अरुन्धती कौन थीं और उनका वशिष्ठ जी के साथ विवाह कैसे हुआ
परमेश्वर की प्रेरणा से कल्प के प्रारंभ में भगवान् ब्रह्मा जी ने कई मानस पुत्र और पुत्रियाँ उत्पन्न की थी | ब्रह्मा जी की यह सृष्टि, उनके द्वारा उत्पन्न हुई मैथुनी सृष्टि से अलग थी | उन्ही में से एक थी संध्या जो कि ब्रहमा जी की मानस पुत्री थी |
ब्रह्मा जी के अन्य मानस पुत्र-पुत्रियों की तरह, उस समय संध्या के अन्दर भी परमेश्वर को जानने के लिए तपस्या करने की भावना प्रबल हो रही थी | वह तपस्या करने के लिए चन्द्रभाग पर्वत के ब्रहल्लोहित नामक सरोवर के पास घूम रही थी और इस बात के लिए बड़ी उत्सुक थी कि कहीं कोई संत सद्गुरु प्राप्त हो और मुझे तपस्या का मार्ग बताये ।
ईश्वर के प्रिय और शक्तिशाली भक्तगण लोगों के हित साधन में सदैव तत्पर रहते हुए इस बात की प्रतीक्षा किया करते हैं कि कोई सच्चा जिज्ञासु मिले ओर उसे वो कल्याण के मार्ग की ओर की अग्रसर करें ।
घने वन में स्थित उस सरोवर के पास घूम रही संध्या की जिज्ञासा देखकर महर्षि वसिष्ठ वहीं प्रकट हुए और संध्या से पूछा “कल्याणी तुम इस घोर जंगल में कैसे विचर रही हो, तुम किसकी कन्या हो और क्या करना चाहती हो? यदि कोई गोपनीय बात न हो तो यह भी बताओ कि तुम्हारा यह सुन्दर मुख मण्डल उदास क्यों हो रहा है” ?
संध्या उनके चरणों में नमस्कार करके उन मूर्तिमान ब्रह्मवर्चस महर्षि वसिष्ठ से बड़ी नम्रता के साथ कहने लगी “भगवन मैं तपस्या करने के लिए इस घने जंगल में आयी हॅू । अब तक मै बहुत उद्विग्न हो रही थी कि कैसे तपस्या करूंगी, मुझे तपस्या का मार्ग मालूम नहीं है, परंतु अब आपको देखकर मुझे बड़ी शांति मिल रही है और मुझे इस बात का संतोष है कि मेरी अभिलाषा पूर्ण हो जाएगी” ।
ब्रह्मा जी के मानस पुत्र सर्वज्ञ वसिष्ठ जी ने उसकी बात सुनकर उसके मन के सारे भाव जान लिए और फिर कुछ नहीं पूछा । फिर जैसे एक कारूणिक गुरू अपने शिष्य को उपदेष करता है, वैसे ही बड़े स्नेह से वे बोले “कल्याणी तुम एक मात्र परम ज्योतिस्वरूप, धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष के देने वाले भगवान् विष्णु की अराधना करके अपना अभीष्ट प्राप्त कर सकती हो ।
सूर्यमण्डल में शन्ख, चक्र, गदाधारी, चतुर्भुज वनमाली भगवान् विष्णु का ध्यान करके ‘ऊॅ नमो वासुदेवाय ऊॅ’ इस मन्त्र का जप करो और मौन रहकर तपस्या करों स्नान पूजा और सब कुछ मौन होकर ही करों । पहले छः दिन तक कुछ भी भेाजन मत करना, केवल तीसरे दिन रात्रि में एवं छठै दिन रात्रि में कुछ पत्ते खाकर जल पी लेना ।
इसके पश्चात् तीन दिन तक निर्जल उपवास करना और रात्रि में भी पानी मत पीना । इस तरह तपस्या समाप्त होने पर हर तीसरे दिन रात्रि में कुछ भेाजन कर सकती हो । वृक्षो का वल्कल पहनना और जमीन पर सोना । इस प्रकार से तपस्या करती हुई भगवान का चिन्तन करो । भगवान् तुम पर प्रसन्न होगें और शीघ्र ही तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करेंगें”।
