पूर्वकाल की बात है, एक बार इन्द्र आदि समस्त देवता दैत्यों से पराजित और भयभीत होकर अपनी ऐश्वर्य नगरी, अमरावती पुरी से भाग कर अपने पिता महर्षि कश्यप के आश्रम की ओर आये । वहां उन्होंने अपनी कष्ट-कथा, अपने पिता कश्यप जी तथा माँ अदिति को सुनायी ।
भगवान सदाशिव में आसक्त-बुद्धि वाले कश्यप जी ने अपने पुत्रों यानि देवताओं को आश्वासन दिया और स्वयं परम हर्षपूरक भगवान विश्वनाथ की नगरी काशीपुरी की ओर चल दिये । वहां पहुंच कर उन्होंने गंगा जी में स्नान किया और अपना नित्य-नियम पूरा किया ।
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इसके पश्चात् शम्भु दर्शन के उददेश्य से एक शिव लिंग की स्थापना करके वे भगवान शिव के चरण कमलों का ध्यान करते हुए प्रसन्नतापूर्वक तप करने लगे । जब कश्यप जी को इस प्रकार तप करते हुए बहुत अधिक समय व्यतीत हो गया तो सत्पुरूषों के गति स्वरूप दीनबंधु भगवान शंकर उनके समक्ष प्रकट हुए ।
भक्त वत्सल भगवान शिव परम प्रसन्न तो थे ही, अतः वे अपने भक्त कश्यप जी से बोले “मुने! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, वर मांगो” । भगवान महेश्वर को देखते ही कश्यप जी हर्षमग्न हो गये, फिर विविध प्रकार से उन देवाधि देव की स्तुति कर उन्होंने कहा “हे नाथ ! महाबली दैत्यों ने देवताओं और यक्षों को पराजित कर दिया है, इसलिये शम्भो ! आप मेरे पुत्र रूप से प्रकट होकर देवताओं के लिये आनंद दाता बनिये” |
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कश्यप जी के ऐसा कहने पर सर्वेश्वर भगवान शंकर ‘तथास्तु’ कह कर, अपनी अर्धोन्मीलित नेत्रों के साथ वहीं अन्तर्धान हो गये । तब कश्यप जी भी प्रसन्नतापूर्वक् अपने आश्रम में वापस लौट आये । वहां उन्होंने सारा वृत्तान्त अपने पुत्रों यानी देवताओं से कह सुनाया । भगवान शंकर के अवतार लेने की बात जान कर देवताओं का मन प्रसन्नता से भर आया । वे उन अशरणशरण दीनबंधु भक्त वत्सल भगवान शिव के अवतार-धारण की प्रसन्नतापूर्वक प्रतीक्षा करने लगे ।
कुछ समय के पश्चात भगवान शंकर ने अपना वचन सत्य करने के लिये कश्यप द्वारा सुरभी के गर्भ से ग्यारह रूद्रों के रूप में अवतार धारण किया । भगवान के इन रूद्र अवतारों से सारा जगत शिवमय हो गया । कश्यप मुनि के साथ-साथ सभी देवता हर्ष विभोर हो गये।
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उन एकादश रूद्रों के नाम हैं-कपाली, पिड़गल, भीम, विरूपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, अहिर्बुध्न्य, शम्भु, चण्ड तथा भव । ये एकादश रूद्र सुरभी के पुत्र कहलाते हैं | ये सुख के आवास-स्थान हैं तथा देवताओं की कार्य सिद्धि के लिये शिव रूप से उत्पन्न हुए हैं-
कश्यप के पुत्र रूप में उत्पन्न ये एकादश रूद्र महान बल-पराक्रम से सम्पन्न थे, इन्होंने संग्राम में दैत्यो का संहार कर इन्द्र को पुनः स्वर्ग का अधिपति बना दिया । ये शिव रूपधारी एकादश रूद्र अब भी देवताओं की रक्षा के लिये स्वर्ग में विराजमान रहते हैं ।
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भगवान रूद्र मूलतः तो एक ही है तथापि जगत के कल्याण के हेतु अनेक नाम-रूपों में अवतरित होते हैं । मुख्य रूप से ग्यारह रूद्र है । विभिन्न पुराणों में इनके नाम में भी अंतर मिलता है ।
रूद्रों के साथ उनकी सहधर्मिणी रूद्राणियों का भी वर्णन आता है । श्रीमद भागवत में ग्यारह रूद्रों के नाम इस प्रकार आये हैं
- मन्यु
- मनु
- महिनस
- महान
- शिव
- ऋतध्वज
- उग्ररेता
- भव
- काल
- वामदेव और
- धृतव्रत