योग भारतवर्ष की अमूल्य निधि है | दर्शन शास्त्र के ग्रन्थ, भारतीय मनीषियों की योगविद्या के चमत्कार से ही भरे पड़े हैं | योग साधना एवं आध्यात्मिक ज्ञान के लिए, ये विश्व सदियों से ऋणी रहा है भारतवर्ष का | आज भी पश्चिमी जगत के वैज्ञानिकों का, विभिन्न प्रकार की यौगिक साधनाओं पर अनुसन्धान जारी है |
लेकिन वर्तमान युग में ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अधिकतर लोग इन साधनाओं को चमत्कारिक मानने लगे हैं, मानो ऐसी रहस्यमयी साधना के अभ्यास से चमत्कारिक शक्तियाँ मिलने लगेंगी | ऐसी भ्रान्तिपूर्ण धारणाओं से लाभ कम और हानियाँ अधिक होने की सम्भावना है | दरअसल समस्त प्रकार की साधारण और असाधारण (चमत्कारिक) शक्तियां अपने शरीर के भीतर ही विद्यमान हैं | योग साधनाओं द्वारा उन असाधारण शक्तियों का साक्षात्कार करके उन्हें हस्तगत किया जाता है | किन्तु इन रहस्यमयी योग साधनाओं के अभ्यास से पहले इनके बारे में जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है | आइये जानते हैं प्राचीन भारतीय महर्षियों द्वारा बताये गए चार महत्वपूर्ण योग के बारे में जिनके नाम इस प्रकार हैं- मन्त्रयोग, हठयोग, लययोग, और राजयोग |
मन्त्रयोग: इस दृश्यमान, प्रपंचरुपी जगत का कोई भी हिस्सा ‘नामरूप’ से बचा हुआ नहीं है | सच्चिदानंद से पृथक होकर जीवात्मा, नामरूप में ही फंसकर माया रुपी जगत में क्रीड़ा करता है | वह जिस ‘भूमि’ पर गिरता है, उसी भूमि को पकड़ कर उठ सकता है, आकाश को पकड़ कर नहीं | इस सिद्धांत के अनुसार जीवात्मा को नामरूप के अवलंबन से ही मोक्ष के लिए प्रयास करना चाहिए | इस प्रकार से दिव्य नामरूप के अवलंबन से चित्तवृत्तिनिरोध की जितनी क्रियाएं हैं, शास्त्रों में उन्हें मन्त्रयोग के नाम से कहा गया है |
हठयोग: स्थूल शरीर से सम्बन्ध रखने वाली षट्कर्म आदि योगक्रियाओं के अभ्यास द्वारा स्थूल शरीर की समस्त इन्द्रियों एवं मन पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करते हुए स्थूल और सूक्ष्म, दोनों शरीर की चित्तवृत्तियों के निरोध की जितनी क्रियाशैलियाँ हैं, वो सब हठयोग के अंतर्गत आती हैं | कुछ लोग अष्टांग योग को ही हठयोग समझते हैं जबकि दोनों में थोड़ा सा अंतर है | अष्टांग योग में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि आते हैं |
राजयोग: मन के क्रिया-कलाप ही मनुष्य के इस मायिक जगत में बंधन के कारक हैं | बुद्धि और विवेक की सहायता से मनुष्य इन बंधनों को काट सकता है | बुद्धि और विवेक की क्रिया विचार है अतः उसके द्वारा चित्तवृत्तियों के निरोध की जो क्रिया शैली है, उसका नाम राजयोग है | इसका अधिकार क्षेत्र सबसे अधिक है |
