ब्रह्मा जी के अंशावतार ऋक्षराज जाम्बवन्त जी की कथा

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ब्रह्मा जी के अंशावतार ऋक्षराज जाम्बवन्त जी की कथा

ब्रह्मा जी के अंशावतार ऋक्षराज जाम्बवन्त जी की कथा, भारतीय धर्म के कई पौराणिक एवं धार्मिक ग्रंथों में दी हुई है | उन कथाओं के अनुसार एक बार भगवान ब्रह्मा जी के मन में उत्कट अभिलाषा उत्पन्न हुई कि जब भी पृथ्वी पर परमेश्वर अवतार लें, वे (ब्रह्मा जी) उनके पास हों |

इस अभिलाषा के उत्पन्न होते ही उन्होंने अपने ही अंश से ऋक्षराज जाम्बवन्त जी के रूप में अपने आप को प्रकट किया और पृथ्वी पर गये । उन्हें पता था कि भगवान अलग-अलग युग में, अपने अलग-अलग रूप में अवतार लेंगे | इस प्रकार से भगवान् के नित्य मंगलमय रूप का ध्यान, उनकी लीलाओं का चिन्तन, यही जाम्बवन्त जी की दिनचर्या थी ।

सत्ययुग में जब भगवान् ने वामन रूप में अवतार लेकर विराट रूप धारण करके दैत्यराज बलि को बांध लिया था, उस समय उन प्रभु के विराट रूप को देखकर ऋक्षराज जाम्बवन्त जी को बड़ा ही आनन्द हुआ । वे हर्ष से विभोर हो गए और दो घड़ी में ही दौड़ते हुए उन्होंने भगवान के विराट रूप की सात प्रदक्षिणाएं पूरी कर लीं ।

अमित-आयु लेकर पृथ्वी पर आये जाम्बवन्त जी ने विवाह करके अपना परिवार बसाया और संतानोत्पत्ति भी की | त्रेता युग में जब बाली ने अपने भाई सुग्रीव को राज्य से निकाल दिया तो अपने विश्वासपात्र साथियों तथा हनुमान जी के साथ घूमते हुए सुग्रीव की मुलाकात जाम्बवन्त जी से हुई |

जाम्बवन्त जी के विशालकाय शरीर तथा अतिशय बाहुबल तथा बुद्धिमत्ता से सुग्रीव प्रभावित हुए | उन्होंने जाम्बवन्त जी से मित्रता का हाँथ बढ़ाया जिसे जाम्बवन्त जी ने स्वीकार कर लिया | उन्हें पता था कि प्रभु के दूसरे अवतार के दर्शन का समय नज़दीक आ गया था | आयु, बुद्धि, बल तथा नीति में सबसे श्रेष्ठ होने के कारण सुग्रीव जी ने उन्हें अपना प्रधानमन्त्री बना दिया था |

पहली बार भगवान राम से मिलने पर जाम्बवन्त जी भावविभोर हो गए थे लेकिन सीता मैया के बारे में जानकार उन्हें बहुत कष्ट हुआ | वानर सेना, हनुमान जी के साथ जब सीता जी की खोज के लिए निकली और अंत में समुद्र के तटपर हताश होकर बैठ गयी, तब जाम्बवन्त जी ने ही हनुमान जी को उनके बल का स्मरण दिलाकर रावण की लंका जाने के लिए प्रेरित किया ।

भगवान श्री राम के रावण से युद्ध के समय में तो जैसे ये प्रधान सचिव ही थे । सभी कार्यो में भगवान इनकी सम्मति लेते और उसका आदर करते थे । मेघनाद से लक्ष्मण जी का जब घनघोर युद्ध हो रहा था तब मेघनाद ने अपनी पुंज-माया से वहाँ सभी को व्याकुल कर दिया था, पर जाम्बवन्त जी को वह माया स्पर्श तक नहीं कर सकी ।

स्वभावतः शान्त रहने वाले जाम्बवन्त जी ने एक बार क्रोध में आकर रावण को मल्ल-युद्ध के लिए ललकारा और रावण ने उनकी चुनौती स्वीकार कर ली | लेकिन मल्ल-युद्ध के दौरान उनके एक भीषण मुष्टि-प्रहार से रावण मूर्छित हो गया |

उसके बाद से रावण और मेघनाद दोनों ही जाम्बवन्त जी से डरते थे | युद्ध की समाप्ति के पश्चात् जब भगवान् राम जानकी मैया और लक्ष्मण जी के साथ अयोध्या लौट आये और अपने राज्याभिषेक के बाद सबको विदा करने लगे, तब जाम्बवन्त जी ने प्रेमातिरेक में उनको छोड़कर जाने से इंकार कर दिया और भगवान के बहुत समझाने पर अयोध्या से जाना तभी स्वीकार किया जब प्रभु ने उन्हें द्वापर युग में फिर दर्शन देने का वचन दिया ।

रावण पर घातक प्रहार करने और उसके मूर्छित हो जाने के बाद से जाम्बवन्तजी की इच्छा थी कि कोई मुझे द्वन्द्वयुद्ध में हराकर सन्तुष्ट कर सके । भगवान राम उनकी यह इच्छा ताड़ गए थे | भगवान तो भक्तवांछाकल्पतरू है | अपने भक्त की इच्छा पूर्ण करना ही उनका व्रत है |

