प्राचीन समय में देवब्राह्मण नियंक नाम का एक प्रसिद्ध जुआरी हुआ करता था | वह छल-कपट में माहिर, दुर्व्यसनी, महापापी तथा व्यभिचार आदि महादुर्गुणों से भी दूषित था | माता-पिता तथा वृद्धजनों का भी सम्मान करना उसने छोड़ दिया था |
एक दिन, एक सभा में उसने कपट पूर्वक जुए में बहुत सारा धन जीता | फिर उसने अपने हाथों से पान का स्वस्तिकाकार बीड़ा बनाकर तथा गंध और पुष्प माला आदि सामग्री लेकर एक वैश्या को भेंट देने के लिए वह उसके घर की ओर तेज़ी से चल पड़ा |
धन के मद में अंधे हुए उस जुआरी के रास्ते में पैर लड़खड़ाये | वह धरती पर गिरा और मूर्छित हो गया | उस दिन उसका परलोक बदलने वाला था | जब उसे होश आया तो अपने कृत्य पर उसे बड़ी ग्लानि उत्पन्न हुई और उसमे वैराग्य का भाव जागृत हुआ |
उस समय उसे अपनी ज़िन्दगी के निरर्थक होने का अहसास हुआ | उसने प्रेमपूर्वक अपने साथ लायी हुई अपनी सामग्री को बड़े शुद्ध मनोभाव से वहीं पड़े हुए एक शिवलिंग को समर्पित कर दिया और महादेव को, उनके द्वारा दी गयी सद्बुद्धि के लिए धन्यवाद् दिया |
दुर्भाग्य से उसके जीवन में अधिक दिन शेष नहीं बचे थे | थोड़े ही दिनों बाद मृत्यु उसके निकट आ पहुँची और उस पार की दुनिया के दूतों ने ज़िन्दगी के दरवाजे पर दस्तक दी |
मृत्यु के उपरांत, एक भयानक मार्ग से होता हुआ वह यम के साम्राज्य में पहुंचा | यमराज ने उसे धिक्कारा, वे बोले ‘मुर्ख प्राणी ! तेरे पाप क्षमा योग्य नहीं हैं | तुझे अपने पापों का, नर्क में जाकर दंड भोगना होगा’ |
पश्चाताप से भरे हुए उसने यमराज से कहा कि ‘महाराज यदि मैंने ज़िन्दगी में कोई पुण्य भी किया हो तो तनिक उसका भी विचार कर लीजिए’ | इस पर वहाँ उपस्थित चित्रगुप्त ने कहा ‘तुमने अपने जीवन के अंतिम समय में प्रेम और भक्ति भाव से अपने साथ लायी गयी सारी सामग्री भगवान शंकर को अर्पित कर दिया था जिससे तुम्हारी बुद्धि में परिवर्तन भी हुआ था |
तुम्हारे इसी कर्म के फलस्वरुप तुम्हें ढाई घड़ी तक स्वर्ग का शासन यानी इंद्र का सिंहासन भी प्राप्त होगा, बताओ तुम पहले किसे भोगना चाहते हो?’ | तब उस जुआरी ने कहा ‘कृपया मुझे पहले मेरे पुण्य का ही फल प्राप्त कराया जाए |’ उस जुआरी की इच्छानुसार यमराज की आज्ञा से उसे स्वर्ग में भेज दिया गया |
वहाँ देवसभा में देवगुरु बृहस्पति ने इंद्र को समझाया कि ‘तुम ढाई घड़ी के लिए अपना सिंहासन इस व्यक्ति के लिए छोड़ दो | पुनः ढाई घड़ी के बाद यहां आ जाना |’ देवगुरु ब्रहस्पति की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए इन्द्र ने उस स्थान को त्याग दिया |
अब इंद्र के जाते ही वह जुआरी स्वर्ग का अधिपति बन गया | सिंहासन पर बैठते ही जो पहली बात उसके समझ में आई वो यह कि ‘बस, अब भगवान शंकर के अतिरिक्त कहीं कोई शरण नहीं इसलिए बस उन्ही का अनुकरण और आराधना करना है |’
फिर उसने सोचा कि ‘भगवान शंकर तो फक्कड़ आदमी हैं, अपने पास कुछ रखते ही नहीं और भक्तो को वर देने में सदा तत्पर रहते हैं’ फिर उसे दान की महिमा समझ में आई |
उसने अपने आस-पास फैले सुख और ऐश्वर्य के संसाधनों पर निगाह डाली उसे पता था कि इनमे से किसी भी ऐश्वर्य को भोग नहीं पायेगा क्योंकि थोड़े ही समय बाद उसे नर्क में प्रवेश करना था, अपने पापों को भोगने के लिए |
