पौराणिक ग्रंथों में ब्रह्माण्ड की विभिन सृष्टियों की उत्पत्ति का मनोरम वर्णन

Maharishi-Vedavyas-JIभारतीय पौराणिक ग्रंथों में पृथ्वी समेत समूची सृष्टि और ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का वृहद वर्णन है | कुछ आलंकारिक वर्णनों के साथ विभिन्न पुराणों में भिन्नता होते हुए भी वैज्ञानिक तथ्यों में उनमे गज़ब का साम्य है |

इन पुराण ग्रंथों में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से सम्बंधित वैज्ञानिक घटनाओं को रोचक कथानक के रूप में प्रस्तुत किय गया है | जैसे भविष्य पुराण में ऐसे ही एक रोचक प्रसंग में ना केवल अठारहों विद्याओं का वर्णन हुआ बल्कि सृष्टि (ब्रह्माण्ड) की उत्पत्ति से सम्बंधित घटनाओं का भी बड़ा मनोहारी वर्णन है |

एक समय महर्षि वेदव्यास के शिष्य महर्षि सुमन्तु, तथा महर्षि वशिष्ठ, पाराशर, जैमिनी, याज्ञवल्क्य, गौतम, वैशम्पायन, शौनक, अंगिरा और भारद्वाज आदि महर्षिगण, पांडव वंश में उत्पन्न हुए बुद्धिमान और बलशाली राजा शतानीक की राजसभा में गए |

सम्राट ने उन महर्षियों का अर्ध्यादी देकर खूब स्वागत सत्कार किया और उन्हें उत्तम आसनों पर बैठाया तथा भलीभांति उनका पूजन कर उनसे इस प्रकार से विनती की “हे महात्माओं आप लोगों के आगमन से मेरा जीवन सफल हो गया | आप लोगों को प्रातः काल स्मरण करने मात्र से मनुष्य पवित्र हो जाता है, फिर आप लोग तो मुझे दर्शन देने के लिए यहाँ आ पहुंचे, अतः आज मै धन्य हो गया |

आप लोग कृपा करके मुझे उन पवित्र और पुण्यमयी कथाओं को सुनाइये जिनको सुनने से मेरा जीवन सफल हो जाए और मुझे परम गति प्राप्त हो” | तब उनसे ऋषियों ने कहा ‘हे राजन इस विषय में आप हम सबके गुरु साक्षात नारायण स्वरुप भगवान वेदव्यास जी से निवेदन करें | वे कृपालु हैं, सभी प्रकार के शास्त्रों और विद्याओं के ज्ञाता हैं, दिव्य ग्रन्थ महाभारत के भी रचयिता यही हैं’ |

ऋषियों से इस प्रकार से सुनकर सम्राट शतानीक ने महर्षि वेदव्यास जी से दिव्य कथाओं के श्रवण की प्रार्थना की | वेदव्यास जी ने शतानीक से कहा “राजन! यह मेरा शिष्य सुमन्तु महान तेजस्वी एवं समस्त शास्त्रों का ज्ञाता है | यह आपकी समस्त जिज्ञासाओं को शांत करेगा” | बाकी मुनियों ने भी वेदव्यास जी की बातों को अनुमोदन किया |

उसके बाद राजा शतानीक ने महर्षि सुमन्तु से दिव्य ज्ञान के श्रवण की प्रार्थना की | शतानीक की प्रार्थना पर महर्षि सुमन्तु ने उन्हें सृष्टि की उत्पत्ति से सम्बंधित जो बाते बतायी उसका भविष्य पुराण में विशद वर्णन है |

उन्होंने उनसे कहा- हे कुरुश्रेष्ठ शतानीक ! इस कथानक को ब्रह्मा जी ने शंकर जी को, शंकर जी ने विष्णु जी को, विष्णु जी ने नारद जी को, नारद जी ने इन्द्र को, इन्द्र ने पराशर मुनि को तथा पराशर मुनि ने महर्षि वेदव्यास जी को सुनाया और व्यास जी से मैने प्राप्त किया । इस प्रकार परम्परा-प्राप्त यह ज्ञान इस उत्तम भविष्यमहापुराण में वर्णित है जिसको मैं आपसे कहता हूं, इसे सुनें ।

इस भविष्यमहापुराण की श्लोक-संख्या पचास हजार है । ब्रह्मा जी द्वारा प्रोक्त इस महापुराण में पाँच पर्व कहे गये हैं-(१) ब्राह्म पर्व, (२) वैष्णव पर्व, (३) शैव पर्व, (४) त्वाष्ट पर्व तथा (५) प्रतिसर्ग पर्व । पुराण के सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित—ये पाँच लक्षण बताये गये हैं तथा इसमें चौदह विद्याओं का भी वर्णन है ।

