यज्ञ क्या है, हिन्दू धर्म में यज्ञ का इतना महत्व क्यों है

यज्ञ क्या है, हिन्दू धर्म में यज्ञ का इतना महत्व क्यों हैयज्ञ क्या हैं ? यह बात अगर आप आज किसी, हिन्दू धर्म को मानने वाले सामान्य व्यक्ति से पूछेंगे तो वो इसे एक धार्मिक अनुष्ठान बतायेगा और शायद यह भी कि इसे करने से वातावरण में शुद्धता और पवित्रता बढ़ती है |

यह बात सही है लेकिन क्या आपको पता है कि धार्मिक और वैज्ञानिक अनुष्ठानों के रूप में किये जाने वाले इन यज्ञों की खोज एवं स्थापना किसने की थी | इस जानकारी के सूत्र हमें कल्प के प्रारम्भ में ले जाते हैं जब वर्तमान सृष्टि की शुरुआत हुई थी | बात है स्वायम्भुव मन्वन्तर की । ब्रह्मा जी के पुत्र स्वायम्भुव मनु की महा तेजस्वी पत्नी शतरूपा के गर्भ से दिव्य कन्या आकूति का जन्म हुआ ।

आकूति, रूप में अद्वितीय एवं आध्यात्मिक क्रियाओं में रुचि लेने वाली थीं | वे रूचि प्रजापति की पत्नी हुई । इन्हीं महाभागा आकूति के गर्भ से धरती पर धर्म की स्थापना के लिये आदि पुरूष श्री भगवान् अवतरित हुए । जगत में उनकी ख्याति ‘यज्ञ’ नाम से हुई । इनकी असाधारण खोज के लिए इन्हें ईश्वर के अवतार की संज्ञा दी गयी |

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इन्हीं परम प्रभु ने इस सृष्टि में सर्वप्रथम यज्ञ की सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक प्रक्रियाओं का प्रवर्तन किया और इन्हीं के नाम से यह समूचे ब्रह्माण्ड में प्रचलित हुआ । उनके द्वारा स्थापित यज्ञ की सूक्ष्म वैज्ञानिक प्रक्रियाओं से देवताओं की शक्ति बढ़ी और देवताओं की शक्ति से सारी सृष्टि शक्तिशालिनी हुई । एक समय आया जब परम धर्मात्मा स्वायम्भुव मनु की धीरे-धीरे समस्त सांसारिक विषय-भोगों से सर्वथा अरूचि हो गयी ।

संसार से विरक्त हो जाने कारण उन्होंने पृथ्वी का राज्य त्याग दिया और अपनी महिमामयी पत्नी शतरूपा के साथ तपस्या करने के लिये वन में चले गये । वे पवित्र सुनन्दा नदी के तट पर एक पैर पर खड़े होकर आगे दिये हुए मंत्रमय उपनिषद-स्वरूप श्रुति का निरन्तर जप करने लगे ।

वे तपस्या करते हुए प्रतिदिन श्री भगवान् की स्तुति करते थे ‘जिनकी चेतना के स्पर्श मात्र से यह विश्व चेतन हो जाता है, किंतु यह विश्व जिन्हें चेतना का दान नहीं कर सकता | जो इसके सो जाने पर प्रलय में भी जागते रहते हैं, जिनको यह विश्व नहीं जान सकता, परंतु जो इसे जानते हैं-वे ही परमात्मा हैं । भगवान् सबके साक्षी हैं ।

उन्हें बुद्धि-वृत्तियाँ या नेत्र आदि इन्द्रियाँ नहीं देख सकतीं, परंतु उनकी ज्ञान-शक्ति अखण्ड है । समस्त प्राणियों के हृदय में रहने वाले उन्हीं स्वयम्प्रकाश असंग परमात्मा की शरण हम ग्रहण करें’ । इस प्रकार स्तुति एवं जप करते हुए उन्होंने सौ वर्ष तक अत्यन्त कठोर तपश्चरण किया । एकाग्र चित्त से इस मंत्रमय उपनिषद-स्वरूप श्रुति का पाठ करते-करते उन्हें अपने शरीर की भी सुधि नहीं रही ।

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उसी समय वहाँ भूख से अत्यंत पीड़ित असुरों एवं राक्षसों का समुदाय एकत्र हो गया । वे ध्यानमग्न परम तपस्वी मनु और शतरूपा को खाने के लिये दौड़े । मनु और शतरूपा के पौत्र आकूतिनन्दन भगवान् यज्ञ, जिन्होंने अपनी विशिष्ट वैज्ञानिक शक्तियों से उन दोनों को एक रक्षा घेरे में लिया था, तुरंत अपने याम नामक पुत्रों के साथ तुरन्त वहाँ पहुँच गये ।

राक्षसों से भयानक संग्राम हुआ । अन्ततः राक्षस पराजित हुए । काल के गाल में जाने से बचे असुर और राक्षस अपने प्राण बचाकर भागे । भगवान् यज्ञ के पौरूष एवं प्रभाव को देखकर देवताओं की प्रसन्नता की सीमा न रही । उन्होंने उनसे देवेन्द्र-पद स्वीकार करने की प्रार्थना की । देव-समुदाय की तुष्टि के लिये भगवान् इन्द्रासन पर विराजित हुए ।

इस प्रकार श्री भगवान् ने इन्द्र-पद पालन का आदर्श उपस्थित किया । भगवान् यज्ञ के उनकी धर्म पत्नी दक्षिणा से अत्यन्त तेजस्वी बारह पुत्र उत्पन्न हुए थे । वे ही स्वायम्भुव मन्वन्तर में ‘याम’ नामक बारह देवता कहलाये ।

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