पुराणों में भगवान गणेश के कलियुगीय भावी अवतार के विषय में आया है कि उनका यह अवतार ‘धूम्रकेतु’ के नाम से विख्यात होगा । कहा गया है कि जब कलियुग में सर्वत्र धर्म का लोप हो जायगा, अत्याचार-अनाचार का साम्राज्य चारो तरफ़ व्याप्त हो जायगा, आसुरी-तामसी वृत्तियों की प्रबलता छा जायगी, तब उस काल में सर्वदुःखहारी परम प्रभु गजानन धराधाम पर अवतरित होंगे ।
उनका ‘शूर्पकर्ण’ और धूम्रवर्ण’ नाम भी प्रसिद्ध होगा । स्वभावगत क्रोध के कारण उन परम तेजस्वी प्रभु के शरीर से ज्वाला सी निकलती रहेगी । वे नीले अश्व पर आरूढ़ होंगे । उन प्रभु के हाथ में शत्रु-संहारक तीक्ष्णतम खड्ग होगा । वे अपने इच्छानुसार नाना प्रकार के सैनिक एवं बहुमूल्य अमोघ शस्त्रास्त्रों का निर्माण कर लंगे ।
मृत्यु के बाद अपनों का प्राकट्य, एक रहस्यमय अनुभव
कथाएं तो प्रत्येक काल में व्यापक महत्व रखती रही हैं | लेकिन इनके अर्थ हर काल में भिन्न-भिन्न रहे हैं | हिन्दू धर्म में काल यानी समय को एक चक्र की तरह घूमता बताया गया है अर्थात भूत-भविष्य-वर्तमान, सब एक ही दृश्य के अलग-अलग आयामों में, दृश्यमान हैं और कुछ नहीं |
उपरोक्त घटना कोई भविष्यवाणी नहीं अपितु किसी विशिष्ट काल की परिस्थितियों एवं उस काल में घटी घटनाओं की सरस व्याख्या है और हिन्दू धर्म के आधारभूत नियमों के अनुसार ऐसी घटनाएं सृष्टि के प्रत्येक कल्प में भिन्न-भिन्न कलेवरों में घटती हैं | लेकिन इनका तारतम्य समझने के लिए ब्रह्मांडीय नियमों का ज्ञान आवश्यक है |
किन्तु जिन्हें ब्रह्माण्डीय नियमों का ज्ञान है, वो भी कभी-कभी मायावश भ्रम में पड़ जाते हैं और भूल जाते हैं कि इन सबका सूत्रधार कौन है ? ऊपर उल्लिखित घटना एक ऐसे समय के बारे में बताती है जब धरती पर पापचारियों और अत्याचारियों की संख्या बढ़ जायेगी और वे सर्वत्र व्याप्त हो जायेंगे तब धरती पर उनके विनाश तथा धर्म की स्थापना के लिए ईश्वरीय शक्ति एक विशिष्ट रूप में आएगी जो दिव्य शक्ति-संपन्न होगी और बुरी शक्तियों के लिए सर्वनाश की स्थिति उत्पन्न कर देगी |
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बाकी अलंकारिक वर्णन है जिनकी सूक्ष्म गवेषणा से हमें कई तथ्यों का पता चल सकता है | आगे इस घटना में उल्लेख आता है कि फिर पातकध्वंसी परम प्रभु शूर्पकर्ण अपने तेज एवं सेना के द्वारा सहज ही म्लेच्छों का सर्वनाश कर देंगे ।
म्लेच्छ (ये म्लेच्छ किसी जाति या धर्म विशेष के लोग नहीं बल्कि वे लोग होंगे जो अधर्मी और अन्यायी होंगे तथा जिन्हें निर्दोषों और निःसहायों को सताने में आनंद आएगा) या म्लेच्छ-जीवन व्यतीत करने वाले निश्चय ही परम प्रभु धूम्रकेतु के द्वारा मारे जायेंगे । उन धर्म-संस्थापक प्रभु के नेत्रों से अग्नि-वर्षा होती रहेगी ।
वे सर्वाधार, सर्वात्मा प्रभु धूम्रकेतु उस समय गिरिकन्दराओं एवं अरण्यों में छिपकर वन फलों पर जीवन-निर्वाह करने वाले ब्राह्मणों (ये ब्राह्मण जाति, धर्म या जन्म के आधार पर घोषित ब्राह्मण नहीं होंगे बल्कि ये धर्म और न्याय संगत कर्मों को करने वाले महात्मा होंगे) को बुलाकर उन्हें सम्मानित करेंगे और करूणामय धर्ममूर्ति शूर्पकर्ण उन सत्पुरूषों को सद्धर्म एवं सत्कर्म के पालन के लिये प्रेरणा एवं प्रोत्साहन प्रदान करेंगे ।
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फिर सबके द्वारा धर्माचरण सम्पादित होगा और समयचक्र सत्ययुग की तरफ़ घूमना प्रारम्भ कर देगा । पौराणिक ग्रंथों में भगवान् गणेश के अन्य अवतारों का भी वर्णन आया है | उनमे से प्रमुख अवतार निम्न हैं |
भगवान गणेश के प्रमुख आठ अवतार