उसके मन में वैराग्य के बीज पहले ही पनप चुके थे | इसलिए इन सबसे अनुरक्त होकर उसने अपने अधिकार में आये सारे पदार्थों का, एक-एक करके दान करना प्रारंभ किया |
सबसे पहले उसने ऐरावत हाथी को अगस्त्य ऋषि को दान में दे दिया | फिर अलकापुरी में स्थित कल्पवृक्ष उठाकर उसने कौंडिन्य मुनि को दे दिया | उच्चैह्श्रवा अश्व को उसने विश्वामित्र जी की दान कर दिया | कामधेनु गाय को उसने महर्षि वशिष्ठ को दान कर दिया | चिन्तामणि नाम के दुर्लभ रत्न को उठाकर गालव मुनि को समर्पित कर दिया |
इस प्रकार से जब तक ढाई घड़ियां समाप्त नहीं हुई, वह दान करता ही गया और लगभग वहां के सारे बहुमूल्य पदार्थों को उस ने दान में दे दिया | अपना समय समाप्त होते ही वह स्वर्ग से चला भी गया | ढाई घड़ी बीतने पर, नियत समय में जब इंद्र लौटे तो अमरावती ऐश्वर्यविहीन पड़ी थी |
अमरावती की यह दशा देखकर इन्द्र क्रोध से उबल पड़े | वे तुरंत बृहस्पति जी को लेकर यमराज के पास पहुंचे और बिगड़ कर बोले ‘धर्मराज ! आपने मेरा पद एक जुआरी को देकर बड़ा ही अनुचित कार्य किया है | उसने वहां पहुंचकर बड़ा बुरा काम किया, अमरावती की शोभा बिगाड़ दी उसने |आप सच माने, उसने मेरे सभी रत्न ऋषियों और मुनियों को दान कर दिए और अब अमरावती सूनी पड़ी है’ |
धर्मराज बोले ‘देवराज आप तो ज्ञानी हैं और अनुभवी भी फिर भी प्रतीत होता है अभी तक आपकी राज्य विषयक आसक्तियाँ दूर नहीं हुई हैं ! क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि जिसे आप जुआरी कह रहे हैं, अब उसके पुण्य कर्म आपके द्वारा किये गए उन महान कर्मों (जिसकी वजह से आपको इन्द्र पद प्राप्त हुआ) से बढ़ कर हो गए हैं !
बड़ी भारी सत्ता प्राप्त हो जाने पर जो किसी भी तरह के प्रमाद में ना पड़ कर धर्मोचित कर्मों में तत्पर होते हैं वही वास्तव में धन्य है | आप के लिए उचित यही होगा कि, अगस्त्य आदि ऋषियों की मनोकामना पूरी कर के या उनसे विनती कर के अपने रत्न आदि वापस मांग लीजिए | वे लोग निस्पृह एवं कल्याणकारी हैं, आपकी इच्छा अवश्य पूरी करेंगे’ |
इन्द्र प्रसन्न हुए और ‘बहुत अच्छा’ कह कर स्वर्ग लौट आए | इधर प्रचंड शक्ति-धारी सत्ता के प्राप्त होने पर भी ऐश्वर्यशाली सुखों को भोगने की कामना से विरक्त होने एवं ऐश्वर्य प्रदान करने वाले पदार्थों को उचित पात्रों को दान करने (जिससे की वे ऋषि मुनि जन-सामान्य का कल्याण कर सकें) से वही जुआरी एक सम्यक बुद्धि एवं चेतना वाला प्राणी बन चुका था |
उसके पुण्य कर्म प्रबल एवं पाप कर्म निष्प्रभ हुए जा रहे थे | अपने उन ढाई घड़ी के महान कर्मों की वजह से अपने निश्चित नर्क-भोग को बिना भोगे उन्होंने धरती पर पुनः जन्म लिया |
अपनी विकसित बुद्धि एवं चेतना तथा पूर्वाभ्यासवशात, उचित पात्रों को दान देने तथा उनके दुखों को दूर करने का क्रम उन्होंने अपने इस जन्म में भी जारी रखा तथा धरती पर सर्वकालिक महान दानियों में से एक ‘राजा बलि’ के नाम से विख्यात हुए जिन पर कृपा करने भगवान स्वयं आये |
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