एक बार द्वापर युग की बात है । एक दिन पार्वती वल्लभ भगवान् शिव, ब्रह्म-सदन पहुँचे । उस समय ब्रह्मा जी शयन कर रहे थे । नया कल्प प्रारम्भ होने को था | कमलासन ब्रह्मा जी ने निद्रा से उठते ही जँभाई ली । उसी समय उनके मुख से एक महाघोर पुरूष प्रकट हुआ ।
जन्म लेते ही उसने त्रैलोक्य में भय उत्पन्न करने वाली घनघोर गर्जना की । उसके उस गर्जन से सम्पूर्ण वसुधा काँप गयी, दिक्पाल भी चकित हो गये ।
उस महाघोर पुरूष की अंग-कान्ति जमा-पुष्प के सदृश लाल थी और उसके शरीर से तीव्र सुगन्ध निकल रही थी । उसके रूप-सौन्दर्य को देखकर पद्म्योनी ब्रह्मा भी चकित हो गये ।
उन्होंने उससे पूछा-‘तुम कौन हो? तुम्हारा जन्म कहाँ हुआ है और तुम्हें क्य अभीष्ट है?’ उस पुरूष ने उत्तर दिया-‘देवाधिदेव ! आप तो अनेक ब्रह्माण्डों का निर्माण करते हैं, सर्वज्ञ हैं, फिर अनजान की तरह कैसे पूछ रहे हैं? जँभाई लेते समय मैं आपके मुख से ही प्रकट हुआ हूँ, अतः आपका पुत्र हूँ | अतएव आप मुझे स्वीकार कीजिये और मेरा नामकरण कर दीजिये ।’
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विधाता अपने पुत्र का सौन्दर्य देखकर प्रसन्न हो गये थे, अब उसकी मधुर वाणी सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए । उन्होंने कहा-‘बेटा ! अतिशय अरूणवर्ण होने के कारण तेरा नाम ‘सिन्दूर’ होगा । त्रैलोक्य को अधीन करने की तुझमें अदभुत शक्ति होगी । तू क्रोधपूर्वक अपनी विशाल भुजाओं में पकड़कर जिसे दबोच लेगा, उसके शरीर के सैकड़ों टुकड़े हो जायँगे, त्रैलोक्य में तेरी जहाँ इच्छा हो, तुझे जो स्थान प्रिय लगे, वहीं निवास कर ।’
अपने पिता ब्रह्मा जी से इतने वर प्राप्तकर मदोन्मत्त सिन्दूर सोचने लगा-‘उनका वर-प्रदान सत्य है कि नहीं, यह कैसे पता चले? यहाँ कोई है भी नहीं, जिसे मैं अपने भुजापाश में आबद्धकर उनके द्वारा दिए गए वर का परीक्षण कर लूँ । कहाँ जाऊँ? ब्रह्माण्ड में दूर-दूर तक कोई दिखाई ही नहीं देता ।’ इतना सब कुछ सोच-विचार करने के बाद अब वह सीधे पितामह के समीप पहुँचा ।
वहां उसने अपनी दोनों भुजाओं को तौलते हुए गर्जना की । ब्रह्मा जी उसकी कुचेष्टा को भांप गए किन्तु फिर भी उन्होंने उससे पूछा ‘लौट कैसे आये बेटा?’ ‘आपके वर की परीक्षा करना चाहता हूँ ।’ गरजते हुए सिन्दूर ने कहा | सिन्दूर की वाणी सुनकर पितामह अत्यन्त क्रुद्ध हुए |
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उन्होंने उसे शाप देते हुए कहा-‘सिन्दूर ! असुरों जैसे व्यवहार के कारण अब तू असुर हो जायगा । प्रभु गजानन तेरे संहार के लिये अवतरित होंगे और निश्चय ही तुझे मार डालेंगे ।’ इस प्रकार से शाप देते हुए पितामह ने ब्रह्मलोक छोड़ दिया और सीधे वैकुण्ठ लोक पहुँचे | वहाँ उन्होंने श्रीहरि से निवेदन किया-‘प्रभो! इस दुष्ट से आप मेरी रक्षा कीजिये ।’
