देवर्षि नारद जी की विभिन्न लीलाओं का वर्णन

देवर्षि नारद जी की विभिन्न लीलाओं का वर्णन
देवर्षि नारद जी की विभिन्न लीलाओं का वर्णन

देवर्षि नारद जी ईश्वर के ही अंशावतार हैं | वे श्री भगवान् के मन के अवतार हैं । कृपासिन्धु प्रभु जो कुछ करना चाहते हैं, सर्वज्ञ और त्रिकालदर्शी, वीणापाणि नारदजी के द्वारा वैसी ही चेष्टा होती है | श्रीमदभागवत में यह कहा गया है कि ‘‘ऋषियों की सृष्टि में उन्होंने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत-तंत्र का (जिसे ‘नारदपंचरात्र’ भी कहते हैं) उपदेश किया |

उस सात्वत-तंत्र में कर्मों के द्वारा किस प्रकार कर्मबन्धन से मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है’’ | परम तपस्वी और ब्रह्मतेज से सम्पन्न नारद जी अत्यन्त मनोहारी हैं । उनका वर्ण गौर है । उनके मस्तक पर शिक्षा सुशोभित है । अत्यन्त कान्तिमान नारद जी देवराज इन्द्र के दिये हुए दो उज्जवल, दिव्य महीन तन्तुओं से बने हुए , दिव्य, अत्यंत शुभ और बहुमूल्य वस्त्र धारण करते हैं ।

योगनिद्रा – एक रहस्यमय विद्या

वेद और उपनिषदों के ज्ञाता, देवताओं द्वारा पूजित एवं सम्मानित, समय की तीनों अवस्थाओं में गति रखने वाले अर्थात पूर्वकल्पों की बातों के जानकार, महाबुद्धिमान और असंख्य सदगुणों से सम्पन्न महातेजस्वी नारद जी भगवान् पद्मयोनी से प्राप्त वीणा की मनोहर झंकृति के साथ दयामय भगवान् के मधुर, मनोहर एवं मंगलमय नाम और गुणों का गान करते हुए लोक-लोकान्तरों में विचरण किया करते हैं । मुक्ति की इच्छा रखने वाले साधु पुरूषों के हित के लिये नारद जी सदैव प्रयत्नशील रहते हैं । वे साक्षात सचल कल्पवृक्ष हैं ।

वे स्वयं अपने मुख से कहते हैं “जब मैं उनकी लीलाओं का गान करने लगता हूँ, तब वे प्रभु, जिनके चरण-कमल समस्त तीर्थों के उदगम स्थान हैं और जिनका यशोगान मुझे बहुत ही प्रिय लगता है, बुलाये हुए की भाँति तुरन्त मेरे हृदय में आकर दर्शन दे देते हैं” । कृपा की मूर्ति नारद जी वेदान्त, योग, ज्योतिष, आयुर्वेद एवं संगीत आदि अनेक शास्त्रों के आचार्य हैं और भक्ति के तो वे प्रधानाचार्य हैं ।

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उनका पंचरात्र भागवत-मार्ग का प्रधान ग्रन्थ रत्न है । प्राणि मात्र की कल्याण-कामना करने वाले नारद जी श्रीहरि के बताये हुए मार्ग पर अग्रसर होने की इच्छा रखने वाले अनेकों प्राणियों को सहयोग देते रहते हैं । मुमुक्षुओं को मार्गदर्शन उनका प्रमुख कर्तव्य है । उन्होंने त्रैलोक्य में कितने प्राणियों को किस प्रकार परम प्रभु के पावन पद-पद्मों में पहुँचा दिया, इसकी गणना सम्भव नहीं ।

बालक प्रहलाद की दृढ़ भक्ति से भगवान् ने नृसिंह रूप में अवतार लिया । भक्त प्रहलाद के इस भगवद्विश्वास एवं प्रगाढ़ निष्ठा में भगवान् नारद ही मुख्य हेतु थे । उन्होंने गर्भस्थ प्रहलाद को लक्ष्य करके उनकी माता दैत्येश्वरी कयाधू को भक्ति और ज्ञान का उपदेश दिया । प्रहलाद जी का वही ज्ञान उनके जीवन और जन्म को सफल करने में हेतु बना ।

