भूत, प्रेत, छाया या कुछ और, सूक्ष्म जगत के अनसुलझे रहस्य
भूत प्रेत से सम्बंधित घटनाएं, दिन में तो हमारे मनोरंजन का साधन हो सकती हैं लेकिन रात में हमारे होश भी उड़ा सकती हैं खासतौर पर तब जब आप घर में अकेले हों | लेकिन डर का कारण हर बार भूत प्रेत नहीं होते |
कई बार कुछ ऐसी घटनाएं भी डरा जाती हैं जिनके घटित होने की कोई वजह या कारण नहीं समझ आता | तर्क-बुद्धि भी वहां असमर्थ होती है | ऐसी पैरानोर्मल घटनाओं को अक्सर सामान्य बुद्धि भ्रम समझती है या इसे किसी मस्तिष्कीय विकार से जोड़कर देखती है |
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लेकिन सामर्थ्यवान जानते हैं कि चेतन सत्ता के सूक्ष्म जगत में उतरने या सीमान्त जगत में मडराने आदि से भी ऐसी घटनाएं जन्म लेती हैं जिन्हें स्थूल जगत के नियमों के अनुसार समझना और समझाना दोनों कठिन होता है |
ऐसी ही एक घटना जर्मनी के म्यूनिख शहर की है | शहर की एक कंस्ट्रक्शन साईट पर काम चल रहा था | वहां काम करने वाले एक अभियन्ता (Engineer), एडरिच ने दोपहर के भोजन के लिए अपने घर का रुख किया | उस इंजिनियर का घर, कंस्ट्रक्शन साईट से अधिक दूर नहीं था | कार्यालय से निकल कर वह सीधा अपने मकान पर आया |
भोजन से पहले वह किसी काम से अपने शयन कक्ष में प्रवेश किया | लेकिन शयन कक्ष में प्रवेश करते ही उसके पैर ठिठक गए | वहाँ, उस कमरे में एक सर्वथा अपरिचित व्यक्ति को देख कर वह आश्चर्य में पड़ गया |
वह अपरिचित व्यक्ति एक स्टूल के सहारे उस कमरे की दीवार पर कोई चित्र टाँगने में व्यस्त था | अब उस इंजिनियर, एडरिच को क्रोध आ गया, आखिर बिना उसकी इजाज़त के वह अजनबी उसके कमरे में घुसा कैसे |
गुस्से में जैसे ही वह उसे डाँटने के लिए आगे बढ़ा, उसके पैरों की आवाज सुनकर वह अजनबी पीछे की ओर पलटा | उसका चेहरा देखते ही एडरिच भौचक्का रह गया | उसका गुस्सा अब काफ़ूर हो चुका था | उसका स्थान एक आश्चर्यमिश्रित भय ने ले लिया था क्योंकि दूसरी तरफ़ भी एडरिच ही था |
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अपने सामने एकदम हूबहू दूसरे एडरिच को देखकर एडरिच के होंठ बंद हो गए, वह स्तब्ध था | एक पल तक दोनों आमने सामने खड़े रहे लेकिन फिर उसका प्रतिरूप अचानक से गायब हो गया | उसके ग़ायब होने के बाद, एडरिच को जैसे होश आया हो, उसने दीवार पर टंगी उस तस्वीर (जिसे उसके प्रतिरूप ने अभी-अभी टांगा था) की तरफ़ ध्यान दिया तो हैरान रह गया |
दीवार पर टंगी तस्वीर भी एडरिच की ही थी | फिर उसने कमरे में फ़ैली हुई आस-पास की चीजों पर ध्यान देना शुरू किया | उसने अपने शयन कक्ष में ही अपना ड्राइंग बोर्ड भी रखा था | अचानक उसका ध्यान अपने ड्राइंग बोर्ड पर गया तो वह और भी विस्मय में पड़ गया |
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क्योंकि जिस नक़्शे को वह महीनो से बनाने का प्रयास कर रहा था लेकिन सफ़ल नहीं हो पा रहा था, वह नक्शा उसके ड्राइंग बोर्ड पर रखे कागज़ पर बना पड़ा था | एडरिच ने इस गुत्थी को समझने का काफी प्रयास किया लेकिन उसकी बुद्धि में उमड़ते-घुमड़ते तर्कों ने उसे हर बार निराश किया |
ऐसी ही मिलती-जुलती एक और घटना का वर्णन मशहूर परामनोविज्ञानी एवं मनोचिकित्सक डॉ ग्रिफ़िन ने अपनी पुस्तक ‘साइकिक पॉवर’ में किया है | उस पुस्तक में वर्णित यह घटना खुद उनसे ही सम्बंधित है |
डॉ ग्रिफ़िन बताते हैं कि प्रतिदिन सुबह से शाम तक अपनी क्लीनिक पर रोगियों को देखना, उनके दुःख-दर्द सुनकर उनका निदान ढूँढना और फिर शाम को घर लौट आना उनकी नित्य की दिनचर्या बन चुकी थी | एक दिन उनकी क्लीनिक में अप्रत्याशित भीड़ बढ़ गयी | आये हुए मरीज़ों को अब वह जल्दी-जल्दी देखने लगे |
उनके मन में विचार था कि आये हुए सारे रोगियों को आज ही देख लिया जाय तो अच्छा होगा | इसी वजह से उन्होंने दोपहर का भोजन भी नहीं लिया केवल कॉफी पी कर संतोष कर लिया | कॉफी पीने के बाद वह फिर से बीमार रोगियों को देखने में जुट गए |
