समुद्र मंथन के समय जब भगवान् ने कच्छपरूप धारण किया था और उनकी पीठ पर बड़ा भारी मन्दराचल पर्वत मथानी की तरह घूम रहा था, उस समय मन्दराचल की तीखी चटटानों की नोक से उनकी पीठ के खुजलाये जाने के कारण भगवान् को तनिक सुख मिला ।
इन्ही सुख के क्षणों में उन्हें नींद-सी आने लगी और उनके श्वास-प्रश्वास की वायु से जो समुद्र के जल को धक्का लगा था, उसका संस्कार आज भी उसमें शेष है । आज भी समुद्र उसी श्वास-वायु के थपेड़ों के फलस्वरूप ज्वार-भाटों के रूप मे दिन-रात चढ़ता-उतरता रहता है, उसे अब तक विश्राम नहीं मिला है । कहीं ऐसा भी वर्णन मिलता है ।
“सुन्दरी ! अपने हाँथों में सुशोभित वह संतानक-पुष्पों की अत्यन्त सुगन्धित दिव्य माला मुझे दे दो” । एक बार भगवान् शंकर के अंश अवतार महर्षि दुर्वासा ने सानन्द पृथ्वी तल पर विचरण करते हुए एक सुन्दर विद्याधरी (एक दिव्य अर्ध्दैवीय जाति की स्त्री) के हाथ में अत्यन्त सुवासित माला को देखकर उससे कहा ।
“मेरा परम सौभाग्य है” । विद्याधरी ने महर्षि के चरणों मे श्रद्धापूर्वक प्रणाम कर उनके कर-कमलों में माला देते हुए अत्यन्त विनम्रतापूर्वक मधुर वाणी में कहा । “मैं तो कृतार्थ हो गयी, जो आपने मुझसे कुछ माँगा” । महर्षि ने माला लेकर अपने गले में डाल ली और उस सुन्दर स्त्री को आशीष देते हुए आगे बढ़ गये ।
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उधर से देवताओं के अधिपति देवराज इन्द्र अपने विमान पर चढ़कर देवतओं के साथ आ रहे थे । उन्हें देखकर महर्षि दुर्वासा ने प्रसन्न होकर अपने गले की भ्रमरों से गुंजायमान अत्यन्त सुन्दर और सुगन्धित माला निकालकर शचीपति इन्द्र के ऊपर फेंक दी । सुरधिपति इंद्र ने वह माला सूँघा और फिर उसे पृथ्वी की ओर गिरा दिया, शायद उन्हें उसकी गंध पसंद नहीं आयी ।
यह दृश्य देखकर महर्षि दुर्वासा के नेत्र क्रोध से लाल हो गये । उन्होंने अत्यन्त कुपित होकर सहस्राक्ष इंद्र को शाप दे दिया “रे मूर्ख ! तूने मेरी दी हुई माला का कुछ भी आदर नहीं किया, इसलिये तेरा त्रिलोकी का वैभव नष्ट हो जायगा । तून मेरी दी हुई माला को पृथ्वी पर फेंका, इसलिये तेरा यह त्रिभुवन भी शीघ्र ही श्री हीन हो जायगा” ।
भय से आतंकित शचीपति अपने विमान से उतरकर महर्षि के चरणों पर गिर पड़े और हाथ जोड़कर अनेक प्रकार की स्तुतियों से उन्हें प्रसन्न करने प्रयत्न करने लगे । तब भी महर्षि दुर्वासा ने कहा “देवराज ! तू बारम्बार अनुनय-विनय का ढोंग क्यों करता है ? तेरे इस कहने-सुनने क्या होगा ? मैं तुम्हें क्षमा नहीं कर सकता” । यह कह कर महर्षि दुर्वासा वहाँ से चले गये और इंद्र भी उदस होकर अमरावती पहुँचे ।
उसी क्षण से अमरेन्द्र सहित अमरावती के वृक्ष तथा तृण-लता आदि क्षीण होने से श्री हत एवं विनष्ट होने लगे । देक्लोक के श्री हीन एवं सत्त्व शून्य हो जाने से प्रबल-पराक्रमी दैत्यों ने अपने महान प्रतापी सम्राट बलि के साथ तीक्ष्ण अस्त्रों से देवताओं पर आक्रमण कर दिया । देवगण पराजित होकर भागे । और स्वर्ग असुरों की क्रीड़ा स्थली बन गया ।