लययोग: आर्ष-ग्रंथों में कहा गया है ‘यत पिंडे तत ब्रह्माण्डे’ अर्थात जो कुछ भी इस अखिल विश्व ब्रह्माण्ड में है वो सब कुछ इसी मानव शरीर में है | पिण्ड रुपी मनुष्य शरीर में ब्रह्माण्ड व्यापिनी प्रकृति शक्ति का केंद्र, मूलाधार पद्म में स्थित, साढ़े तीन चक्र लगाए हुए सर्पाकार कुण्डलिनी है | ब्रह्माण्डव्यापी पुरुष का केंद्र, मनुष्य शरीर में, सहस्त्रदल कमल (सहस्त्रार चक्र) है | उस निद्रित परमशक्ति कुण्डलिनी को गुरुपदिष्ट योगक्रियाओं से प्रबुद्ध करते हुए, सुषुम्ना नाड़ी में गुम्फित हुए षट्चक्रों के भेदन द्वारा ले जा कर, सहस्त्रदलकमल शायी परमपुरुष में लय करने की जो क्रिया शैली है वो लययोग के अंतर्गत आती है |
इन चार प्रकार की योग साधनाओं में नौ प्रकार के विघ्न और पांच प्रकार के उपविघ्न उपस्थित हो सकते हैं जो इस प्रकार हैं
विघ्न: महर्षि पतंजलि के अनुसार नौ प्रकार के विघ्नों के नाम- व्याधि (रोग), स्त्यान (शिथिलता), संशय, प्रमाद (जान बूझ कर योग आदि के यम-नियमों का पालन न करना), आलस्य, अविरति (विषय भोगों में रूचि उत्पन्न होना), भ्रान्ति दर्शन (विपरीत निश्चय), अलब्ध भूमिकत्व (योग साधनाओं का अनुष्ठान करने पर भी मधुमती, मधुप्रतिका आदि समाधिभूमिविशेष का लाभ ना होना), अनवस्थितत्व (भूमि विशेष का लाभ होने पर भी चित्त का स्थिर ना हो पाना) |
उपविघ्न: उपरोक्त नौ विघ्नों के अतिरिक्त जो पाँच उपविघ्न योग साधना में बाधक हैं, उनके नाम- दुःख, दौर्मनस्य (इच्छा के पूर्ण ना होने पर मन का क्षुब्ध होना), अंगमेजयत्व (अंगों में कम्पन का होना), श्वास (साधना विशेष में आवश्यकता ना होने पर भी बाह्य वायु को भीतर ले जाना), प्रश्वास (उसी प्रकार से भीतर की वायु को बाहर निकालना) |
विघ्नों और उपविघ्नों के निवारण के उपाय: ऊपर जिन विघ्नों और उपविघ्नों का वर्णन हुआ है, वे, इस कलियुगी समय में, एक प्रकार से, मनुष्य जीवन के आवश्यक अंग बन चुके हैं | आज के समय में इनसे छुटकारा पाना अतीव दुष्कर कार्य है और बिना इनसे छुटकारा पाए, योग साधनाओं में सफलता भी संदिग्ध है | ऐसी परिस्थितियों में, इनसे मुक्ति पाने के लिए, ईश्वर से प्रार्थना सबसे महत्वपूर्ण और कारगर उपाय है |
‘सच्चे ह्रदय से उनसे प्रार्थना करने पर उनकी अनुकम्पा होती ही है’ | उनकी अनुकम्पा होने पर धीरे-धीरे रास्ता साफ़ हो जाता है | दरअसल ईश्वर स्वयं नहीं आते लेकिन प्रार्थना करने पर, ईश्वर की प्रेरणा से, कोई ना कोई दिव्यात्मा आपकी सहायता के लिए अवश्य आ जाता है | इसलिए सभी महान कार्यों को प्रारम्भ करने से पहले ईश्वर से, उसकी सफलता की कामना के लिए, प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए | इस कार्य के लिए ऋग्वेद में एक मन्त्र भी निर्दिष्ट किया गया है जो इस प्रकार है-
स घा नो योग आभुवत स राये स पुरं ध्याम |
गमद वाजेभिरा स नः | (ऋग्वेद 1|5|3)
अर्थात वही परमात्मा हमारी समाधि के निमित्त अभिमुख हो, उसकी दया से समाधि, विवेकख्याति तथा ऋतंभरा प्रज्ञा का हमें लाभ हो तथा वही परमात्मा अणिमा आदि सिद्धियों के सहित हमारी ओर आगमन करें |