चौदह विद्याएँ इस प्रकार हैं-चार वेद (ऋक्, यजुः, साम, अथर्व), छः वेदाङ्ग (शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द, ज्योतिष), मीमांसा, न्याय, पुराण तथा धर्मशास्त्र । आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा अर्थशास्त्र- इन चारों को मिलाने से अठारह विद्याएँ होती हैं । सुमन्तु मुनि पुनः बोले-हे राजन् ! अब मैं भूतसर्ग अर्थात् समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन करता हूँ, जिसके सुनने से सभी पापों की निवृत्ति हो जाती है और मनुष्य परम शान्ति को प्राप्त करता हैं ।

हे तात ! पूर्वकाल में यह सारा संसार अन्धकार से व्याप्त था, कोई पदार्थ दृष्टिगत नहीं होता था, अविज्ञेय था, अतक्र्य था और प्रसुप्त-सा था। उस समय सूक्ष्म अतीन्द्रिय और सर्वभूतमय उस परब्रह्म परमात्मा भगवान् भास्कर ने अपने शरीर से नानाविध सृष्टि करने की इच्छ की और सर्वप्रथम परमात्मा ने जल को उत्पन्न किया तथा उसमें अपने वीर्यरूप शक्ति का आधान किया।

इससे देवता, असुर, मनुष्य आदि सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ। वह वीर्य जल में गिरने से अत्यन्त प्रकाशमान सुवर्ण का अण्ड हो गया। उस अण्ड के मध्य से सृष्टिकर्ता चतुर्मुख लोकपितामह ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए।

नर (भगवान्) से जल की उत्पत्ति हुई है, इसलिये जल को नार कहते हैं। वह नार जिसका पहले अयन (स्थान) हुआ, उसे नारायण कहते हैं। ये सदसद्रूप, अव्यक्त एवं नित्यकारण हैं, इनसे जिस पुरुष-विशेषकी सृष्टि हुई, वे लोक मे ब्रह्मा के नाम से प्रसिद्ध हुए।

ब्रह्मा जी ने दीर्घकाल तक तपस्या की और उस अण्ड के दो भाग कर दिये। एक भाग से भूमि और दूसरे से आकाश की रचना की, मध्य में स्वर्ग, आठों दिशाओं तथा वरुण का निवास स्थान अर्थात् समुद्र बनाया। फिर महदादि तत्त्वों की तथा सभी प्राणियों की रचना की।

परमात्मा ने सर्वप्रथम आकाश को उत्पन्न किया और फिर क्रम से वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी-इन तत्वों की रचना की। सृष्टि के आदि में ही ब्रह्मा जी ने उन सबके नाम और कर्म वेदों के निर्देशानुसार ही नियत कर उनकी अलग-अलग संस्थाएँ बना दीं।

देवताओं के तुषित आदि गण, ज्योतिष्टोमादि | सनातन यज्ञ, ग्रह, नक्षत्र, नदी, समुद्र, पर्वत, सम एवं विषम भूमि आदि उत्पन्न कर काल के विभागों (संवत्सर, दिन, मास आदि) और ऋतुओं आदि की रचना की। काम, क्रोध आदि की रचनाकर विविध कर्मो के सद असद विवेक के लिये धर्म और अधर्म की रचना की और नानाविध प्राणि-जगत की सृष्टिकर उनको सुख-दुःख, हर्ष-शोक आदि इन्द्रियों से संयुक्त किया।

जो कर्म जिसने किया था तदनुसार उनकी (इन्द्र, चन्द्र, सूर्य आदि) पदों पर नियुक्ति हुई। हिंसा, अहिंसा, मृदु, क्रूर, धर्म, अधर्म, सत्य, असत्य आदि जीवों का जैसा स्वभाव था, वह वैसे ही उनमें प्रविष्ट हुआ, जैसे विभिन्न ऋतुओ में वृक्षो में पुष्प, फल आदि उत्पन्न होते हैं। |

इस लोक की अभिवृद्धिके लिये ब्रह्मा जी ने अपने मुख से ब्राह्मण, बाहुओं से क्षत्रिय, ऊरु अर्थात् जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों को उत्पन्न किया। ब्रह्माजी के चारों मुखों से चार वेद उत्पन्न हुए। पूर्व-मुखसे ऋग्वेद प्रकट हुआ, उसे वसिष्ठ मुनि ने ग्रहण किया ।

