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भगवान ब्रहमा जी की पूजा उपासना प्रचलित क्यों नहीं है
सनातन धर्म में भगवान ब्रह्मा जी पूजा, उपासना उतनी प्रचलित नहीं है जितना अन्य देवी देवताओं की है लेकिन अमूर्त उपासना में ब्रहमा जी की सर्वत्र पूजा होती है और सभी प्रकार के सर्वतोभद्र, लिंगतोभद्र तथा वास्तु आदि चक्रों में उनकी पूजा मुख्य स्थान में होती हैं | जहाँ तक मंदिरों की बात है तो मन्दिरों के रूप में इनकी पूजा मुख्यतया पुष्कर-क्षेत्र तथा ब्रह्मावर्त-क्षेत्र में देखी जाती है |
वैसे ऐतिहासिक महत्व वाले स्थानों पर इनके भित्तिचि़त्र और प्रतिमा चित्र तो सर्वत्र मिलते हैं जिससे पता चलता है किसी समय ब्रह्मा जी की भी पूजा उतनी ही प्रचलित रही होगी जितनी अन्य भगवानों और देवियों की रही है |
मध्वसम्प्रदाय, जिसके भेदाभेद, स्वतंन्त्रास्वतन्त्र तथा द्वैतवाद आदि अनेक नाम है, के आदि प्रवर्तक आचार्य भगवान ब्रहमा ही माने गये हैं, इसीलिये उडुपी आदि मुख्य मध्वपीठों में भी इनकी बड़े आदर से पूजा आराधना की परम्परा रही है ।
फिर भी प्रतिमा के रूप में ब्रहमा जी की व्यापक पूजा गाँव-गाँव और शहर-शहर में, भगवान शिव, भगवान विष्णु, देवी दुर्गा, भगवान् राम, भगवान कृष्ण, और हनुमान जी आदि के समान नहीं देखी जाती । यद्यपि इसके मूल में कारण और आख्यान भी कई प्राप्त होते है फिर भी मुख्य कथा पद्मपुराण के सृष्टिखंड में आती हैं |
उस कथा के अनुसार एक बार पुष्कर क्षेत्र के महायज्ञ में जब सभी देवता उपस्थित हो गये और सभी की पूजा आदि के पश्चात् हवन की तैयारी होने लगी, उस समय तक सभी देव पत्नियां भी उपस्थित हो चुकी थीं, किन्तु ब्रहमा जी की पत्नी सरस्वती जी अन्य देवियों के द्वारा बुलाये जाने पर भी विलम्ब करती गयीं, तब बिना पत्नी के यज्ञ का विधान न होने से यज्ञारम्भ में अति विलम्ब देखकर इन्द्रादि देवताओं ने कुछ समय के लिए सावित्री नाम की कन्या को, जो सभी सुलक्षणों से सम्पन्न थी, ब्रहमा जी के वामभाग में बैठा दिया ।
थोड़ी समय के पश्चात् जब सरस्वती जी वहाँ पहुँची तो यह सब देखकर अत्यंत क्रुद्ध हो गयीं ओर उन्होंने देवताओं को बिना विचार किये काम करने की वजह से संतानरहित होने का श्राप दे दिया और ब्रहमाजी को भी पुष्कर आदि कुछ क्षेत्रों को छोड़कर अन्यत्र मन्दिर आदि में प्रतिमा रूप में पूजित न होने का श्राप दे दिया ।
अतः उनकी प्रस्तर आदि की प्रतिमाएं प्रायः अन्यत्र नहीं देखी जाती है, किंतु मन्त्र, ध्यान और यज्ञादि में उनका वही सम्मान, सादर आवाहन-पूजन के पश्चात् उन्हें आहुतियां प्रदान की जाती हैं, स्तुति-पूजा भी होती है और सर्वतोभद्रादि चक्रों में सर्वाधिक प्रतिष्ठित रूप से वे उपास्य माने गये है । सर्वतोभद्रचक्र के मध्य में अष्टदल कमल की कर्णिका में इनका आवाहन, पूजन किया जाता है, यथा मध्ये कर्णिकायां ब्रहमाणम् । ‘ब्रहम ज्ञानम्’ यह उनका मुख्य मन्त्र है ।
‘ऊॅ ब्राह्मणे नमः’ इस नाम मन्त्र से भी पूजन होता है । वरूणकलष में भी ‘कुषब्रहमा’ की स्थापना होती है । देवता तथा असुरों की तपस्या में प्रायः सबसे अधिक अराधना ब्रहमा जी की ही होती है । विप्रचित्ति, तारक, हिरण्यकषिपु, रावण गजासुर तथा त्रिपुर आदि असुरों को इन्होने वरदान देकर प्रायः अवध्य कर डाला था और देवता, ऋषि, मुनि, गन्धर्व, किंकर तथा विद्याधरगण तो इनकी अराधना में निरत रहते ही है ।
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