हठयोग के अंग: हठ योग के कुल सात अंग हैं जिनके नाम-षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान और समाधि | इनके, शरीर संशोधन, दृढ़ता, स्थिरता, धीरता, लघुता, आत्मप्रत्यक्ष, निर्लिप्तता और मुक्तिलाभ क्रमशः फल हैं | षट्कर्मों में धौति, बस्ति, नेति, लौलिकी, त्राटक और कपालभाति आते हैं | विस्तार भय से इनका अलग-अलग वर्णन नहीं किया जा रहा है लेकिन रहस्यमय के अगले किसी लेख में इनका वर्णन अवश्य होगा |
आसन: हठयोग का दूसरा अंग है आसन जिसके अभ्यास से शरीर में दृढ़ता आती है और मन स्थिर होता है | वास्तव में इस जगत में जीवात्मा की जितनी प्रकार की योनियाँ हैं, उतने प्रकार के आसन भी हैं | तंत्र शास्त्र के प्रणेता भगवान महादेव ने चौरासी लाख आसनों का वर्णन किया है | उनमे चौरासी आसन मुख्य हैं |
ऐसा कहा जाता है कि उन चौरासी आसनों में भी तैंतीस आसन मृत्युलोक में मंगल कारक हैं | उन तैंतीस आसनों के नाम इस प्रकार हैं- सिद्धासन, स्वस्तिकासन, पद्मासन, बद्धपद्मासन, भद्रासन, मुक्तासन, वज्रासन, सिंहासन, गोमुखासन, वीरासन, धनुरासन, मृतासन (शवासन), गुप्तासन, मत्स्यासन, मत्स्येन्द्रासन, गोरक्षासन, पश्चिमोत्तानासन, उत्कटासन, संकटासन, मयूरासन, कुक्कुटासन, कूर्मासन, उत्तानकूर्मासन, उत्तानमंडुकासन, वृक्षासन, मंडुकासन, गरुड़ासन, वृषासन, शलभासन, मकरासन, उष्ट्रासन, भुजन्गासन, और शीर्षासन | हठयोग प्रदीपिका के अनुसार इनमे भी चार आसन श्रेष्ठ हैं -सिद्धासन, पद्मासन, सिंहासन, तथा भद्रासन और इन चारों में भी सिद्धासन सर्वश्रेष्ठ माना गया है | साधक को चाहिए कि साधना के समय सदा सुखपूर्वक सिद्धासन पर ही बैठे |
मुद्रायें: जिन क्रियाओं से प्राणायाम और प्रत्याहार आदि अंगों की सिद्धि में सहायता प्राप्त होती है उन क्रियाओं को मुद्रा कहते हैं | इनमे प्रमुख मुद्राओं के नाम- महामुद्रा, नभोमुद्रा, उड्डियान बंध, जालंधर बंध, मूलबंध, महाबन्ध, महावेधा मुद्रा, खेचरी मुद्रा, विपरीतकरणी मुद्रा, योनिमुद्रा, वज्रोली मुद्रा, शक्तिचालिनी मुद्रा, तड़ागी मुद्रा, माण्डुकी मुद्रा, शाम्भवी मुद्रा, पञ्चधारणा मुद्रा, अश्विनी मुद्रा, पाशिनी मुद्रा, काकी मुद्रा, मातंगी मुद्रा, और भुजन्गिनी मुद्रा |
प्राणायाम: प्राणायाम वैसे तो कई प्रकार के हो सकते हैं लेकिन उनके तीन अंग होते हैं-रेचक, पूरक और कुम्भक | कुम्भक भी दो प्रकार का होता है- अन्तः कुम्भक और बाह्य कुम्भक |
प्रत्याहार: यदि अठारहों मर्मस्थान में से प्रत्येक स्थान में मन को केन्द्रित करके उसमे परमात्मा को धारण किया जा सके तो उसको प्रत्याहार कहते हैं | ये अठारह मर्मस्थान इस प्रकार हैं-पैर के अंगूठे, गुल्फ (Ankle), जन्घामध्य, पायु (मलद्वार या गुदा), ह्रदय, शिश्न, देहमध्य, नाभि, गलकूर्पर (कंठमूल), तालुमूल, घ्राण (नासिका) मूल, नेत्रमंडल, भ्रूमध्य, ललाट, ऊर्ध्वमूल, दोनों घुटने, और करमूल |