स्वयं लोकपितामह ब्रह्मा द्वारा वर-प्राप्त सिन्दूर की सुगठित एवं प्रचण्ड काया देखकर श्रीविष्णु ने पहले तो उसे मधुर वाणी में समझाना चाहा, लेकिन सर्वथा मूर्ख, उद्दण्ड-प्रचण्ड वह असुर युद्ध के लिये विष्णु की ओर बढ़ने लगा । तब भगवान् विष्णु ने उसे भगवान् शंकर से युद्ध के लिये प्रेरित किया । उसके पौरुष को ललकारते हुए उसे भगवान् शिव से युद्ध करने के लिए उकसाया |
अपने बल से उन्मत्त हुआ मूर्ख असुर अत्यन्त प्रसन्न हुआ । उसे समझ ही नहीं आया की भगवान महादेव तो समूची सृष्टि के संहारकर्ता हैं | वह बड़े वेग से उड़ा और कैलाश पर्वत पर जा पहुँचा । वहाँ आशुतोष शिव पद्मासन लगाये ध्यानस्थ थे । नन्दी और भृड़गी आदि गण उन परम प्रभु के आस-पास ही थे और माता पार्वती उनकी सेवा कार्यों में व्यस्त थीं ।
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मूर्ख असुर सिन्दूर माता पार्वती की ओर मुड़ा ही था कि वे उसके भीषण रूप को देखकर वटपत्र की भाँति काँपती हुई मूर्च्छित हो गयीं । महापातकी असुर जगज्जननी को बलपूर्वक ले चलने के लिए आगे बढ़ा । कोलाहल से त्रिपुराारि की समाधि भंग हुई । उस असुर की यह कुचेष्टा देख कर क्रोध से भगवान् शंकर के नेत्र लाल हो गये ।
वे तीव्रतम गति से सिन्दूर के पीछे दौड़े तथा क्षणभर में ही उसके समीप पहुँच गये । अत्यन्त कुपित वृषभध्वज असुर से युद्ध करने के लिये उद्यत थे ही, उसी समय माता पार्वती ने मन-ही-मन मयूरेश का चिन्तन किया । तत्क्षण कोटिसूर्य के समान प्रभा वाले देवदेव मयूरेश्वर ब्राह्मण के वेष में सिन्दूर और शंकर के बीच प्रकट हो गये ।
वे अत्यन्त सुन्दर एवं वस्त्राभूषण-भूषित थे । उन्होंने अपने तीक्ष्णतम तेजस्वी परशु से असुर को पीछे हटाकर उससे कहा-‘माता गिरिजा को तुम मेरे पास छोड़ दो, फिर भगवान् शिव के साथ युद्ध करो । युद्ध में विजयी होने के पश्चात् ही मेरे पास आना, अन्यथा नहीं ।’
ब्राह्मण वेषधारी मयूरेश के वचन सुनकर सिन्दूर मान गया | उसने अपने सारे अस्त्र-शस्त्र निकाल लिए | फिर युद्ध आरम्भ हुआ । भगवान् शिव के परशु के एक ही आघात से सिन्दूर की शक्ति अत्यन्त क्षीण हो गयी । उसके शिथिल होते ही मदनान्तक महादेव ने उस पर अपने कठोर त्रिशूल का प्रहार किया, जिससे आहत होकर असुर वहीं गिर पड़ा और निढाल हो गया ।
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विवश हो उस महापातकी असुर सिन्दूर ने माँ पार्वती की आशा छोड़ दी और वह पृथ्वी के लिये प्रस्थित हुआ । शंकर विजयी हुए । अब ब्राह्मणवेषधारी मयूरेश अपने स्वरूप में प्रकट हो गये और अपनी माता की ओर देखकर मन्द-मन्द मुस्कराने लगे तथा माता से कहा-‘मैं आपके पुत्ररूप में शीघ्र ही प्रकट होकर असुरो का विनाश करूँगा ।’ इतना कहकर वे अन्तर्धान हो गये ।
इधर जब सिन्दूर के आंतक से त्रैलोक्य कम्पित हो गया तब देवगुरु बृहस्पति के निर्देशानुसार देवगण भगवान् विनायक की स्तुति करने लगे । स्तुति करके देवता और मुनि सभी तपस्या में संलग्न हुए । देवताओं और ऋषियों के कठोर तप से देवदेव गणराज प्रसन्न हो उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्होंने कहा-‘देवताओं! मैं असुर सिन्दूर का वध करूँगा ।