एक अन्य पुराण, मुद्रल पुराण में कहा गया है कि विघ्नविनाशन भगवान् गणेश के अनन्त अवतार हैं । उन सभी के वर्णन अनेक वर्षों में भी सम्भव नहीं है । किन्तु उनमें कुछ मुख्य हैं । उन मुख्य अवतारों में भी ब्रह्मधारक आठ मुख्य अवतार हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं-
(1) भगवान गणेश का ‘वक्रतुण्डावतार’ देह-ब्रह्म को धारण करने वाला है, वह मत्सरासुर का संहारक तथा सिंहवाहन पर चलने वाला माना गया है ।
(2) गणेश जी का ‘एकदन्तावतार’ देहि-ब्रह्म का धारक है, वह मदासुर का वध करने वाला है, उसका वाहन मूषक बताया गया है ।
(3) ‘महोदर’ नाम से विख्यात गणेश जी का अवतार ज्ञान-ब्रह्म का प्रकाशक है । उसे मोहासुर का विनाशक और मूषक-वाहन बताया गया है ।
(4) ‘गजानन’ नामक भगवान गणेश जी का अवतार सांख्यब्रह्म-धारक है । उस अवतार को सांख्य योगियों के लिये सिद्धिदायक जानना चाहिये । उसे लोभासुर का संहारक और मूषक वाहन कहा गया है ।
(5) गणेश जी का ‘लम्बोदर’ नामक अवतार क्रोधासुर का उन्मूलन करने वाला है | वह सत्स्वरूप जो शक्तिब्रह्म है, उसका धारक कहलाता है । उनका भी मूषक वाहन ही हैं |
(6) ‘विकट’ नाम से प्रसिद्ध गणेश जी का अवतार कामासुर का संहारक है । वह मयूर-वाहन एवं सौरब्रह्म का धारक माना गया है ।
(7) उनका ‘विघ्नराज’ नामक जो अवतार है, उसके वाहन शेषनाग बताये जाते हैं, वह विष्णुब्रह्म का वाचक (धारक) तथा ममतासुर का विनाशक है ।
(8) भगवान् गणेश जी का ‘धूम्रवर्ण’ नामक अवतार अभिमान सुर का नाश है, वह शिवब्रह्मस्वरूप है । उनका भी मूषक-वाहन ही कहा जाता है ।
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इस प्रकार मंगलमूर्ति आदिदेव परब्रह्म परमेश्वर श्रीगणपति के अवतारों की अत्यन्त मंगलमयी लीलाकथा इस पुराण में दी हुई है । इन प्रमुख आठ अवतारों में जिन असुरों का विनाशक उन्हें बताया गया है उनके नाम प्रतीकात्मक ही प्रतीत होते हैं । ये प्रतीक हैं मानवीय चित्तवृत्तियों के, उनके दुर्गुणों के |
इस प्रकार से हम सहज ही समझ सकते हैं कि भगवान गणेश, मानवीय चित्तवृत्तियों के इन दुर्गुणों का समूल रूप से नाश करके साधक को मोक्ष प्रदान करते हैं, उन्हें जीव के बन्धन से मुक्त करते हैं | इन अवतारों का पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व तो है ही, उससे भी बढ़कर आध्यात्मिक महत्त्व भी हैं | सर्वव्यापी परमात्मा श्रीगणपति सबके हृदय में नित्य विराजमान हैं ।
संग और प्राक्तन संस्कारवश प्रत्येक मनुष्य के हृदय में समय-समय पर मात्सर्य, मद, मोह, लोभ, काम, ममता एवं अहंता-इन आंतरिक दोषों का उद्बोधन होता ही है । आसुरी सम्पत्ति के प्रतीक होने से इनको ‘असुर’ कहा गया है । इन आसुरी-वृत्तियों से परित्राण पाने का अमोघ उपाय है-‘भगवान् गणपित का चरणाश्रय ।’
जब भगवान स्वयम मांगने आये राजा बलि से
गीता मे भी भगवान् ने यही कहा है-‘मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।’ अतः इन आसुरी-वृत्तियों के दमन तथा दैवी-सम्पदाओं के संवर्धन के लिये परम प्रभु गणपति का मंगलमय स्मरण करना सबके लिये सर्वथा श्रेयस्कर है और यही इस अवतार-कथा का सारभूति संदेश है ।
तन्त्र विद्या के ग्रंथों में भी भगवान् गणेश की पूजा अर्चना की विभिन्न विधियाँ दी हुई हैं, जिनके सफल होने पर चमत्कारिक परिणाम निकलते हैं, किन्तु उन तान्त्रिक विधियों के वास्तविक जानकार आज नहीं के बराबर हैं | और जो हैं भी वो आम जन-मानस से दूर ही रहते हैं |
साधना चाहे वाममार्गी हो या दक्षिणमार्गी, उसमे साधक के अन्दर आस्था एवं भक्ति भाव का होना परम आवश्यक है क्योंकि यही तय करता है कि साधक को सफलता कब और किस रूप में मिलेगी |