वाइकिंग्स (Vikings), स्कैंडिनेविया (Scandinavia) के समुद्री लुटेरे, कौन नहीं जानता इन्हें | प्राचीन अभिलेख हों या आधुनिक जगत की फिल्मे हर जगह आपको इनसे सम्बंधित तथ्य मिल जायेंगे |
लेकिन वाइकिंग्स पर बनने वाली आधुनिक फिल्मो को मिलने वाली सफलता इस ओर भी इशारा करती हैं कि तथ्यों में निहित यथार्थ, सम्मोहक रहस्यों की कल्पना में कहीं गुम हो गए हैं | लेकिन ये कल्पनायें भी उस पथ को जन्म देती हैं जिस पर चल कर यथार्थ को पाया जा सकता है |
उत्तरी समुद्र से लेकर अटलांटिक महासागर के यूरोपियन तट तक, हर कहीं इन वाइकिंग्स की समुद्री यात्रायें होती थी | इनसे सम्बंधित कई सारे मिथकों में से एक मिथक उस जादुई सूर्य रत्न से सम्बंधित है जिसके बारे में कहा जाता था कि यह अन्तरिक्ष में सूर्य का स्थान तब भी बताता था जब आकाश पूरी तरह से बादलों से घिरा हो और समंदर में दिशा-भ्रम की स्थिति बनी हुई हो |
यहाँ तक कि सूर्यास्त के बाद भी यह सूर्य की स्थिति और उससे सम्बंधित कई जानकारियाँ बताता था | उत्तरी यूरोप के कई देशों की पारंपरिक कथायें आज भी उस सूर्यमणि का ज़िक्र करती हैं जिससे अन्तरिक्षीय हलचल की कई रहस्यमय जानकारियाँ प्रगट होती थीं |
सदियों तक इस मिथक को सिर्फ प्राचीन कथायें ही पालती-पोसती रहीं | लेकिन 2010 में जब, चैनल द्वीप समूह (Channel Islands) के समुद्र तट के पास, एक प्राचीन डूबे हुए जहाज के मलबे में, एक अदभुत स्फटिक मणि मिला तो उस पर शोध करने वाले वैज्ञानिको का माथा ठनका |
उन्हें उसमे एक अनोखी क्षमता का आभास हो रहा था लेकिन सार्वजनिक रूप से कुछ भी कहने से पहले वे प्रयोगों द्वारा पूरी तरह आश्वस्त हो लेना चाह रहे थे |
तीन वर्षों के गहन शोध के पश्चात् वैज्ञानिकों ने घोषणा की, कि यह स्फटिक चूनापत्थर के ही एक अज्ञात खनिज से बना हुआ था जिसमे नौपरिवहन के दिशासूचक सम्बन्धी कार्यों में प्रयोग हो पाने की अद्भुत क्षमता थी | उन शोधकर्ताओं के अनुसार ऐसा उस दिव्य स्फटिक के, दोहरे अपवर्तन की असामान्य क्षमता के कारण हो पा रहा था |
वह स्फटिक अपने दोहरे अपवर्तन की क्षमता की वजह से, कोहरे या धुंध होने पर तथा बादलों की उपस्थिति में भी सूर्य की अचूक स्थिति बताता था | अभी हाल ही में हंगरी के एक विश्वविद्यालय (Eötvös Loránd University) ने यह जानने के लिए कि वह ‘सूर्य-मणि’ नौपरिवहन में कितना अचूक था, एक दिलचस्प प्रयोग किया |
उन्होंने आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस का प्रयोग करते हुए, नोर्वे से ग्रीनलैंड के बीच प्राचीन काल की लगभग 1000 यात्राओं के, (अलग-अलग बदली की परिस्थितियों में), उनके परिणामों के साथ, आंकड़ो को कंप्यूटर में एक मॉडल बना कर चलाया |
उन्होंने इसे (इस कंप्यूटर मॉडल को) सूर्य के उत्तरायण और दक्षिणायन में होने के दौरान, किन्ही दो दिनों के बीच कई बार चलाया और परिणाम चौकाने वाले थे | उन्होंने पाया कि अगर इन यात्राओं के दौरान इस सूर्य-मणि को हर तीन घंटे बाद प्रयोग किया गया होगा तो उसकी सफलता के परिणाम लगभग नब्बे प्रतिशत से सौ प्रतिशत के बीच रहे होंगे |
ये शोध परिणाम यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि क्यों सैकड़ों सालों तक इन जल दस्युओं ने अटलांटिक महासागर में राज किया और किस प्रकार वे बिना किसी चुम्बकीय दिक्सूचक यंत्र के, उत्तरी अमेरिका पहुंचे होंगे |
शोधकर्ताओं का मानना है कि वाइकिंग्स (स्कैंडिनेवियाई जलदस्यु) उस जादुई सूर्यमणि के साथ-साथ एक दिक्सूचक यंत्र (या एक प्रकार की सूर्य घड़ी) का भी प्रयोग करते रहे होंगे जो उन्हें घोर रात्रि में भी दिशा का भान कराती होगी |
शोधकर्ताओं के इस मान्यता के पीछे वो लकड़ी का टुकड़ा है जो 1948 में ऊनार्तोक (Uunortoq), ग्रीनलैंड में मिला था | दिखने में यह ऐसा था मानो किसी दिशा-सूचक यंत्र या सूर्य घड़ी का हिस्सा हो |
ऊनार्तोक (Uunortoq), ग्रीनलैंड में वो जगह है जिसे दसवीं शताब्दी में स्कैंडिनेवियाई किसानों ने ही बसाया था | पहली बार जब वो लकड़ी का टुकड़ा अचानक मिला तो उसे स्कैंडिनेवियाई किसानों के घरों में प्रयोग होने वाले सजावटी सामान का हिस्सा समझा गया लेकिन जब उसपर बारीक़ छोटी-छोटी रेखाएं खिंची हुई दिखाई दीं तो समझा गया कि यह किसी दिशा सूचक यंत्र का हिस्सा रहा होगा |
इन्ही स्कैंडिनेवियाई जलदस्युओं द्वारा प्रयुक्त होने वाले दिशा सूचक यंत्र और तथाकथित रहस्यमयी सूर्य मणि के ऊपर कुछ टेलीविज़न चैनल्स ने, कुछ समय पहले, अपना प्रोग्राम भी दिखाया था |
अटलांटिक महासागर वैसे भी अपने अन्दर गहरे रहस्यों को समाये हुए है, चाहे वो स्कैंडिनेवियाई जलदस्युओं का रहस्य हो अटलांटिस सभ्यता का | कभी-कभी ये रहस्य अचानक, समंदर की गहराई से उसकी सतह पर प्रकट होते हैं और कभी-कभी उन्ही गहराइयों में समा जाते हैं (शायद हमेशा के लिए) | रह जाती हैं सिर्फ़ कहानियाँ….सुनाने के लिए !
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