तुम लोग निश्चिन्त हो जाओ । ‘गजानन’ यह मेरा सर्वार्थसाधक नाम प्रसिद्ध होगा । मैं सिन्दूर का वधकर माँ पार्वती के सम्मुख अनेक प्रकार की लीलाएँ करूँगा । इतना कहकर गजानन अन्तर्धान हो गये । फिर कुछ ही समय पश्चात् एक दिन देवाधिदेव भगवान् शंकर के अनुग्रह से जगज्जननी पार्वती के सम्मुख अतिशय तेजोराशि से उद्दीप्त चन्द्र-तुल्य परमाहृादक परम तत्त्व प्रकट हुआ ।
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माता पार्वती ने उस परम तेजस्वी मूर्ति से पूछा-‘आप कौन हैं? कृपया परिचय देकर आप मुझे आनन्द प्रदान करें ।’ उस तेजस्वी विग्रह ने उत्तर दिया-‘माता ! त्रेता में शुभ्रवर्ण षड्भुज मयूरेश्वर के रूप में मैंने ही आपके पुत्र के रूप में अवतरित होकर सिन्धु-दैत्य का वध किया था और द्वापर में पुनः आपको पुत्र-सुख प्रदान करने का जो वचन दिया था, उसका पालन करने के लिये मैं आपके पुत्र रूप में प्रकट हुआ हूँ ।
मैंने ही ब्राह्मण-वेष में आकर महापातकी सिन्दूर के हाथ से आपकी रक्षा की थी । माता ! अब मैं सिन्दूर का वधकर त्रिभुवन को सुख-शान्ति दूँगा और भक्तों की कामना-पूर्ति करूँगा । मेरा नाम ‘गजानन’ प्रसिद्ध होगा ।’ देवदेव विनायक को पहचानकर गौरी ने उनके चरणों में प्रणाम किया और फिर हाथ जोड़कर वे उनका स्तवन करने लगीं तथा उनसे शिशु रूप में आने की प्रार्थना की ।
माता की प्रार्थना सुनते ही परम प्रभु अत्यन्त अदभुत चतुर्भुज शिशु हो गये । उनकी चार भुजाएँ थीं । नासिका के स्थान पर शुण्डदण्ड सुशोभित था । उनके मस्तक पर चन्द्रमा और हृदय पर चिन्तामणि दीप्तिमान् थे । वे गणपति दिव्य वस्त्र धारण किये, दिव्यगन्धयुक्त नवजात शिशु की तरह माता के सम्मुख उपस्थित थे ।
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वहां उपस्थित भगवान् शिव ने भी उन्हें अपने अंक में ले कर पुत्र की भांति दुलार किया | उसके कुछ क्षण के पश्चात् शिशुरूपधारी परम प्रभु गजानन ने अपने पिता भगवान शिव से कहा-‘हे पिता जी, सदाचारपरायण परम पवित्र धर्मात्मा राजा वरेण्य मेरा भक्त है । उसकी सुन्दर साध्वी पत्नी का नाम पुष्पिका है । पुष्पिका पतिव्रता, पतिप्राणा और पतिवाक्यपरायणा हैं उन दोनों ने मुझे संतुष्ट करने के लिये बारह वषों तक कठोर तप किया था ।
मैंने प्रसन्न होकर उन्हें वर प्रदान किया था ‘निश्चय ही मैं तुम्हारा पुत्र बनूँगा ।’ पुष्पिका को अभी-अभी प्रसव हुआ है, किंतु उसके पुत्र को एक राक्षसी उठा ले गयी है । इस समय वह मूर्च्छित है, अपने पुत्र के बिना वह प्राण त्याग देगी । अतएव आप मुझे तुरंत उस प्रसूता के पास पहुँचा दीजिये ।’ गजानन की वाणी सुनकर भगवान् शंकर ने नन्दी को बुलाकर कहा ‘पराक्रमी नन्दी !