ध्यान: एकाग्रचित्त हो कर समस्त इन्द्रियों का बहिर्गमन रोक देना और उन्हें अंतर्मुखी कर अपने अभीष्ट पर केन्द्रित करना ही ध्यान है | जिस प्रकार से सूर्य रश्मियाँ, उत्तल दर्पण से किसी एक बिंदु पर केन्द्रित हो कर उसे जला सकती हैं उसी प्रकार से आसीमित शक्तियों की स्वामिनी ये इन्द्रियां केन्द्रित होने पर चमत्कारिक परिणाम प्रस्तुत कर सकती हैं | ध्यान दो प्रकार का होता है सगुण और निर्गुण |
समाधि: ध्यान की तुरीयावस्था ही समाधि है | मै ही परब्रह्म हूँ या ब्रह्म में मै ही हूँ, ऐसी सम्यक स्थिति प्राप्त होने पर वह समाधि ही होती है | उस समय कोई भी वृत्ति नहीं रह जाती |
राजयोग के अंग: भक्ति तथा सांख्य आदि छह प्रकार के दर्शनों के अनुसार राजयोग के प्रमुख अंग हैं धारणा, ध्यान और समाधि | वे सब विचार प्रधान हैं | धारणा के दो अंग हैं- प्रकृति धारणा और ब्रह्म धारणा | ध्यान के तीन अंग है-विराडध्यान, ईशध्यान तथा ब्रह्मध्यान | समाधि के चार अंग हैं- वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनंदानुगत और अस्मितानुगत |
लययोग के अंग: लययोग में सूक्ष्म क्रिया के साथ स्वरोदय साधन का और प्रत्याहार के साथ नादानुसंधान क्रिया का वही सम्बन्ध है जो धारणा के साथ षट्चक्र भेदन क्रिया का सम्बन्ध है | पायु (मलद्वार) से दो अंगुल ऊपर और उपस्थ (जननेन्द्रिय) से दो अंगुल नीचे, चार अंगुल तक विस्तृत, समस्त नाड़ियों का मूलस्वरूप, एक पक्षी के अंडे की तरह कंद रूप में विद्यमान है, जिसमे से बहत्तर हज़ार नाड़ियाँ निकल कर सारे शरीर में व्याप्त हुई हैं |
उनमे से भी तीन नाड़ियाँ प्रमुख कही गयी हैं-इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना | अधिक जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें| भ्रूमध्य के ऊपर जहाँ पर इड़ा और पिंगला मिलती है, वहीँ पर मेरुमध्य स्थित सुषुम्ना भी जा मिलती है इसलिए यह स्थान त्रिवेणी कहलाता है | शास्त्रों में इसकी तुलना गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम से की गयी है जो इस प्रकार है |
इड़ा भोगवती गंगा पिंगला यमुना नदी |
इड़ापिंगलयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती ||
इन ग्रंथों में यह भी कहा गया है कि जो योगी इस त्रिवेणी में स्नान करता है वह मोक्ष का अधिकारी होता है | यथा-
त्रिवेणीयोगः सा प्रोक्ता तत्र स्नानं महाफलम |
धनुषाकार इड़ा और पिंगला के बीच से होती हुई, सुषुम्ना नाड़ी मेरुदंड के अंत तक जाती है और वहाँ जाकर यह मेरुदंड से अलग हो कर वक्राकार होती हुई, भ्रूमध्य में (थोड़ा सा ऊपर) यह इड़ा और पिंगला से मिलती है और वहाँ से यह तीनो ब्रह्मरन्ध्र तक जाती है | केवल इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना, ये तीन नाड़ियाँ ही मूलकंद से निकल कर ब्रह्मरन्ध्र तक जाती हैं |