दक्षिण-मुखसे यजुर्वेद उत्पन्न हुआ, उसे महर्षि याज्ञवल्क्य ने ग्रहण किया। पश्चिम-मुखसे सामवेद निःसृत हुआ, उसे गौतम ऋषि ने धारण किया और उत्तरमुख से अथर्ववेद प्रादुर्भूत हुआ, जिसे लोकपूजित महर्षि शौनक ने ग्रहण किया । ब्रह्माजी के लोकप्रसिद्ध पञ्चम (ऊर्ध्व) मुखसे अठारह पुराण, इतिहास और यमादि स्मृति-शास्त्र उत्पन्न हुए।

इसके बाद ब्रह्माजी ने अपने देह के दो भाग किये । दाहिने भाग को पुरुष तथा बायें भाग को स्त्री बनाया और उसमें विराट् पुरुषकी सृष्टि की। उस विराट् पुरुष ने नाना प्रकार की सृष्टि रचने की इच्छा से बहुत काल तक तपस्या की और सर्वप्रथम दस ऋषियों को उत्पन्न किया, जो प्रजापति कहलाये ।

उनके नाम इस प्रकार है-(१) नारद, (२) भृगु, (३) वसिष्ठ, (४) प्रचेता, (५) पुलह, (६) क्रतु, (७) पुलस्त्य, (८) अत्रि, (९) अंगिरा और (१०) मरीचि । इसी प्रकार अन्य महातेजस्वी ऋषि भी उत्पन्न हुए। अनन्तर देवता, ऋषि, दैत्य और राक्षस, पिशाच, गन्धर्व, अप्सरा, पितर, मनुष्य, नाग, सर्प आदि योनियों के अनेक गण उत्पन्न किये और उनके रहने के स्थानो को बनाया ।

विद्युत्, मेघ, वज्र, इन्द्रधनुष, धूमकेतु (पुच्छल तारे), उल्का, निर्घात (बादलों की गड़गड़ाहट) और छोटे-बड़े नक्षत्रोको उत्पन्न किया । मनुष्य, किन्नर, अनेक प्रकार के मत्स्य, वराह, पक्षी, हाथी, घोड़े, पशु, मृग, कृमि, कीट, पतंग आदि छेटे-बड़े जीवों को उत्पन्न किया ।

इस प्रकार उन भास्कर देव ने त्रिलोकी की रचना की । हे राजन् ! इस सृष्टि की रचना कर सृष्टि में जिन-जिन जीवों का जो-जो कर्म और क्रम निर्धारित किया गया, उसका मैं वर्णन करता हूँ. आप सुने । हाथी, व्याल, मृग और विविध पशु, पिशाच, मनुष्य तथा राक्षस आदि जरायुज (गर्भसे उत्पन्न होने वाले) प्राणी हैं।

मत्स्य, कछुवे, सर्प, मगर तथा अनेक प्रकार के पक्षी अण्डज (अण्डे से उत्पन्न होने वाले) हैं। मक्खी, मच्छर, जूँ, खटमल आदि जीव स्वेदज हैं अर्थात् पसीने की उष्मा से उत्पन्न होते हैं। भूमि को उद्भेद कर उत्पन्न होने वाले वृक्ष, ओषधियाँ आदि उद्भिज्ज सृष्टि हैं।

जो फल के पकने तक रहें और पीछे सूख जायें या नष्ट हो जायें तथा जो बहुत फूल और फल वाले वृक्ष है, वे ओषधि कहलाते हैं और जो पुष्पके आये बिना ही फलते हैं, वे वनस्पति हैं तथा जो फूलते और फलते हैं उन्हें वृक्ष कहते हैं। इसी प्रकार गुल्म, वल्ली, वितान आदि भी अनेक भेद होते हैं। ये सब बीजसे अथवा काण्ड से अर्थात् वृक्ष की छोटी-सी शाखा काट कर भूमि में गाड़ देने से उत्पन्न होते हैं।

ये वृक्ष आदि भी चेतना-शक्ति सम्पन्न हैं और इन्हें सुख-दुःखका ज्ञान रहता है, परंतु पूर्वजन्म के कर्मो के कारण तमोगुण से आच्छन्न रहते हैं, इसी कारण से मनुष्यों की भाँति बातचीत आदि करने में समर्थ नहीं हो पाते। |

इस प्रकार यह अचिन्त्य चराचर-जगत् भगवान् भास्कर से उत्पन्न हुआ है। जब वह परमात्मा निद्रा का आश्रय ग्रहण कर शयन करता है, तब यह संसार उसमें लीन हो जाता हैं और जब निद्राका त्याग करता है अर्थात् जागता है, तब सब सृष्टि उत्पन्न होती है और समस्त जीव पूर्व कर्मानुसार अपने-अपने कर्मो में प्रवृत्त हो जाते हैं। वह अव्यय परमात्मा सम्पूर्ण चराचर जगत को जाग्रत् और शयन दोनों अवस्थाओं द्वारा बार-बार ऊत्पन्न और विनष्ट करता रहता है |

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