पृथ्वी पर माहिष्मती नामक श्रेष्ठ नगरी में वरेण्य नामक नरेश की पत्नी पुष्पिका ने अभी कुछ ही देर पूर्व प्रसव किया है । वह कष्ट से मूर्च्छित हो गयी है और उसके शिशु को एक राक्षसी उठा ले गयी है । तुम इस पार्वती-पुत्र को तुरंत वहाँ उसके समीप रखकर लौट आओ । पुष्पिका की मूर्छा दूर होने के पूर्व ही यह शिशु उसके समीप पहुँच जाय, अन्यथा प्रसूता के प्राण-संकट की सम्भावना है, अतः शीघ्र करो ।’
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नन्दी अपने स्वामी के चरणों में प्रणाम कर गजानन को लेकर वायुवेग से उड़ चले और मूर्च्छिता पुष्पिका के सम्मुख चुपचाप गजमुख को रखकर तुरंत क्षण मात्र में लौट आये । रात्रि व्यतीत हुई । अरूणोदय हुआ । पुष्पिका ने ध्यानपूर्वक अपने शिशु को देखा-रक्तवर्ण, चतुर्बाहु, गजवक्त्र, कस्तूरी-तिलक, चन्दन-चर्चित अंग पर पीतवर्ण-परिधान और मोतियों की माला तथा विविध रत्नाभरण शोभित हो रहे थे ।
इस प्रकार का अदभुत बालक देखकर पुष्पिका चकित और दुःखी ही नहीं हुई, बल्कि भय से काँपती हुई और प्रसूति-गृह से बाहर भागी । वह अत्यंत शोक से व्याकुल होकर रोने लगी । रानी का रूदन सुनकर परिचारिकाएँ प्रसूति-गृह में गयीं ।
अलौकिक बालक को देखकर वे भी भयाक्रान्त हो काँपती हुई बाहर आ गयीं । दूसरे जिन-जिन स्त्री-पुरूषों ने उन शिशु-रूपधारी परम पुरूष का दर्शन किया, वे सभी भयभीत हुए । कुछ तो भय से मूर्च्छित हो गये । प्रत्यक्षदर्शियों ने राजा से कहा-ऐसे विचित्र बालक को राजमहल में नहीं रखना चाहिये ।
सबके मुँह से भयभीत करने वाले ऐसे वचन सुनकर नरेश वरेण्य ने अपने दूत को बुलाकर आज्ञा दी ‘इस शिशु को निर्जन वन में छोड़ आओ ।’
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राजा के दूत ने नवजात शिशु को उठाया और शीघ्रता से निर्जन वन में एक सरोवर के तट पर धीरे से रख दिया और द्रुत गति से लौट चला । गहन कानन (जंगल) में सरोवर के तट पर पड़े नवजात शिशु पर अचानक वहां से गुजर रहे महर्षि पराशर की दृष्टि पड़ी । उन्होंने शिशु के समीप पहुँच कर देखा ‘दिव्य वस्त्रालंकारविभूषित, सूर्यतुल्य तेजस्वी, चतुर्भुज, गजमुख अलौकिक शिशु ।’
उन महामुनि ने शिशु को बार-बार ध्यानपूर्वक देखा । उसके नन्हें-नन्हें अरूण चरण-कमलों पर दृष्टि डाली । उन पर ध्वज, अंकुश और कमल की रेखाएँ दिखायी दीं । अचानक महर्षि को रोमांच हो आया । हर्षातिरेक से उनके हृदय गद्गद्, कण्ठ अवरूद्ध और नेत्र सजल हो गये । ख़ुशी से विह्वल हुए आश्चर्यचकित मुनि के मुँह से निकल गया ‘अरे, यह तो साक्षात् परब्रह्म परमेश्वर हैं ।
इन करूणामय ने देवता और ऋषियों का कष्ट निवारण करने और मेरा जीवन-जन्म सफल बनाने के लिये अवतार ग्रहण किया है ।’ महर्षि ने शिशु के चरणों में प्रणामकर उसे अत्यन्त आदरपूर्वक अपने अंक में ले लिया और प्रसन्न-मन द्रुत गति से अपने आश्रम की ओर चल पड़े । गजानन के चरण-स्पर्श से ही महर्षि पराशर का सुविस्तृत आश्रम अतिशय मनोहर हो गया । वहाँ के सूखे वृक्ष भी पल्लवित और पुष्पित हो उठे । वहाँ की गायें कामधेनु-तुल्य हो गयीं । सुखद पवन बहने लगा । आश्रम दिव्यातिदिव्य हो गया ।