इस प्रकार सन्ध्या को उपदेश करके महर्षि वशिष्ठ तत्काल अंतर्ध्यान हो गए और वह भी तपस्या की पद्धति जानकर बड़े आनन्द के साथ भगवान की पूजा करने लगी ।
इस प्रकार से तपस्या करते हुए चार युग बीत गए और उसकी तपस्या अनवरत चलती रही । उसके व्रत को देखकर सभी आश्चर्यचकित और विस्मित थे । अब भगवान विष्णु भी उसकी भावना के अनुसार रूप धारण उसके समक्ष प्रकट हुए । गरूड़ पर सवार अपने प्रभु की मनोहर छवि को देखकर वह हतप्रभ थी |
उन्हें सामने देखकर वह उठ खड़ी हुई और क्या कहूं, क्या करूं ? इस चिन्ता में पड़ गयी । उसकी स्तुति करने की इच्छा जान कर भगवान ने उसे दिव्य ज्ञान, दिव्य दृष्टि एवं दिव्य वाणी प्रदान की । अब वह भगवान की स्तुति करने लगी । बड़े प्रेम से ज्ञानपूर्ण स्तुति करते करते वह भगवान के चरणों पर गिर पड़ी ।
उसके तप से कृषकाय हुए शरीर को देखकर भगवान को बड़ी दया आयी और उन्होंने अमृतवर्षिणी दृष्टि से उसे हष्ट पुष्ट कर दिया तथा वर मांगने को कहा ।
संध्या ने कहा कि “भगवन् यदि आप मुझ पर प्रसन्न है तो कृपा करके पहला वर तो यह दीजिये कि संसार में पैदा होते ही किसी प्राणी के मन में काम के विकार का उदय न हो और दूसरा वर यह दीजिये कि मेरा पातिव्रत्य अखण्ड रहे तथा तीसरा यह कि मेरे भगवतस्वरूप पति के अतिरिक्त और कहीं भी मेरी सकाम दृष्टि न हो । जो भी पुरूष मुझे सकाम दृष्टी से देखे, वह पुरुषत्वहीन अर्थात् नपुंसक हो जाए” ।
भगवान ने कहा ‘चार अवस्थाएं होती है बाल्यावस्था, कौमार, यौवन, और बुढ़ापा । इनमें तीसरी अवस्था अथवा दूसरी अवस्था के अन्त में लोगो में काम उत्पन्न होगा । तुम्हारी तपस्या के प्रभाव से आज मैंने यह मर्यादा बना दी कि पैदा होते ही कोई प्राणी काम युक्त नहीं होगा ।
त्रिलोक में तुम्हारे सतीत्व की ख्याति होगी और तुम्हारे पति के अतिरिक्त जो भी तुम्हे सकाम दृष्टि से देखेगा वह तुरंत नपुंसक हो जाएगा । तुम्हारे पति बड़े भाग्यवान, तपस्वी, सुन्दर और तुम्हारे साथ ही सात कल्पतक जीवित रहने वाले होगें ।
तुमने मुझसे जो वर मांगे थे, वो मैंने तुम्हे दे दिए । अब जो तुम्हारे मन में बात है वह तुम्हे बताता हूँ । तुमने पहले अग्नि में भस्म हो कर शरीर त्याग करने की प्रतिज्ञा की थी सो यहीं चन्द्रभागा नदी के किनारे महर्षि मेधातिथि बारह वर्षीय यज्ञ कर रहे हैं, उसी में जाकर शीघ्र ही अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो, वहां ऐसे वेष में जाना कि मुनिलोग तुम्हें देख न सके ।
मेरी कृपा से तुम अग्निदेव से पुनः उत्पन्न होगी और उन्ही की पुत्री हो जाओगी । जिसे तुम पति बनाना चाहती हो, मन में उनका चिन्तन करते हुए अपना शरीर त्याग करना’ । यह कहकर भगवान् ने अपने करकमलों से संध्या के शरीर का स्पर्श किया और तुरंत ही उसका शरीर पुरोडाश (यज्ञ का हविष्य) बन गया । उन महामुनि के सकल विश्व हितकारी यज्ञ में अग्नि मांसभेाजी न हो जाए, इसलिए भगवान विष्णु ने ऐसा किया ।
इसके बाद संध्या भी अदृश्य होकर उस यज्ञमण्डप में गयी । उस समय उसने अपने मन में मूर्तिमान ब्रह्मवर्चस और तपश्चर्या के उपदेशक ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को पति के रूप में वरण किया और उन्हीं का चिन्तन करते-करते अपने पुरोडाश रुपी शरीर को अग्निदेव को समर्पित कर दिया ।
