाधि से मुक्ति प्राप्त करने के लिये योगीन्द्र-मुनीन्द्र जिन महामहिम परमेश्वर का ध्यान करते हैं, उन्हीं के चरण-प्रहार से उनका मुख देखते हुए इस दैत्यराज ने अपना प्राण-त्याग किया ! धन्य है यह ।’ इसके साथ ही सुर-समुदाय महावराह प्रभु की स्तुति करने लगा । और फिर प्रभु ने वैष्णवों के हित के लिये कामुख तीर्थ में वराह रूप का त्याग किया ।
परमेश्वर के पृथ्वी पर अवतार लेने की अवधारणा एवं उनका विज्ञान
वह वराह-क्षेत्र उत्तम एवं गुप्त तीर्थ है ।’ यह क्षेत्र पृथ्वी पर कहाँ है, इस पर विद्वानों में मतभेद है किन्तु यह आज भी रहस्य बना हुआ है | पृथ्वी के उसी पुनः प्रतिष्ठा-काल से इस श्वेतवाराह-कल्प की सृष्टि प्रारम्भ हुई है । उत्तरकुरू वर्ष में भगवान् यज्ञपुरूष वराहमूर्ति धारण करके विराजमान है । साक्षात् पृथ्वी देवी वहाँ के निवासियों सहित उनकी अत्यन्त श्रद्धा-भक्ति से उपासना करती हैं और उनके परमोत्कृष्ट मंत्र का जप करती हुई उनका स्तवन करती हैं |