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सम्राट वरेण्य के गुप्तचर सर्वत्र फैले हुए थे | ‘मेरे शिशु का पालन दिव्यदृष्टि-सम्पन्न महर्षि पराशर कर रहे हैं । इस समाचार से नरेश वरेण्य अत्यन्त प्रसन्न हुए । उन्होंने अपने यहाँ पुत्रोत्सव मनाया । मंगल गायन होने लगा | वाद्य बजने लगे । राज्य के प्रत्येक घर में सम्राट की तरफ से मिष्ठान-वितरण हुआ ।
नरेश ने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को बहुमूल्य वस्त्र, स्वर्ण और रत्नालंकरण देकर संतुष्ट किया । गजानन अब नौ वर्ष के हुए । इस बीच उन्होंने अपनी भुवनमोहिनी बाल-क्रीडाओं से महर्षि पराशर, माता वत्सला और आश्रमों के ऋषियों, ऋषि-पत्नियों तथा मुनि-पुत्रों को अतिशय सुख प्रदान किया । साथ ही कुशाग्रबुद्धि विचक्षण गजानन समस्त वेदों, उपनिषदों, शास्त्रों एवं शस्त्रास्त्र संचालन आदि में पारंगत विद्वान् हो गये ।
उनकी प्रखर प्रतिभा का अनुभव करके महर्षि पराशर चकित हो जाते, ऋषिगण विस्मित रहते । गजमुख सबके अन्यतम प्रीतिभाजन बन गये थे । इधर सर्वथा निरंकुश, परम उद्दण्ड, शक्तिशाली सिन्दूर का अत्याचार पराकाष्ठा पर पहुँ गया था ।
उसके भय से देवपूजन और यज्ञ-यागादि सब बंद हो गये थे तथा देवता, ऋषि और ब्राह्मण त्रस्त थे, भयभीत रहते थे । कुछ गिरि-गुफाओं और निविड़ वनों में छिपकर अपने दिन व्यतीत करते थे । अधिकांश सत्त्वगुण सम्पन्न धर्मपरायण देव-विप्रादि सिन्दूर के कारागार में यातना सह रहे थे ।
ब्रह्माण्ड के चौदह भुवन, स्वर्ग और नर्क आदि अन्यान्य लोकों का वर्णन
उस उद्धत असुर की इस अनीति और अत्याचारों का समाचार जब पराशर ऋषि के आश्रम में पहुँचता तो गजानन अधीर और अशान्त हो जाते और अब तो त्रैलोक्य की दारूण स्थिति उनके लिये एकदम असह्य हो चुकी थी । क्षुब्ध गजानन ने अपने पिता पराशर ऋषि के समीप जाकर उनके चरणों में प्रणाम किया और कहा-‘मुनिवर ! सिन्दूरासुर के दुराचार से धरती त्रस्त हो गयी है, अतः आप और माँ दोनों मुझे आशीर्वाद दें, जिससे मैं अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना कर सकूँ ।’
पुलकित महर्षि और महर्षि-पत्नी माँ वत्सला के नेत्र बरस पड़े । वे लोग गजानन के सिर पर हाथ फेरते हुए गद्गद-कण्ठ हो बोल न सके, उनके मुँह से केवल अधूरा वाक्य निकल सका ‘माता-पिता तो अपने प्राण-प्रिय पुत्र की सदा ही विजय…….।’ फिर वत्सलानंदन अपने चारों हाथों में अंकुश, परशु, पाश और कमल धारणकर मूषक रुपी दिव्य विमान (जिसे उन्होंने आश्रम में ही तैयार किया था) पर सवार हुए ।
वीर बालक गजानन ने घनघोर गर्जना की । उनके गर्जन से त्रिभुवन काँपने लगा । गजानन वायुवेग से चले पड़े । उनके परम तेजस्वी स्वरूप से प्रलयाग्नि-तुल्य ज्वाला निकल रही थी । असुरराज सिन्दूर के भयभीत दूतों ने सिन्दूर के पास जाकर इसकी सूचना दी । कुछ क्षणों के लिए, सिन्दूर आकाशवाणी की स्मृति से चिन्तित हो गया, किंतु दूसरे ही क्षण क्रोध से उसके नेत्र लाल हो गये ।
प्राचीन वाइकिंग्स द्वारा प्रयोग किया जाने वाला जादुई सूर्य रत्न क्या एक कल्पना थी या वास्तविकता ?