अग्निदेव ने भगवान की आज्ञा से उसके शरीर को जलाकर सूर्यमण्डल में प्रविष्ट करा दिया । सूर्य ने उसके शरीर के दो भाग करके अपने रथ पर देवता ओर पितरों की प्रसन्नता के लिए स्थापित कर लिया । उसके शरीर का ऊपरी भाग जो दिन का प्रारम्भ यानी प्रातः काल है, उसका नाम प्रातःकाल संध्या और शेषभाग दिन का अन्त सांय संध्या हुआ ।
फिर अनन्तशायी भगवान विष्णु ने उसके प्राण के लिए एक दिव्य शरीर की रचना कर उसे मेधातिथि के यज्ञीय अग्नि में स्थापित कर दिया । ये पूरी प्रक्रिया उसके शरीर के डीएनए परिवर्तन से लेकर उसके भावी जन्म के कालचक्र को बदलने की थी जिसे एक रोचक कथानक के रूप में वर्णित किया गया है |
इसके पश्चात् मेधातिथि ने जब यज्ञ के अन्त में उस स्वर्ण के समान सुन्दरी संध्या को पुत्री के रूप में प्राप्त किया तो उनकी प्रसन्नता का कोई ठिकाना न था । उसी समय उन्होंने यज्ञीय अर्घ्यजल में उस शिशु कन्या को स्नान कराकर वात्सल्य स्नेह से परिपूर्ण ओर आनन्दित होकर उसे गोद में उठा लिया और उसका नाम अरून्धती रखा ।
किसी भी कारण से वह कन्या धर्म का रोध नहीं करती थी इसी से उसका अरून्धती नाम सार्थक हुआ । यज्ञ समाप्त होने के बाद कृतकृत्य होकर मेधातिथि अपने शिष्यों के साथ अपने आश्रम पर रहते हए आनन्दित होकर अपनी कन्या अरून्धती का लालन-पालन करने लगे ।
अब कुमारी अरून्धती मेधातिथि के चन्द्रभागानदी के तट पर स्थित तपसारण्य नामक आश्रम में शुक्लपक्ष की चन्द्रकला की भांति दिन-दिन बढ़ने लगी । पांच वर्ष की आयु होने पर ही उसके सद्गुणों से सम्पूर्ण तापसरण्य पवित्र हो गया । आज भी लोग उस अरून्धती के क्रीड़ाक्षेत्र तापसारण्य और चन्द्रभागा के जल में जा-जाकर स्नान करते हैं और आरोग्यलाभ करते है, उनकी सांसारिक अभिलाषाएं भी पूर्ण होती है,ऐसा कहा जाता है ।
एक दिन जब अरून्धती चन्द्र भागा के जल में स्नान करके अपने पिता मेधातिथि के पास ही खेल रही थी, स्वयं ब्रह्मा जी वहाँ आये और उसके पिता से कहा अब अरून्धती को शिक्षा देने का समय आ गया है, इसलिए इसे अब सती-साध्वी स्त्रियों के पास रखकर शिक्षा दिलवानी चाहिए, क्योंकि कन्या की शिक्षा पुरूषो द्वारा नही होनी चाहिए ।
स्त्री ही स्त्रियों को शिक्षा दे सकती है, किन्तु तुम्हारे पास तो कोई स्त्री नहीं है इसलिए तुम अपनी कन्या को बहुला और सावित्री के पास रख दो । तुम्हारी कन्या उनके पास रहकर शीघ्र ही महागुणवती हो जाएगी । मेधातिथि ने ब्रह्मा जी की आज्ञा शिरोधार्य की और उनके जाने पर वे अरून्धती को लेकर सूर्यलोक में गये । वहाँ अद्भुत दृश्य थे |
वहाँ उन्होने सूर्यमण्डल में स्थित पद्मासनासीन सावित्री देवी का दर्शन किया । उस समय बहुला मानस-पर्वत पर जा रही थीं, इसलिए सावित्री देवी भी सूर्यमण्डल से निकल कर वहीं के लिए जा रही थीं ।
