एक बार की बात है, महान वैज्ञानिक महर्षि कश्यप अग्निहोत्र कर चुके थे । दैवीय, सुगन्धित यज्ञ-धूम आकाश में चारो तरफ़ फैला हुआ था । इसी समय देवमाता, पुण्यमयी अदिति अपने पति महर्षि कश्यप के समीप पहुँचीं ।
परम तपस्वी पति के श्रीचरणों में प्रणाम कर उन्होने निवेदन किया-‘स्वामिन् ! इन्द्रादि देवगणों को तो मैंने पुत्ररूप में प्राप्त किया है, किंतु पूर्ण परात्पर सच्चिदानन्द परमात्मा मुझे पुत्ररूप से प्राप्त हों ऐसी इच्छा मेरे मन में बार-बार उदित हो रही है । वे परम प्रभु किस तरह से मेरे पुत्र होकर मुझे कृतकृत्य करेंगे, आप कृपापूर्वक बतलाने का कष्ट कीजिये ।’
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महर्षि कश्यप थोड़ी देर के लिए गंभीर हुए, उन्होंने अपनी प्रिय पत्नी अदिति को भगवान विनायक का ध्यान, उनका मंत्र और न्यास सहित पुरश्चरण की पूरी विधि विस्तारपूर्वक बताकर उन्हें कठोर तपस्या के लिये प्रेरित किया । महाभागा अदिति अत्यन्त प्रसन्न हुई और पति की आज्ञा प्राप्तकर कठोर तप करने के लिये एकान्त शान्त अरण्य में जा पहुँचीं तथा वहाँ भगवान विनायक के ध्यान और जप में तन्मय हो गयीं ।
भगवती अदिति की सुदृढ़ प्रीति एवं कठोर तप से कोटि-कोटि भुवन भास्कर की प्रभा से भी अधिक परम तेजस्वी कामदेव से भी अधिक सुन्दर देवदेव गजानन विनायक ने उनके सम्मुख प्रकट होकर कहा-‘मैं तुम्हारे अत्यन्त घोर तप से प्रसन्न होकर तुम्हें वर प्रदान करने आया हूँ । तुम इच्छित वर माँगो । मैं तुम्हारी कामना अवश्य पूरी करूँगा ।’
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‘प्रभो! आप ही जगत् के स्रष्टा, पालक और संहारकर्ता हैं । आप सर्वेश्वर, नित्य, प्रकाशस्वरूप, निर्गुण, निरहंकार, नाना रूप धारण करने वाले और सर्वस्व प्रदान करने वाले हैं । प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपापूर्वक मेरे पुत्ररूप में प्रकट होकर मुझे कृतार्थ करें । आपके द्वारा दुष्टों का विनाश एवं साधु-परित्राण हो और सामान्य-जन कृतकृत्य हो जायँ ।’
‘मैं तुम्हारा पुत्र होऊंगा।’ वाञछाकल्पतरू विनायक ने तुरंत कहा-‘साधुजनों का रक्षण, दुष्टों का विनाश एवं तुम्हारी इच्छा की पूर्ति करूँगा ।’ इतना कहकर देवदेव विनायक अन्तर्धान हो गये । देवमाता अदिति अपने आश्रम पर लौटीं । उन्होंने अपने पति के चरणों में प्रणाम कर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया । महर्षि कश्यप आनन्दमग्न हो गये ।
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उधर देवान्तक और नरान्तक के कठोरतम क्रूर शासन में समस्त देवसमुदाय और ब्राह्मण अत्यन्त भयाक्रान्त हो कष्ट पा रहे थे । वे अधीर और अशान्त हो गये थे । तब ब्रह्माजी के निर्देशानुसार दुष्ट दैत्यों के भार से पीड़ित-व्याकुल धरित्री सहित देवताओं और ऋषियों ने हाथ जोड़कर आदि देव विनायक की स्तुति करते हुए कहा-‘देव! सम्पूर्ण जगत् हाहाकार से व्याप्त एवं स्वधा और स्वाहा से रहित हो गया है ।
हम सब पशुओं की तरह सुमेरू-पर्वत की कन्दराओं में रह रहे हैं । अतएव हे विश्वम्भर! आप इन महादैत्यों का विनाश करें ।’ इस प्रकार करूण प्रार्थना करने पर पृथ्वी सहित देवताओं और ऋषियों ने आकाशवाणी सुनी-‘सम्प्रति देवदेव गणेश महर्षि कश्यप के घर में अवतार लेंगे और अदभुत कर्म करेंगे । वे ही आप लोगों को पूर्व पद भी प्रदान करेंगे । वे दुष्टों का संहार एवं साधुओं का पालन करेंगे ।’
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‘देवि! तुम धैर्य धारण करो ।’ आकाशवाणी से आश्वस्त होकर पद्ययोनि ने मेदिनी से कहा-‘समस्त देवता पृथ्वी पर जायँगे और निःसंदेह महाप्रभु विनायक अवतार ग्रहण कर तुम्हारा कष्ट निवारण करेंगे।’