षट्चक्र: मूलकंद से ब्रह्मरन्ध्र तक विस्तृत पथ पर सुषुम्ना नाड़ी की छह ग्रंथियां होती है जो षट्चक्र कहलाती हैं | यौगिक क्रियाओं द्वारा मूलाधार स्थित चिर निद्रा में सोई कुण्डलिनी शक्ति को जागृत कर इन छह चक्रों के द्वारा सुषुम्ना नाड़ी के पथ पर प्रवाहित करके ब्रह्मरन्ध्र के ऊपर सहस्त्रदल कमल स्थित परमशिव में लय कर देना ही लय योग का उद्देश्य है |
मूलाधार चक्र: सबसे नीचे प्रथम चक्र मूलाधार स्थित है | वह गुदा के ऊपर और लिंगमूल के नीचे सुषुम्ना नाड़ी के मुख से जुड़ा हुआ है, यानी कंद और सुषुम्ना के संधिस्थल में इसकी स्थिति है | इसके व-श-ष-स, ये वर्ण चार दल हैं | इसका रक्त वर्ण है | इस चक्र की अधिष्ठात्री देवी डाकिनी हैं | मूलाधार चक्र के आधारपद्म की सूक्ष्म कर्णिकाओं के गह्वर में वज्रा नाड़ी के मुख में त्रिपुर सुंदरी का निवास स्थान एक त्रिकोण शक्तिपीठ है | वह कामरूप कोमल और विद्युत् के सामान तेजपुंज है |
उसमे कन्दर्प नामक वायु का निवास है | वह वायु, जीव को धारण करने वाले (उच्च लोकों के) बंधुजीव पुष्प के समान विशेष रक्तवर्ण तथा करोड़ो सूर्य के समान प्रकाशमान है | उस त्रिकोण शक्ति पीठ में स्वयम्भू लिंग विराजमान है, जो पश्चिम मुख, पिघले स्वर्ण के समान कोमल और कान्तिमान तथा ज्ञान और ध्यान का प्रकाशक है | इसी स्वयम्भू लिंग के ऊपर, कमल की डंडी के तंतु के समान, शँखवेष्टनयुक्ता, साढ़े वलयों के आकार की कुण्डलाकृत, सर्पतुल्य, नवीन विद्युन्माला के समान प्रकाशमान कुण्डलिनी, अपने ही मुख से उस स्वयम्भू लिंग के मुख को आवृत्त करके निद्रित रहती है | उसके प्रबोध की क्रियाएं अति कठिन तथा गोप्य हैं |
स्वाधिष्ठान चक्र: दूसरे चक्र का नाम स्वाधिष्ठान चक्र है | इसकी स्थिति लिंग के मूल में है | ब, भ, म, य, र, ल, ये छह वर्ण इसके दल हैं | इसका भी रक्त वर्ण है | इसकी अधिष्ठात्री देवी राकिणी हैं |
मणिपूरक चक्र: तीसरा चक्र मणिपूरक चक्र है जो नाभि के मूल में स्थित है | इसके ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, दस वर्ण, दस दल के रूप में शोभायमान हैं | इस चक्र की अधिष्ठात्री देवी परम धार्मिक लाकिनी देवी हैं |
अनाहत चक्र: चौथा चक्र अनाहत चक्र है जो ह्रदय में स्थित है | क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ये बारह वर्ण इसके अति रक्त वर्ण इसके द्वादश दल हैं | हृदयस्थल अति प्रसन्नता का स्थान है | वहाँ स्थित इस अनाहत चक्र में परम तेजस्वी, रक्तवर्ण बाणलिंग का अधिष्ठान है, जिसका ध्यान करने से इहलोक और परलोक में शुभ फल की प्राप्ति हुआ करती है | यहाँ पिनाकी नामक एक और सिद्ध लिंग स्थित है | इस चक्र की अधिष्ठात्री देवी काकिनी नामक देवी हैं|
विशुद्ध चक्र: पांचवें चक्र का स्थान कन्ठ (गला) है और उसे विशुद्ध चक्र कहते हैं | इसका रंग दमकते हुए स्वर्ण की तरह है (कुछ लोग इसे धूम्रवर्ण का भी बताते हैं) | अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, लृ, लृ्, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः, ये सोलह वर्ण इसके षोडश दल हैं | षोडश दलों के इस चक्र में छ्गलांड नामक सिद्ध लिंग है और शाकिनी इसकी अधिष्ठात्री देवी हैं |