बात यह थी कि प्रतिदिन वहां (मानस पर्वत पर) सावित्री, गायत्री, बहुला, सरस्वती एवं द्रुपदा एकत्रित होकर लोक-कल्याण की कामना से धर्मचर्चा करती थी । ये देवियाँ अत्यंत ज्ञानी थीं और अपने ज्ञान-विज्ञान से ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना, विस्तार एवं लय में सहायक हुआ करती थीं | उनकी धर्म-चर्चा वस्तुतः वैज्ञानिक चर्चा हुआ करती थीं |
महर्षि मेधातिथि ने उन माताओं को अलग-अलग प्रणाम किया ओर सबको संबोधित करके कहा कि “यह मेरी यशस्विनी कन्या अरुन्धती है । अब इसकी उचित शिक्षा का समय आ गया है । लोक पितामह ब्रह्मा जी की आज्ञा से मै इसी कामना से यहाँ आया हूँ कि अब यह आपके पास ही रहेगी । माता सावित्री और बहुला आप दोनों इसे ऐसी शिक्षा दें कि यह सच्चरित्र हो” ।
उन देवियों ने कहा कि “महर्षि, भगवान विष्णु की कृपा से आपकी कन्या पहले से ही सच्चरित्र हो चुकी है किंतु ब्रहमा जी की आज्ञा के कारण हम इसे अपने पास रख लेती हैं । अब यह हमारे साथ रहेगी और हमसे शिक्षा प्राप्त करेगी । ये पूर्वजन्म में स्वयं ब्रह्मा जी की कन्या थी । आपके तपोबल से और भगवान की कृपा से यह आपकी पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई है । यह सती न केवल आपका या आपके कुल का बल्कि सारे संसार का कल्याण करेगी” ।
मेधातिथि भावविह्वल होकर वहां से विदा हुए और अरून्धती उनकी सेवा करने लगी । उन जगन्माताओं की सेवा में रहकर अरून्धती का समय बड़े आनंद से बीतने लगा | अरून्धती कभी सावित्री के साथ भगवान सूर्य के निवास स्थान जाती तो कभी बहुला के साथ इन्द्र के विमान में जाती ।
इस प्रकार से सात वर्ष और बीत गये और समस्त विद्याओं के साथ स्त्री धर्म की शिक्षा प्राप्त करके वह अपनी शिक्षिका सावित्री और बहुला से भी श्रेष्ठ हो गयी । कुछ वर्ष और बीते |
एक दिन मानस पर्वत पर विचरण करते करते अरून्धती ने मूर्तिमान ब्रह्मवर्चस महर्षि वसिष्ठ को देखा । उनको देखते ही उसका मन क्षुब्ध हो गया और काम के विकार से उसके शरीर में सिहरन सी उठी । किसी प्रकार से धैर्य धारण करके पश्चाताप करती हुई वह बहुला और सावित्री के निकट उपस्थित हुई ।
अरून्धती को उदास देखकर सावित्री ने ध्यान योग से सारी बात जान ली और उसके मस्तक पर प्रेम पूर्वक हाथ रखकर वात्सल्यपूर्ण शब्दों में पूछा । उनका प्रश्न सुनकर अरून्धती संकोच के मारे जमीन में गड़ सी गयी, उससे कुछ बोला नहीं गया ।
अन्ततः सावित्री ने स्वयं सारी बात कहकर समझाया कि “वे परम तेजस्वी महर्षि कोई दूसरे नहीं हैं, वे तुम्हारे भावी पति हैं और यह परमेश्वर ने पहले से ही निश्चित कर दिया है । उनके दर्शन के कारण क्षोभ होने से तुम्हारा सतीत्व नष्ट नहीं हुआ । तुमने उन्हें पति के रूप में पूर्वजन्म में ही वरण कर लिया था और वे भी तुमसे प्रेम करते हैं, तुम्हें हृदय से चाहते हैं” ।
इसके बाद सावित्री ने अरून्धती को उसके पूर्वजन्म की कथा कह सुनायी जिससे अरून्धती को बड़ा सन्तोष मिला और क्षण मात्र में उसे अपने पूर्वजन्म की सारी बातें याद आ गयी । इसके बाद सावित्री ब्रह्मा जी के पास गयीं और उनसे सारी बातें कहकर अरून्धती के विवाह के लिए यही उपयुक्त समय बतलाया ।