धीरे-धीरे शाम का अँधेरा घिरने लगा लेकिन अभी भी पचीस के लगभग मरीज और बचे थे देखने के लिए | थोड़ा समय और बीता | डॉक्टर साहब अब तक बुरी तरह थक चुके थे | रात का आठ बज रहा था और उन्हें भूख भी लग रही थी लेकिन बाहर नज़रें घुमाने पर उन्हें पांच मरीज और दिखे | उन्हें आराम करने की नितांत आवश्यकता महसूस हो रही थी |
एक बार तो उनके मन में विचार आया कि इन पांच मरीजों को कल बुला लिया जाये, लेकिन फिर तुरंत ही उन्होंने सोचा कि इतनी देर तक उन लोगों को बिठाये रखने के बाद बिना देखे लौटा देना उचित नहीं होगा | इससे उन रोगियों को मानसिक वेदना होगी | इसलिए उन्होंने उन रोगियों को देख लेने का ही निर्णय लिया और पुनः अपने मरीजों की जीवन गाथा सुनने और सलाह देने में व्यस्त हो गए |
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जब सारे रोगी जा चुके थे तो उन्होंने दीवार पर टंगी घड़ी की ओर देखा, उसमे रात के साढ़े नौ बज रहे थे | थकावट से उनका बुरा हाल था | जैसे-तैसे उन्होंने अपनी क्लीनिक बंद की, गाड़ी स्टार्ट की और अपने घर की तरफ चल पड़े |
लगभग आधे घंटे बाद वह अपने घर के दरवाजे पर थे लेकिन दरवाजे के करीब आने पर उन्होंने देखा कि कमरे के अन्दर से प्रकाश निकल रहा था, जबकि उन दिनों उनके घर में उनके अलावा कोई नहीं रह रहा था | कमरे से प्रकाश निकलता देख कर एक क्षण को वो ठिठके, लेकिन फिर उन्होंने सोचा कि शायद सुबह निकलते वक़्त जल्दीबाजी में लाइट बुझाना भूल गए हों, इसलिए वह अब भी जल रही हो |
बहरहाल उनसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा था | थकावट से बदन टूट रहा था उनका | इसलिए जल्दी से ताला खोलकर वह कमरे में प्रवेश किये | कमरे में प्रवेश करते ही जैसे उनकी नज़र पलंग पर पड़ी वो चौंक गए |
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उनके सामने उनकी पलंग पर एक दूसरे डॉ ग्रिफ़िन लेटे हुए आनंद पूर्वक एक पुस्तक पढ़ रहे थे | डॉक्टर साहब पलंग के थोड़ा और पास आये और उन्होंने काफी ध्यान से उस लेटे हुए व्यक्ति को देखा | पता चला कि उन दोनों में जरा भी अंतर नहीं था |
अब डॉ ग्रिफ़िन असमंजस में पड़ गए थे | उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि आखिर उनका यह हमशक्ल कौन हो सकता है? यहाँ क्यों आया होगा ? और इतने साहस एवं सहजता से पुस्तक पढ़ने में तल्लीन कैसे हो सकता है? अभी वह इसी उधेड़बुन में पड़े थे कि अचानक उन्होंने देखा कि उनका वह प्रतिरूप बिस्तर पर से उठने लगा |
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और जैसे-जैसे वह प्रतिरूप बिस्तर से उठकर उनके पास आ रहा था वैसे-वैसे उसका अक्स धूमिल पड़ता जा रहा था | उनके पास पहुँचने के पहले ही, डॉ ग्रिफ़िन का वह प्रतिरूप पूरी तरह से गायब हो चुका था |
हर वो चीज जिन्हें हम देखते, सुनते, समझते व महसूस करते हैं, उन्हें ही वास्तविक मानते हैं लेकिन क्या हो अगर वो सब अवास्तविक या आभासी हों? हमारे समाज में कुछ लोग ऐसे हैं जो इस दुनिया को, जिसमे हम जीते है, आभासी या काल्पनिक मानते हैं लेकिन यह अधूरा तथ्य है |
वास्तव में इस दुनिया में कुछ भी अवास्तविक, आभासी या काल्पनिक है ही नहीं | ‘यहाँ सब कुछ वास्तविक है’ | कोई भी चीज हमारे लिए काल्पनिक या आभासी तब हो जाती है जब हम देश-काल (Time-Space) के बंधन में बंधी हुई किसी एक दुनिया में जीने लगते हैं और उसी को सत्य, बाकी सब को आभासी मानने लगते हैं |
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काल्पनिकता और अभासिकता एक बंधन है, जिसे माया रचती है | जबकि हम असीम है | हमारा न कोई आदि है न कोई अंत | आवश्यकता है केवल अपने उस विस्तार को समझने की, उसे अनुभव करने की जिसे गीता में भगवान ने स्पष्ट रूप से समझाया है |