वह वेग से उड़ चला और गजमुख के सम्मुख पहुँच गया तथा अनेक प्रकार के अनर्गल प्रलाप से गजानन को डराने-धमकाने लगा । ‘दुष्ट असुर !’ गजानन ने अत्यन्त निर्भीकता से कहा-‘मैं दुष्टों का सर्वनाश कर धरणी का उद्धार और सद्धर्म की स्थापना करने वाला हूँ । यदि तू मेरी शरण आकर अपने पातकों के लिये क्षमा-प्रार्थनापूर्वक सद्धर्मपरायण नरेश की भाँति जीवित रहने की प्रतिज्ञा कर ले, तब तो तुम्हें छोड़ दूँगा, अन्यथा विश्वास कर, तेरा अन्तकाल समीप आ गया है ।’
इतना कहते ही पार्वती नन्दन ने अपना विराट् रूप धारण कर लिया । इतना विराट की उनका मस्तक ब्रह्माण्ड का स्पर्श करने लगा । उनके दोनों पैर, ब्रह्माण्ड के निम्तम लोकों को स्पर्श कर रहे थे । कानों से दसों दिशाएँ आच्छादित हो गयीं थी । वे सहस्रशीर्ष, सहस्राक्ष, सहस्रपाद विश्वरूप प्रभु सर्वत्र व्याप्त हो चुके थे ।
वे अनादिनिधन, अनिर्वचनीय विराट् गजानन दिव्य वस्त्र, दिव्य गन्ध और दिव्य अलंकार से अलंकृत थे । उन अनन्त प्रभु का तेज अनन्त सूर्यों के समान था । महामहिम गजानन का महाविराट् रूप देखकर परम प्रचण्ड वर-प्राप्त असुर सिन्दूर सहम गया, उसके ह्रदय में कम्पन होने लगा पर उसने धैर्य नहीं छोड़ा ।
उसने भयानक गर्जना की और फिर वह प्रज्वलित दीप पर शलभ की तरह अपना खड्ग लेकर प्रहार करना ही चाहता था कि देवदेव गजानन ने कहा ‘मूढ़ ! तू मेरे अत्यन्त दुर्लभ स्वरूप को नहीं जानता, अब मैं तुझे मुक्ति प्रदान करता हूँ ।’ देवदेव गजानन ने महादैत्य सिन्दूर का कण्ठ पकड़ लिया । इसके बाद वे उसे अपने वज्र-सदृश दोनों हाथों से दबाने लगे ।
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असुर के दोनों नेत्र बाहर निकल आये और उसी क्षण उसका प्राणान्त हो गया । किन्तु गजानन का क्रोध अभी भी शांत नहीं हुआ | क्रुद्ध गजानन ने उसके शरीर से निकले लाल रक्त को अपने दिव्य अंगों पर पोत लिया । इस कारण जगत् मे उन भक्तवाञछाकल्पतरू प्रभु का ‘सिन्दूरवदन’ और सिन्दूरप्रिय’ नाम प्रसिद्ध हो गया ।
‘जय गजानन !’ उच्च घोष करते हुए आनन्दमग्न देवगण आकाश से पुष्प-वृष्टि करने लगे । वहाँ हर्ष के वाद्य उज उठे थे । गन्धर्व मंगल गान करने लगे और अप्सराएँ नृत्य करने लगीं थीं । ब्रह्मा, इन्द्रादि देव और वसिष्ठादि मुनि ‘गजानन की जय’ बोलते हुए पवित्रतम उपहार लिये धरणी का दुःख दूर करने वाले परम प्रभु गजमुख के सम्मुख एकत्र हुए ।