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असहाय, निरूपाय एवं दुर्बल देवताओं की दुर्दशा देखकर इन्द्र, वरूण आदि देवता समस्त देवताओं के साथ सुमेरू पर्वत के शिखर पर लोक पितामह ब्रह्मा जी के पास पहुँचे । संकटग्रस्त देवताओं के त्राण के लिये ब्रह्मा जी, सबके के साथ भगवान् विष्णु के धाम वैकुण्ठ में जा पहुँचे ।
वहाँ कुछ भी न दीखने पर उन्होंने वेदवाणी के द्वारा श्री भगवान् की स्तुति करते हुए प्रार्थना की “प्रभो ! हम आपके शरणागत हैं और चाहते हैं कि मन्द-मन्द मुस्कान से युक्त आपका मुख कमल अपने इन्हीं नेत्रों से देखें । आप कृपा करके हमें उसका दर्शन कराइये” ।
देवताओ के स्तवन से संतुष्ट होकर अमित तेजस्वी, मंगलधाम एवं नयन आनन्ददाता भगवान् विष्णु मन्द-मन्द मुस्कराते हुए उन्हीं के बीच प्रकट हो गये । देवतओं ने पुनः दयामय, सर्वसमर्थ प्रभु की स्तुति करते हुए अपना अभीष्ट निवेदन किया |
“विष्णो ! दैत्यों द्वारा परास्त हुए हम लोग आतुर होकर आपकी शरण में आये हैं, हे सर्वस्वरूप ! आप हम पर प्रसन्न होइये और अपने तेज से हमें सशक्त कीजिये”। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा | “पुनः सशक्त होने के लिये, तुम्हारे लिए जरा-मृत्यु के बन्धन से मुक्त करने वाला अमृत अत्यंत आवश्यक है” । जगत्पति भगवान् विष्णु ने मेघ के समान गम्भीर स्वर में देवताओं से कहा ।
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“और अमृत समुद्र-मंथन से प्राप्त होगा । यह काम अकेले तुम देवताओं से नहीं हो पायेगा । इसके लिये तुम लोग सामनीति का सहारा ले कर असुरों से संधि कर लो । अमृतपान के प्रश्न पर वे भी सहमत हो जायँगे । फिर, मेरे कहे अनुसार, क्षीर-सागर में सारी औषधियाँ और रसायन लाकर डाल दो । इसके बाद मन्दराचल पर्वत को मथानी और नागराज वासुकि को उसकी डोर बनाकर मेरी सहायता से समुद्र-मंथन करो । तुम्हें निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी, पर आलस्य और प्रमाद त्याग कर शीघ्र ही अमृत प्राप्ति के लिये प्रयत्न करो, अब विलम्ब नहीं होना चाहिए” ।
लीलाधारी भगवान् विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये । इन्द्रादि देवता दैत्यराज बलि के समीप पहुँचे । बुद्धिमान इन्द्र ने उन्हें अपने बन्धुत्व का स्मरण कराया और भगवान् के आदेशानुसार बलि से अमृत-प्राप्ति के लिये समुद्र-मंथन की बात कही । ‘अमृत में देवताओं और दैत्यों का समान भाग होगा’, इस लाभ की दृष्टि से दैत्येश्वर बलि ने सुरेन्द्र का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया ।
