देवासुर संग्राम के बाद देवताओं के घमण्ड को चूर-चूर करने वाले परब्रह्म परमेश्वर

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देवासुर संग्राम के बाद देवताओं के घमण्ड को चूर-चूर करने वाले परब्रह्म परमेश्वर

जीत का नशा कुछ ऐसा होता है कि सिर चढ़ कर बोलता है फिर चाहे वो देव शक्तियाँ ही क्यों न हो | जिन शक्तियों को ईश्वर ने सृष्टि के सञ्चालन के लिए नियुक्त किया है, उनके पतन पर करुणासागर प्रभु सतर्क रहते हैं |

पौराणिक ग्रंथों में ऐसे कई कथानक दिए गए हैं जिनमे प्रभु, अपने भक्तों को, कभी प्रेम से तो कभी डांट कर सीधे रास्ते पर ले ही आते हैं | ऐसा ही एक प्रसंग देवासुर संग्राम के बाद हुआ |

उस समय देवासुर संग्राम समाप्त ही हुआ था और विजय देवताओं के हाथ लगी थी । दिव्य आयुधों एवं रत्नों से चमचमाती अलकापुरी में देवताओं के अधिपति इन्द्र का दरबार लगा हुआ था जिसमे सभी देवतागण अपने-अपने पराक्रम की चर्चा कर मन में फूले नहीं समा रहे थे ।

प्रसन्नता से भरी हुई उस सभास्थली में लगभग सभी देवगण दूसरों को सुनने की तुलना में अपने पराक्रम की चर्चा करना ज्यादा पसंद कर रहे थे | बीच-बीच में वे देवराज इन्द्र को उनके नेतृत्व के लिए बधाई देना नहीं भूलते |

देवताओं के बढ़ते अहंकार को शक्तियों के अधिष्ठाता, ब्रह्म के साकार स्वरुप भगवान विष्णु सुन रहे थे । अहंकार पतन और पराभव का कारण होता है, यह चेतना के विकास को कुंद कर देता है । समय रहते उस पर अंकुश लगना चाहिए ।

यही सब सोचकर दया के सागर प्रभु ने एक तेजस्वी, दीप्तिमान, महायक्ष का शरीर धारण किया और प्रगट हो गए उस देव सभा के द्वार पर | दरवाजे पर दस्तक होने से कोलाहल बन्द हुआ । उसका स्थान अब नीरव स्तब्धता ने ले लिया था ।

मुखमुद्रा पर प्रश्न का भाव लिए आगे बढ़कर अग्निदेव ने सभा भवन का दरवाजा खोला और आगन्तुक से प्रश्न किया “आप कौन है? यहाँ आने का अनुग्रह कैसे किया?” अग्निदेव के प्रश्न का बिना उत्तर दिए उस अजनबी तेजस्वी व्यक्ति ने उन्ही से प्रश्न किया ‘तू कौन है?’ नवआगन्तुक द्वारा इस प्रकार से धृष्टतापूर्वक प्रश्न पूछे जाने से अग्निदेव तिलमिला उठे |

उन्होंने अहंकार मिश्रित स्वर में अपना परिचय दिया “मैं जातवेदा अग्नि हूँ । प्रत्येक वस्तु को मै पल भर में जला कर भस्म कर सकता हूँ” । अग्निदेव से इस प्रकार सुनकर उस नवआगन्तुक ने बिलकुल शांत भाव से एक तिनका सामने रखा और अग्नि से उसे जलाने को कहा ।

अग्नि देव ने अपनी पूरी ताक़त झोंक दी लेकिन उनको लगा जैसे किसी ने उनकी सारी शक्ति निचोड़ ली हो । वे अपने को निष्प्राण और निस्तेज अनुभव कर रहे थे । फिर भी उन्होंने उस तिनके को जलाने का उपक्रम किया, पर असफल रहे । निराश, हताश और उदास होकर वो वहीं सर पर हाँथ रख कर भूमि पर बैठ गये |

उधर सभा में सभी के चेहरे पर बेचैनी का भाव था | द्वार पर अग्नि देव को गये अधिक देरी हो चुकी थी | अब तक उनको आ जाना चाहिए था | पवन देव ने वस्तुस्थिति का अवलोकन किया और अग्निदेव के साथ क्या हुआ यह जानने वह द्वार पर पहुँचे |