सिन्दूर-वध से प्रसन्न नृपतिगण भी वहाँ पहुँच गये । उन सबने सर्वाभरणभूषित, पाश, अंकुश, परशु और मालाधारी, चतुर्भुज, मूषक-वाहन गजानन की भक्तिपूर्वक षोडशोपचार पूजा की । ‘मेरे पुत्र ने लोककण्टक सिन्दूर को समाप्त किया है ।’ इस समाचार से अत्यंत प्रसन्न होकर राजा वरेण्य भी वहाँ आ पहुँचे । अपने पुत्र का प्रत्यक्ष प्रभाव देखकर राजा वरेण्य अत्यन्त प्रसन्न हुए ।
उन्होंने अत्यन्त प्रीतिपूर्वक गजानन की पूजा की और कहा-‘जिस अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड-नायक को ब्रह्मादि देवगण भी नहीं जान पाते, भला मैं अज्ञानी मनुष्य उसे कैसे जान पाता । मैं अपनी मूढ़ता को क्या कहूँ? घर आयी कामधेनु और सुरतरू को मैंने बाहर खदेड़ दिया । आपकी माया से मोहित होकर मैंने बड़ा अनर्थ किया हे प्रभु । आप मुझे क्षमा करें ।’
पश्चात्ताप करते हुए राजा वरेण्य की स्तुति से प्रसन्न होकर वरेण्य नन्दन गजानन ने अपनी चारों भुजाओं से उनका आलिंगन किया और फिर कहा-‘नरेश ! पूर्वकल्प में जब आपने अपनी पत्नी के साथ सूखे पत्तों पर जीवन-निर्वाह करते हुए दिव्य सहस्र वर्षों तक कठोर तप किया था, तब मैंने प्रसन्न होकर आपको दर्शन दिया ।
आप दोनों ने मुझसे मोक्ष न माँगकर मुझे पुत्र-रूप में प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की । अतएव आपके पुत्र-रूप में सिन्दूर का वधकर भू-भार-हरण करने तथा साधुजनों के पालन के लिये मैंने साकार विग्रह धारण किया, अन्यथा मैं तो निराकार-रूप से, सृष्टि के प्रत्येक अणु-परमाणु में व्याप्त हूँ । मैंने अवतार धारण कर सारा कार्य पूर्ण कर लिया । अब स्वधामप्रयाण करूँगा । तुम चिन्ता मत करना ।’
‘प्रभो ! यह जगत् तो शाश्वत दुःखालय है ।’ प्रभु के स्वधामगमन की बात सुनते ही राजा वरेण्य ने अत्यन्त व्याकुलता से हाथ जोड़कर कहा ‘आप कृपापूर्वक मुझे इससे मुक्त होने का मार्ग बता दीजिये ।’ कृपापरवश प्रभु गजानन वहीं आसन पर बैठ गये ।
अपने सम्मुख बद्धाजंलि-आसीन राजा वरेण्य के मस्तक पर उन्होंने अपना त्रितापहारी वरद हस्त रख दिया । इसके बाद उन्होंने नरेश वरेण्य को सुविस्तृत ज्ञानोपदेश प्रदान किया और उन्हें तथा उनकी पत्नी को आत्मसाक्षात्कार कराया । तत्पश्चात् भगवान् श्रीगजानन अन्तर्धान हो गये ।