वहाँ उपस्थित अन्य महान शक्तिशाली सेनापति शम्बर, अरिष्टनेमि और त्रिपुरा निवासी दैत्यों ने भी इसका समर्थन किया । उन सभी को यह प्रस्ताव पसंद आया | फिर तो ब्रह्माण्ड की सारी औषधियाँ, तृण, लताएँ और रसायन क्षीर सागर में डाल दी गयीं । देवताओं और दैत्यों ने अपना मतभेद त्याग कर मन्दराचल पर्वत को उखाड़ा और उसे क्षीर सागर के तट की ओर ले चले, किंतु महान मन्दाचल पर्वत उनसे अधिक दूर नहीं जा सका ।
विवशतः उन लोगों ने उसे बीच में ही पटक दिया । उस स्वर्ण के मन्दराचल पर्वत के गिरने से कितने ही देवता और दैत्य काल के गाल में समा गये । देवों और दैत्यों का उत्साह भंग होते ही भगवान् विष्णु अपने वाहन गरूड़ जी के साथ वहाँ पुनः प्रकट हो गये । उनकी अमृतमयी कृपा दृष्टि से मृत देवता और दानव पुनः जीवित हो गये और उनकी शक्ति भी पूर्ववत् हो गयी ।
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सर्वसमर्थ श्री भगवान् ने एक हाथ से धीरे से मन्दराचल को उठाकर गरूड़ की पीठ पर रखा और देवता तथा दैत्यों सहित जाकर उसे क्षीर सागर के तट पर रख दिया । देवता और दैत्यों ने महान मन्दराचल पर्वत को समुद्र में डालकर नागराज वासुकि की रस्सी बनायी । सर्वप्रथम विष्णु भगवान् नागराज वासुकि के मुख की ओर गये । उन्हें देखकर अन्य देवता भी वासुकि के मुख की ओर चले गये ।
‘पूँछ सर्प का अशुभ अंग है’ । दैत्यों ने विरोध करते हुए कहा । “हम इसे नहीं पकडेंगे” । और दैत्यगण दूर खड़े हो गये । देवताओं ने कोई आपत्ति नहीं की । वे पूँछ की ओर आ गये और दैत्यगण सगर्व, नागराज वासुकी के मुख की ओर जाकर पूरे उत्साह से समुद्र मंथन करने लगे ।
लेकिन मन्दराचल पर्वत के नीचे कोई आधार नहीं था । इस कारण वह नीचे समुद्र में डूबने लगा । यह देखकर अचिन्त्यशक्ति-सम्पन्न श्री भगवान्, एक विशाल एवं विचित्र कच्छप का रूप धारण कर समुद्र में मन्दराचल पर्वत के नीचे पहुँच गये । उन कच्छप अवतार भगवान् की एक लाख योजन विस्तृत पीठ पर स्थित मन्दराचल ऊपर उठ गया । देवता और दैत्य समुद्र-मंथन करने लगे ।
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भगवान् आदि कच्छप की सुविस्तृत पीठ पर मन्दराचल पर्वत अत्यन्त तीव्रता से घूम रहा था और श्री विष्णु भगवान् को ऐसा प्रतीत होता था, जैसे कोई उनकी पीठ खुजला रहा है । इसके साथ-साथ समुद्र-मंथन का महान कार्य सम्पन्न हो जाय, इसके लिए श्री विष्णु भगवान्, शक्ति-संवर्द्धन के लिये असुरों में असुर रूप से, देवतओं में देव रूप से और वासुकि नाग में निद्रा रूप से प्रविष्ट हो गये ।
इतना ही नहीं, वे मन्दराचल पर्वत को ऊपर से दूसरे महान पर्वत की भाँति अपने हाथों से दबाकर स्थित हो गये । श्री भगवान् की इस लीला को देखकर ब्रह्मा, शिव और इन्द्रादि देवगण स्तुति करते हुए उनके ऊपर दिव्य पुष्पों की वृष्टि करने लगे । इस प्रकार कच्छप अवतार श्री भगवान् की पीठ पर मन्दाचल स्थिर हुआ और उन्हीं की शक्ति से समुद्र-मंथन हुआ ।