द्वापर में कृष्ण भगवान का अवतार हुआ । उनके द्वारा बसाए नगर द्वारका में यदुकुल श्रेष्ठ सत्रजित ने एक बार सूर्य भगवान की अराधना करके देवदुर्लभ स्यमन्तक मणि प्राप्त की (इस स्यमन्तक मणि का एक छोटा टुकड़ा ही आज कोहिनूर हीरे के रूप में विद्यमान है) ।

इस स्यमन्तक मणि की खास बात यह थी की इसे तत्कालीन विमानों के अग्निवर्षक यंत्रों में लगाकर, एक बड़े शत्रु-समूह पर भीषण अग्निवर्षा की जा सकती थी |

इन्ही बातों को ध्यान में रखकर एक दिन श्री कृष्ण ने सत्रजित से बातचीत के दौरान सलाह दी कि उसे वह मणि महाराज उग्रसेन को दे देनी चाहिए क्योंकि महाराजा उग्रसेन ही हमारे राजा हैं एवं रक्षक हैं अतः उनके पास यह अधिक उपयोगी होगी किंतु लोभवश सत्रजित ने उनकी यह बात स्वीकार नहीं की । समय का पहिया ऐसा घूमा कि ना तो वह मणि सत्रजित की रही और ना ही वह वहां पहुंची जहाँ कृष्ण चाह रहे थे |

एक दिन संयोगवश उस मणि को गले में बांधकर सत्रजित का छोटा भाई प्रसेनजित् आखेट के जिए वन में गया ओर वहां उसे विशालकाय हिंसक सिंह ने मार डाला | वह सिंह मणि लेकर एक विशालकाय गुफा में घुसा जो की अन्दर से एक राजप्रसाद जैसी थी | वहां जाम्बवन्त जी अपने बालक और कुछ अंगरक्षकों के साथ बैठे थे |

सिंह ने जाम्बवन्त जी को देखते ही उन पर हमला कर दिया | जिसके परिणामस्वरूप जाम्बवन्त जी ने उस सिंह को मारकर उसकी मणि ले ली और थोड़ा परखने के बाद अपने बगल में खड़े अपने बच्चे को खेलने के लिए दे दी |

उधर द्वारका में जब प्रसेनजित नहीं लौटा, तब सत्रजित को शंका हुई कि हो ना हो श्री कृष्ण ने ही मेरे भाई को मारकर उस मणि को छीन लिया है | धीरे-धीरे सत्रजित ने अपने मन की इस शंका को, लोगों को बता कर, श्री कृष्ण को बदनाम करते हुए फैलाने लगा |

फैलते-फैलते यह बात श्री कृष्ण को भी पता लगी | उन्होंने अपने ऊपर लगे इस लांछन को दूर करने के लिए स्वयं उस मणि को ढूँढने की ठानी | अपने ऊपर लगे इस अपयश को दूर करने के लिए श्री कृष्ण मणि का पता लगाने जंगल की तरफ निकले | सबसे पहले वे मरे हुए घोड़े को, फिर मृत सिंह को देखते हुए वह जाम्बवन्त जी की गुफा में पहुंचे |

प्रासाद में एक अपरिचित पुरुष को देख बच्चे का पालन करने वाली धाय भय से चिल्ला उठी । जाम्बवन्त इस चिल्लाहट को सुन, क्रोध में भरे दौड़े । उन्होंने केशव को युद्ध के लिए ललकारा | कृष्ण ने कहा कि “मुझे सिर्फ वह मणि चाहिए जो आपके बालक के हाँथ में है” | इस पर जाम्बवन्त जी ने कहा कि “उसके लिए पहले तुम्हे मुझे परस्त करना होगा” |

कृष्ण ने कहा “अच्छी बात है” और इसी के साथ उनका द्वन्द्वयुद्ध होने लगा | कहते हैं कि सत्ताइस दिन-रात तक बिना विश्रााम किये दोनों एक-दूसरे पर वज्र के समान आघात करते रहे | अन्त में जाम्बवन्त जी का शरीर मुधुसूदन के घातक प्रहारों से घायल हो कर शिथिल पड़ने लगा ।

जाम्बवन्त जी ने मन-ही-मन सोचा ‘कि मुझे पराजित कर सके, ऐसा कोई यक्ष, देवता या राक्षस तो हो नहीं सकता, फिर ये कौन हैं,..कहीं ये मेरे प्रभु श्री राम तो नहीं | अवश्य ही ये मेरे स्वामी श्री राम ही हैं’ | यह सोचकर वे रूक गये |

और उनके सामने हाँथ जोड़कर घुटने के बल बैठ गए | उनके मुह से सिर्फ प्रभु निकला और भगवान ने उसी समय उन्हें अपने धनुर्धारी राम के स्वरुप का दर्शन दिया | वे अपने प्रभु के चरणों पर गिर पड़े थे |

श्री कृष्ण ने प्रेम से अपना हाथ उनके शरीर पर फेरकर उनकी समस्त पीड़ा, श्रान्ति तथा क्लेष को दूर कर दिया । ऋक्षराज आह्लादित थे उनके प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं थी | उनकी आँखों से निरंतर प्रेमाश्रु बह रहे थे | भगवान कृष्ण ने उन्हें कन्धों से पकड़ कर उठाया और अपने गले लगा लिया |

जाम्बवन्त जी ने अपनी कन्या जाम्बवती को यह कहकर श्री कृष्ण को सौंप दिया कि इसे आपसे अच्छा वर कोई और नहीं मिल सकता और वह मणि भी उन्हें दे दी, जिसके लिए कृष्ण वहां आये थे |

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