ब्रह्मा जी भी निश्चय करके मानस पर्वत के निकट आ गये और भोलेनाथ भगवान शंकर तथा विष्णु जी को भी वहीं आग्रह करके बुलाया मेधातिथि को बुलाने के लिए नारद जी को भेजा और नारद जी जाकर उनको बुला लाये ।
ब्रह्मा जी आदि के कहने पर मेधातिथि ने उन सभी के साथ अपनी कन्या को लेकर मानस पर्वत के लिए प्रस्थान किया और वहां जाकर देखा कि ब्रह्मर्षि वसिष्ठ मानस पर्वत की कन्दरा में समाधि लगाये बैठे हैं और उनके मुख-मण्डल से सूर्य की भाँती प्रकाश की किरणें निकल रही थीं | एक साथ सभी के पहुँचने पर उनकी समाधि टूटी |
उनकी समाधि टूटने पर अपनी कन्या को आगे करके मेधातिथि ने निवेदन किया “भगवन यह मेरी ब्रह्मचारिणी पुत्री है, आप इसे ब्राह्म विधि से स्वीकार करें । आप जहां-जहा, चाहे जिस रूप में रहेंगें, यह आपकी सेवा करेगी और छाया की भाँती पीछे-पीछे चलेगी” ।
मेधातिथि की प्रार्थना सुनकर तथा ब्रह्मा जी, भगवान विष्णु और भोलेनाथ आदि को आये हुए देखकर और तपस्या के बल से भावी भवितव्यता को जानकर महर्षि वसिष्ठ ने अरुन्धती को स्वीकार कर लिया । अरून्धती की प्रसन्न आंखे उनके चरणों में लग गयी ।
अब भगवान ब्रह्मा, विष्णु, शंकर एवं इन्द्रादि देवताओं तथा सावित्री, बहुला, और अदिति आदि देवियों ने विवाहोत्सव सम्पन्न किया । उनके वल्कल आदि के वस्त्र, मृगचर्म और जटाओं को खोलकर बड़े सुन्दर-सुन्दर बहुमूल्य वस्त्राभूषण पहनाये गए । विधिपूर्वक स्वर्णकलश के जल से अभिषेक-स्नान कराया गया, वैदिक मन्त्रो का पाठ हुआ ।
ब्रह्मा जी ने वर-वधु को सूर्य के समान प्रकाशमान, पूरे त्रिलोक (चौदहों भुवन में) मे बिना किसी बाधा के उड़नेवाला बड़ा सुन्दर अजेय विमान दिया । भगवान् विष्णु ने सबसे ऊॅचा स्थान दिया और महेश्वर ने सात कल्पों तक की आयु दी ।
अदिति ने ब्रह्मा जी के द्वारा निर्मित हुए अपने दोनों कानों के कुण्डल उतार कर दे दियें | सावित्री ने पातिव्रत्य, बहुला ने बहुपुत्रत्व, देवेन्द्र ने बहुत से दिव्य रत्न ओर कुबेर ने समता दी । इन सब के साथ वहां उपस्थित सभी ऋषि-मुनियो ने अपनी ओर से उपहार दिये ।
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ऐसा कहा जाता है कि विवाह के अवसर पर वशिष्ठ जी को ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदि के द्वारा स्नान कराते समय जो जल धाराएं गिरी थीं, वे ही गोमती, सरयु, शिप्रा, महानदी, आदि सात नदियों के रूप में हो गयी, जिनके दर्शन, स्पर्श, और स्नान से सारे संसार का कल्याण होता है । विवाह के पश्चात् वसिष्ठजी अपनी धर्मपत्नी अरुन्धती के साथ विमान पर सवार होकर देवताओं के बतलाये हुए स्थान पर चले गये ।
वे जब जहां जिस रूप में रहकर तपस्या करते हुए संसार के कल्याण में संलग्न रहते हैं तब वहां उन्हीं के अनुरूप वेष में रहकर उनकी सहचरी, प्राणप्रिया अरून्धती उनकी सेवा, सहायता में रहती हैं । आज भी सप्तर्षि तारामण्डल में स्थित वशिष्ठ जी के पास ही वो दीखती हैं ।
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