आज्ञाचक्र: दोनों भौं के मध्य में छठा चक्र आज्ञा चक्र होता है | यह शुभ्र वर्ण का है और ह तथा क्ष युक्त इसके दो दल हैं | शुक्ल नाम के महाकाल इस चक्र के सिद्ध लिंग और हाकिनी नाम की महाशक्ति इस चक्र की अधिष्ठात्री देवी हैं |
सहस्त्रार चक्र: दो दल वाले आज्ञा चक्र के ऊपर, ब्रह्मरन्ध्र में ही इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का संगम स्थान, तीर्थराज प्रयाग है | प्राचीन मुनियों का कहना है कि इस संगम में स्नान करने से तत्काल साधक के अन्दर वो ज्ञान प्रकाशित होता है जिसके बाद वो मोक्ष का अधिकारी बन जाता है यानी आवागमन के बंधन से मुक्त हो जाता है | ब्रह्मरंध्र के ऊपर सहस्त्रदल कमल स्थित है |
उस स्थान को मुनि कैलाश के नाम से भी जानते हैं क्योंकि वहाँ देवाधिदेव महादेव नित्य विराजमान हैं | उनको नकुल भी कहते हैं | वह नित्य विलासी हैं | उनकी क्षय और वृद्धि कदापि नहीं होती अर्थात वह सदा एकरूप ही हैं | इस सहस्त्र दल कमल में जो साधक अपनी चित्तवृत्ति को एक बार लीन कर लेता है, उसकी चित्तवृत्ति निश्चल हो जाती है और वह अखंड ज्ञान रुपी परमात्मा की स्वरूपता का लाभ प्राप्त कर लेता है |
यह एक प्रकार की मुक्ति है | इस सहस्त्रदल कमल से निकलने वाली पीयूष धारा को जो योगी निरंतर पान करता है वह काल रुपी मृत्यु के समस्त नियमों को भंग करता हुआ ‘कालजयी’ हो जाता है | इसी सहस्त्रदल कमल में कुलरूपा कुण्डलिनी महाशक्ति का लय होने पर चतुर्विध सृष्टि का भी परमात्मा में लय हो जाता है और साधक परमात्मा के साथ एकत्व को प्राप्त होते हुए सर्वत्र व्याप्त होता है |
यह ब्रह्माण्ड की दुर्लभतम परिस्थितियों में से एक है| कोई भी गुरु सिर्फ षट्चक्र भेदन तक आपको निर्देशित और प्रेरित कर सकता है लेकिन (षट्चक्र जागरण के बाद) एक बार मार्ग प्रशस्त होने पर जब कुण्डलिनी जागती है तो उसके बाद से सहस्रार में परमशिव के मिलन तक के अनुभव को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता और ना ही दुनिया की कोई शक्ति उसे नियंत्रित या निर्देशित कर सकती है |
सहस्रार में परात्पर पुरुष के साथ कुण्डलिनी रुपी परमशक्ति का संगम वास्तव में ‘शिवशक्ति संयोग’ रुपी मुक्ति क्रिया कहलाती है | समस्त प्रकार के प्राप्य और अप्राप्य ऐश्वर्यों के साथ यही वास्तविक मुक्ति है |
लययोग में वर्णित इस अलौकिक रहस्य विज्ञान के लिए साधारण मनुष्य या दिव्यात्मा ही नही बल्कि मंत्रदृष्टा ऋषि भी कितने लालायित रहते थे इसका अंदाज़ा हमें ऋकसंहिता मंडल के चौतीसवें सूक्त के मन्त्रों से लग सकता है जहाँ इसकी महिमा बखान की गयी है |
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