इसी प्रकार से पिता के तिरस्कार से क्षुब्ध बालक ध्रुव के वन-गमन के समय नारद जी ने उन्हें भगवान् वासुदेव का मंत्र दिया तथा उन्हें उपासना की पद्धति भी विस्तारपूर्वक बतायी ।

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जब दक्ष प्रजापति ने पंचजन की पुत्री असिक्री से ‘हर्यश्व’ नामक दस सहस्र पुत्र उत्पन्न कर उन्हें सृष्टि-वितार का आदेश दिया और इसी कार्य के लिए जब उनके वे पुत्र पश्चिम दिशा में सिन्धु नदी और समुद्र के संगम पर स्थित पवित्र नारायण-सर पर तपश्चरण करने पहुँचे, तब नारदजी जी ने अपने अमृतमय उपदेश से उन सबको विरक्त बना दिया ।

यद्यपि उनके इस कार्य से दक्ष प्रजापति बड़े दुःखी हुए । उन्होंने फिर ‘शबलाश्व’ नामक एक सहस्र पुत्र उत्पन्न किये । नारदजी ने कृपापूर्वक उन्हें भी श्री भगवच्चरणारविन्दों की ओर उन्मुख कर दिया और शबलाश्व की उपाधि से विभूषित वे एक सहस्र पुत्र भी मोक्ष-मार्ग की ओर अग्रसर हो गए ।

फिर तो अत्यन्त क्रुद्ध होकर प्रजापति दक्ष ने अजातशत्रु नारदजी को शाप दे डाला “तुम लोक-लोकान्तरों में भटकते ही रहोगे, एक जगह स्थिर न रह सकोगे” । साधुशिरोमणि नारद जी ने इसे प्रभु की मंगलमयी इच्छा समझकर दक्ष का शाप स्वीकार कर लिया |

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जब वेदों का विभाग तथा पंचम वेद महाभारत की रचना कर लेने के बाद भी श्री व्यास जी अपने द्वारा किये गए काम का, अपूर्ण होने का अनुभव करते हुए खिन्न हो रहे थे, तब दयावश देवर्षि नारद जी उनके समीप पहुँच गये और व्यास जी के पूछने पर उनको बताया कि “व्यास जी ! आपने भगवान् के निर्मल यश का ज्ञान प्रायः नहीं किया ।

मेरी ऐसी मान्यता है कि वह शास्त्र या ज्ञान सर्वथा अपूर्ण है, जिससे जगत के आधार, हम सब के स्वामी संतुष्ट न हों । वह वाणी आदर के योग्य नहीं, जिसमें श्री हरि की परम पावनी कीर्ति वर्णित न हो । वह तो कौओं के लिये उच्छिष्ट फेंकने के स्थान के समान अपवित्र है ।

उसके द्वारा तो मूर्ख कामुक व्यक्तियों का ही मनोरंजन हो सकता है । मानस-सर के कमल वन में विहार करने वाले राजहंसों के समान ब्रह्मधाम में विहार करने वाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परम हंस भक्तों का मन उसमें कैसे रम सकता है?

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विद्वान पुरूषों ने निर्णय किया है कि मनुष्य की तपस्या, वेदाध्ययन, यज्ञ अनुष्ठान एवं समस्त धर्म कर्मों की सफलता इसी में है कि पुण्य कीर्ति श्री प्रभु की कल्याणमयी लीलाओं का ज्ञान किया जाय । इसलिए व्यास जी ! आपका ज्ञान पूर्ण है |

आप भगवान् की ही कीर्ति का, उनकी प्रेममयी लीला का वर्णन कीजिये । उसी से बड़े-बड़े ज्ञानियों की भी जिज्ञासा पूर्ण होगी । जो लोग सांसारिक दुःखो के द्वारा बार-बार रौंदे जा रहे हैं, उनके दुखों की शान्ति इसी से हो सकती है । इसके सिवा उनका और कोई उपाय नहीं है” |