पृथ्वी, देवता तथा मुनिगण विधाता के वचन से प्रसन्न होकर अपने-अपने स्थानों को चले गये । कुछ समय बाद सती कश्यप-पत्नी अदिति के समक्ष मंगलमयी वेला में अदभुत, अलौकिक, परमतत्त्व, प्रकट हुआ । वह अत्यन्त बलवान् था । उसकी दस भुजाएँ थीं । कानों में कुण्डल, ललाट पर कस्तूरी का शोभाप्रद तिलक और मस्तक पर मुकुट सुशोभित था।
सिद्धि-बुद्धि साथ थीं और कण्ठ में रत्नों की माला शोभायमान थी । वक्ष पर चिन्तामणि की अदभुत सुषमा थी और अधरोष्ठ जपापुष्प-तुल्य अरूण थे। नासिका ऊँची और सुन्दर भ्रुकुटि के संयोग से ललाट की सुन्दरता बढ़ गयी थी । वह दाँत से दीप्तिमान् था । उसकी अपूर्व देहकान्ति अंधकार को नष्ट करने वाली थी ।
उस शुभ बालक ने दिव्य वस्त्र धारण कर रखा था । महिमामयी अदिति उस अलौकिक सौन्दर्य को देखकर चकित और आनन्द-विह्नल हो रही थीं । उस समय परम तेजस्वी अदभुत बालक ने कहा-‘माता! तुम्हारी तपस्या के फलस्वरूप मैं तुम्हारे यहाँ पुत्ररूप से आया हूँ । मैं दुष्ट दैत्यों का संहारकर साधु-पुरूषों का हित एवं तुम्हारी कामनाओं की पूर्ति करूँगा ।’
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‘आज मेरे अदभुत पुण्य उदित हुए हैं, जो साक्षात् गजानन मेरे यहाँ अवतरित हुए ।’ हर्ष-विह्नल माता अदिति ने विनायक देव से कहा-‘यह मेरा परम सौभाग्य है, जो चराचर में व्याप्त, निराकर, नित्यानन्दमय, सत्यस्वरूप परब्रह्म परमेश्वर गजाननन मेरे पुत्र के रूप में प्रकट हुए ।’ किंतु अब आप इस अलौकिक एवं परम दिव्य रूप का उपसंहार कर प्राकृत बालक की भाँति क्रीडा करते हुए मुझे पुत्र-सुख प्रदान करें-
तत्क्षण अदिति के सम्मुख अत्यन्त हृष्ट-पुष्ट सशक्त बालक धरती पर तीव्र रूदन करने लगा । उसके रूदन की ध्वनि आकाश, पाताल और धरती पर दसों दिशाओं में व्याप्त हो गयी । अदभुत बालक के रूदन से धरती काँपने लगी, वन्ध्या स्त्रियाँ गर्भवती हो गयीं, नीरस वृक्ष सरस हो गये, देव-समुदायसहित इन्द्र आनन्दित और दैत्यगण भयभीत हो गये ।
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महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के अंग में बालक आया जानकर ऋषि-मुनि एवं ब्रह्मचारी आदि आश्रमवासी तथा देवगण सभी प्रसन्न थे । बालक के स्वरूप के अनुसार पिता कश्यप ने उसका नामकरण किया-‘महोत्कट ।’ ऋषिपुत्र-महोत्कट के जन्म का समाचार सुनकर असुरों के मन में भय व्याप्त हो गया और वे उन्हें बालक अवस्था में ही मार डालने का प्रयत्न करने लगे ।
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असुरराज देवान्तक ने महोत्कट को मारने के लिये ‘विरजा’ नाम की एक क्रूर राक्षसी को भेजा, परंतु महोत्कट ने खेल-खेल मे ही उसे परमधाम प्रदान कर दिया । इसके बाद ‘उद्धत’ और ‘धुन्धुर’ नामक दो राक्षस शुक-रूप में कश्यप के आश्रम में पहुँचकर अपने तीक्ष्ण चोंचों से मुनि कुमार ‘महोत्कट’ को मारने का प्रयास करने लगे । इस पर क्रुद्ध हो उन्होंने क्षणभर में उन शुकरूप राक्षसों को धरती पर पटक कर मार डाला ।
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इसी प्रकार महोत्कट ने धूम्राक्ष, जृम्भा, अन्धक, नरान्तक तथा देवान्तक आदि भयानक मायावी असुरों एवं आसुरी सेना का अनेक लीलाओं से संहारकर तीनों लोकों को आनन्दित किया तथा विश्व की रक्षा की । भगवान् के हाथों मृत्यु होने से इन असुरों को परमपद की प्राप्ति हुई । देवान्तक-युद्ध में प्रभु द्विदन्ती से एकदन्ती हो गये और अपने एक रूप से ‘ढुण्ढिविनायक’ के नाम से काशी में प्रतिष्ठित हो गये ।
उत्तर प्रदेश में परकाया प्रवेश की एक अद्भुत घटना
त्रेतायुग की बात है | मैथिल देश में प्रेसिद्ध गण्डकी नगर के सद्धर्मपरायण नरेश चक्रपाणि के पुत्र सिन्धु के क्रूरतम शासन से धराधाम पर धर्म की मर्यादा का अतिक्रमण हो रहा था । उसी समय भगवान् गणेश ने ‘मयूरेश्वर’ के रूप में लीला-विग्रह धारण कर विविध लीलीएँ कीं और महाबली सिन्धु के अत्याचारों से त्रैलोक्य का रक्षण करते हुए पुनः विधाता के शाश्वत नियमों की प्रतिष्ठापना की ।