भगवान श्री कृष्ण के बारे में अक्सर लोगों को भ्रम हो जाता है कि यही महाविष्णु हैं? या क्या यही सर्वशक्तिमान परमेश्वर हैं? कुछ महानुभावों ने परमेश्वर के तीन प्रमुख तत्त्व माने हैं-‘विष्णु’ ‘महाविष्णु’ और ‘महेश्वर’ । भगवान् श्रीकृष्ण में इन तीनों का समावेश है ।
ब्रह्मवैवर्तपुराण (श्रीकृष्णखण्ड) में आया है कि जब पृथ्वी भाराक्रान्त होकर रचयिता ब्रह्मा जी के शरण में जाती है तो ब्रह्मा जी देवताओं को साथ लेकर महेश्वर श्रीकृष्ण के गोलोक धाम में पहुँचते हैं । नारायण ऋषि भी वहीँ उनके साथ रहते हैं । ब्रह्मा जी, पृथ्वी तथा देवताओं की प्रार्थना पर भगवान् श्रीकृष्ण अवतार ग्रहण करना स्वीकार करते हैं, तब अवतार का आयोजन होने लगता है ।
मृत्यु के बाद अपनों का प्राकट्य, एक रहस्यमय अनुभव
अकस्मात् एक दिव्य मणि-रत्न- खचित, अप्राकृतिक तत्वों से बना हुआ अपूर्व सुन्दर रथ दिखायी पड़ता है । उस रथ पर शंख-चक्र-गदा-पद्य धारण किये हुए महाविष्णु विराजित दिखलाई पड़ते हैं । वे महाविष्णु रथ से उतरकर महेश्वर श्रीकृष्ण के शरीर में विलीन हो जाते हैं-‘गत्वा नारायणो देवो विलीनः कृष्णविग्रहे ।’
परंतु महाविष्णु के विलीन होने पर भी श्रीकृष्णावतार का स्वरूप पूर्णतया नहीं बना, तब एक दूसरे स्वर्ण रथ पर आरूढ़ पृथ्वी पति श्रीविष्णु वहाँ दिखायी दिये और वे भी श्रीराधिकेश्वर श्रीकृष्ण के शरीर में विलीन हो गये-‘स चापि लीनस्तत्रैव राधिकेश्वरविग्रहे ।’ अब अवतार के लिये पार्थिव मानुषी तत्त्व की आवश्यकता हुई ।
नारायण ऋषि वहाँ थे ही, वे भी उन्हीं में विलीन हो गये और यों महाविष्णु-विष्णु-नारायण रूप स्वयं महेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने अवतार लिया तथा नारायण के साथी नर ऋषि अर्जुन रूप से अवतार लीला में सहायतार्थ अवतरित हुए ।
जन्माष्टमी के पर्व की महिमा एवं भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य
श्रीमदभागवत के अनुसार कंस, जरासन्ध, व अन्य असुर रूप दुष्ट राजाओं के भार से आक्रान्त दुःखित पृथ्वी गोरूप धारण करके करूण-क्रन्दन करती हुई ब्रह्माजी के पास जाती है और ब्रह्माजी भगवान् शंकर तथा अन्यान्य देवताओं को साथ लेकर क्षीरसागर पर पहुँचते हैं और क्षीराब्धिशायी पुरूष रूप भगवान् का स्तवन करते हैं ।
ये क्षीरोदशायी पुरूष ही व्यष्टि पृथ्वी के राजा है, अतएव पृथ्वी अपना दुःख इन्हीं को सुनाया करती हैं । ब्रह्मादि देवताओं के स्तवन करने पर ब्रह्माजी ध्यानमग्न हो जाते हैं और उन समाधिस्थ ब्रह्माजी को क्षीराब्धिशायी भगवान् की आकाशवाणी सुनायी देती है ।
तदनन्तर वे देवताओं से कहते हैं- ‘देवतओ ! मैंने भगवान् की आकाशवाणी सुनी है, उसे तुम लोग मुझसे सुनो और फिर बिना विलम्ब इसी के अनुसार करो । हम लोगों की प्रार्थना के पूर्व ही भगवान् पृथ्वी के कष्ट को जान चुके हैं ।
जब भगवान स्वयम मांगने आये राजा बलि से
वे ईश्वरों के भी ईश्वर अपनी कालशक्ति के द्वारा धरा का भार हरण करने के लिये जब तक पृथ्वी पर लीला करें, तब तक तुम लोग भी यदुकुल में जन्म लेकर उनकी लीला में योग दो । वे परम पुरूष भगवान् स्वयं वसुदेव जी के घर में प्रकट होंगे । उनकी तथा उनकी प्रियतमा (श्रीराधाजी)- की सेवा के लिये देवागनाएँ भी वहाँ जन्म धारण करें ।’
क्षीरोदशायी भगवान् के इस कथन का भी यही अभिप्राय है कि ‘साक्षात् परम पुरूष स्वयं भगवान् प्रकट होंगे, वे क्षीराब्धिशायी नहीं ।’ अतएव स्वयं पुरूषोत्तम भगवान् ही, जिनके अंशावतार नारायण हैं, वसुदेव जी के घर प्रकट हुए थे ।
देवकी जी की स्तुति से भी यही सिद्ध है-‘हे आद्य ! जिस आपके अंश (पुरूषावतार)- का अंश (प्रकृति) है, उसके भी अंश (सत्त्वादि गुण)-के भाग (लेशमात्र)-से इस विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय हुआ करते हैं, विश्वात्मन् ! आज मैं उन्हीं आपके शरण हो रही हूँ ।’