जब दुर्योधन के छल और कुटिल नीति से सहृदय पाण्डवों ने वन जाने के लिये प्रस्थान किया, तो उस समय भरत वंशियों के विनाश सूचक अनेक प्रकार के भयानक अपशकुन होने लगे । राजपरिवार इससे भयाक्रान्त था |

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अतः चिन्तित होकर इस सम्बन्ध में धृतराष्ट्र और विदुर परस्पर बातचीत कर ही रहे थे कि उसी समय महर्षियों से घिरे हुए भगवान् नारद कौरवों के सामने आकर खड़े हो गये और सुस्पष्ट शब्दों में उन्होंने भविष्यवाणी करते हुए कहा “आज से चौदहवें वर्ष में दुर्योधन के अपराध से, भीम और अर्जुन के पराक्रम द्वारा कौरव कुल का नाश हो जायगा” |

धृतराष्ट्र और विदुर समेत वहां उपस्थित कुरुवंशियों को स्तब्ध छोड़कर, इतना कहते हुए महान ब्रह्मतेज धारी नारद जी आकाश में जाकर सहसा अन्तर्धान हो गये । सर्वोच्च ज्ञान के परम पावन विग्रह श्री शुकदेव जी को उपदेश देते हुए महा मुनि नारद जी ने कहा था “संग्रह का अन्त है विनाश | ऊँचे चढ़ने का अन्त है नीचे गिरना । संयोग का अन्त है वियोग और जीवन का अन्त है मरण” । “जो अध्यात्म विद्या में अनुरक्त, कामना शून्य तथा भोगा सक्ति से दूर है, जो अकेला ही विचरण करता है, वही आनंदित होता है” |

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जब अविनाशी नारायण और नर बद्रिकाश्रम में घोर तप करते हुए अत्यन्त दुर्बल हो गये थे और उन परम तेजस्वी प्रभु का दर्शन अत्यन्त दुर्लभ था, उस समय नारद जी महामेरू पर्वत से गन्धमादन पर्वत पर उतर गये और वहां से जब नारद जी, भगवान् नर और नारायण के समीप पहुँचे, तब उन्होंने शास्त्रीय विधि से नारद जी की पूजा की ।

नारद जी ने वहाँ उनसे अनेक भगवत्सम्बन्धी प्रश्नों का तृप्तिकर उत्तर प्राप्त किया और फिर उनकी अनुमति से श्वेत द्वीप में पहुँचकर श्री भगवान् के विराट-विश्वरूप का दर्शन-लाभ कर पुनः गन्धमादन पर्वत पर श्रीनर-नारायण के समीप चले आये । नारद जी ने भगवान् नर-नारायण को सारा वृत्तान्त सुनाया और उनके समीप दस सहस्र दिव्य वर्षों तक रहकर वे भजन एवं मन्त्रानुष्ठान करते रहे ।

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स्कन्द पुराण में इन्द्र द्वारा रचित श्री नारद जी की एक अत्यन्त सुन्दर स्तुति है । उसके सम्बन्ध में एक बार भगवान् श्री कृष्ण ने नारद जी के गुणों की प्रशंसा करते हुए राजा उग्रसेन से कहा था कि “मैं देवराज इन्द्र द्वारा रचे गये स्तोत्र से दिव्य दृष्टि सम्पन्न श्री नारद जी की सदा स्तुति किया करता हूँ” ।

सर्व सुहृद श्री नारद जी ही एक मात्र ऐसे हैं, जिनका सभी देवता और दैत्य गण समान रूप से सम्मान एवं उन पर विश्वास करते हैं, उन्हें अपना शुभेच्छु समझते हैं और निश्चय ही वे दयामय सबके यथार्थ हित-साधन के लिये सचिन्त और प्रयत्नशील रहते हैं । यह एक रहस्य है कि आज भी करूणामय प्रभु के सच्चे प्रेमी भक्तों को उनके दर्शन हो जाते हैं ।

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