वहां पहुंचकर, भूमि पर निस्तेज अवस्था में अग्निदेव को बैठे देखकर उन्हें घोर आश्चर्य हुआ । सामने सूर्य की भाँति तेजस्वी अतिथि को देख कर उन्होंने पहले उन्ही से पूछा “महाभाग ! आपका परिचय?” प्रत्युत्तर में अतिथि ने उलटकर वही प्रश्न पवनदेव से भी कर दिया |

पवन देव ने अभिमान से कहा “मुझे वेगवान ‘मातरिश्वा’ कहते हैं । मैं बहता हूँ और अपने प्रवाह में बहुतों को बहा ले जाता हूँ ।” आगन्तुक अतिथि के अधरों पर मन्द मुस्कान तैर गई । उसने कहा “अच्छा ऐसा ! तो फिर इस तिनके को भी उड़ा कर दिखाओ” और उन्होंने वहीं पड़ा तिनका पवन देव के सामने रखकर उसे उड़ाने के लिए कहा ।

‘मातरिश्वा’ पवन देव ने अथक प्रयत्न किया, अपना पूरा जोर लगा दिया पर तिनका चट्टान की भाँति अड़ा रहा । टस से मस न हुआ । थके हारे पवन देव भी सिर झुकाकर ‘जातवेदा’ के निकट बैठ गये | उधर देवसभा में हलचल मच चुकी थी |

अग्नि देव और पवन देव के वापिस न लौटने पर देवगणों को चिन्ता बढ़ रही थी | सभी वरिष्ठ देवता वस्तु स्थिति को जानने के लिए देवसभा के द्वार पर पहुँचे । पीछे-पीछे देवराज इंद्र भी आ रहे थे | वहाँ पहुँचने पर पवन और अग्नि देव को सिर झुकाये बैठे देखकर सभी देवता आतंकित हो उठे ।

सामने एक परम तेजस्वी, दीप्तिमान आगंतुक को देख कर वरुण देव और अन्तरिक्ष ने उनका परिचय पूछा तो आगन्तुक ने वहीं पद्धति उनके साथ भी दुहराई । अपना परिचय दिए बिना उस बिना बुलाये अतिथि ने पलटकर उन्ही से प्रश्न पूछे । जवाब में एक ने कहा मैं चारो तरफ़ जलप्लावन करके सभी को भिगो देने में सक्षम हूँ और दूसरे ने कहा मै सभी को उदरस्थ कर सकता हूँ, मुझे अन्तरिक्ष कहते हैं |

दोनों के सामने वही तिनका पड़ा था, लेकिन चुनौती मिलने पर न तो वे उसे गीला कर सके और न ही कोई उसे उदरस्थ कर सका | विवश होकर, हार मानते हुए उन्हें भी अपने देव बन्धुओं की बगल में बैठ जाना पड़ा । अब परम तेजस्वी आगन्तुक स्वयं आगे बढ़ा और पीछे, अपने सिंहासन पर बैठे देवाधिराज इन्द्र से पूछा कि ‘क्या तू भी अपनी शक्ति का परिचय दे सकता है?’

अपमान से तिलमिलाए देवराज इंद्र अपने साथियों की दुर्गति अपनी आँखों के सामने देख चुके थे । वे क्या उत्तर देते? सबका अहंकार चूर-चूर हो चुका था । देव सभा में नीरवता छा गई थी ।

उस स्तब्धता को भंग करते हुए तेजस्वी पुरुष ने स्वयं अपना परिचय दिया “मैं महायक्ष हूँ मुझे सर्वशक्तिमान ब्रह्म कहते हैं । आत्मबल के रूप में मुझे जाना जाता है । मेरे तेज से ही शक्ति का प्रादुर्भाव होता है । सभी शक्तियों का अधिष्ठाता में ही हूँ । मेरी सत्ता से ही जड़−चेतन में हलचल और चैतन्यता पायी जाती है । देवताओं ! प्राकृत तत्वों से बने कलेवरों और उपकरणों की प्रशंसा न करो । ब्रह्म ही बल है । ब्रह्म तेज से ही विजय होती है । अस्तु प्रशंसा करनी हो तो उसी की करो । महत्ता उसी की समझो । आराधना उसी की करो” ।

आगन्तुक महायक्ष, वहाँ उपस्थित देवगणों को वास्तविकता को बोध कराकर अपनी आभा के साथ अदृश्य हो कर अपने धाम में प्रस्थान कर गए | देवताओं का मिथ्या अहंकार समाप्त हुआ और आत्मबल के स्वरुप को समझने के बाद वे उसी की आराधना में संलग्न हो गये ।

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