प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर जर्मनी को मित्र राष्ट्रों के साथ बहुत ही अपमानजनक संधियों पर हस्ताक्षर करने पड़े थे | दस्तावेज़ बताते हैं कि अपने आप को आर्य जाति का वंशज समझने वाले एडोल्फ हिटलर (जो की प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की तरफ से एक सैनिक की भांति लड़ चुका था) के मन में अपमान की ज्वाला धधक रही थी |
नात्ज़ी यहूदियों से नफ़रत करते थे यहूदियों के प्रति इसी नफ़रत ने हिटलर से यहूदियों के खिलाफ ऐसे क्रूर कर्म करवाए जिनकी इतिहास में मिसाल मिलना मुश्किल है | इतिहास में हिटलर का चरित्र कुछ रहस्यमय है | ज्यदातर लोग बताते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मन कुछ ऐसा ‘रहस्यमय’ बना रहे थे जो पासा पलट सकता था लेकिन वो रहस्यमय क्या था इसके बारे में अभी तक सिर्फ कयास ही लगाये जा सके हैं |
कुछ लोग इसका नाम ‘डी ग्लोके’ या ‘The Bell’ बताते हैं | ये एक खास किस्म का गुप्त हथियार था | सबसे पहले इसके बारे में एक पोलिश पत्रकार एवं लेखक “इगोर विटकोवस्की” ने दुनिया को बताया था | रहस्य के आवरण से घिरा डी ग्लोके बहुत जल्द एक जादुई हथियार के रूप में प्रसिद्ध हो गया |
हिटलर की जीते जी वो तथाकथित गुप्त हथियार कभी अस्तित्व में न आ सका | विटकोवस्की ने बताया, पहली बार अगस्त १९९७ में एक अज्ञात पोलिश व्यक्ति ने उस तथाकथित दस्तावेज़ की प्रतिलिपि उसको उपलब्ध कराई |
उसने एक पूर्व नात्ज़ी सीक्रेट सोसाइटी (SS) ऑफिसर जैकब स्पोरेनबर्ग का ज़िक्र किया जिससे पूछताछ में उसे पहली बार डी ग्लोके का नाम पता चला | ऐसा कहा जाता है कि डी ग्लोके एक तरह का टेक्नोलॉजिकल डिवाइस था जो की एक बहुत ही कठोर और भारी धातु का बना था |
लगभग १२ से १५ फीट लम्बा और ९ फीट चौड़ा वो डी ग्लोके दिखने में एकदम किसी मंदिर के बड़े से घंटे जैसा था | विटकोवस्की ने अपने एक साक्षात्कार में कुक को बताया कि प्रगट रूप से इस डिवाइस में दो, एक दूसरे की विपरीत दिशा में घुमने वाले, सिलेंडर लगे हुए थे जो की एक एक पारे जैसे द्रव्य से भरे हुए थे | ये रहस्यमय द्रव्य बैगनी रंग का था |
इस धातु-द्रव का कूट नाम (Code Name) Xerum-525 था। जितने अतिरिक्त पदार्थ (जिनमे थोरियम एवं बेरिलियम के पैराकसाइड भी थे) इस एक्सपेरिमेंट में प्रयुक्त होने थे उनको हलकी धातुएं कहा गया |
विटकोवस्की ने बताया कि डी ग्लोके जब एक्टिवेट (सक्रिय) होता था तो उसका प्रभाव क्षेत्र उसके आस-पास ४९० फीट से लेकर ६६० फीट तक होता था | इस प्रभाव क्षेत्र के भीतर, डी ग्लोके के सक्रिय होने के बाद, क्रिस्टल पिघल कर जैवीय उतकों में बदल जाते, शरीर के अन्दर का रक्त गाढ़े थक्कों में बदल कर अलग-अलग हो जाता और पौधे विघटित होकर एक ग्रीस जैसे गाढ़े चिपचिपे पदार्थ में बदल जाते |
विटकोवस्की ने आगे यह भी जोड़ा कि इस रहस्यमय प्रयोग पर काम करने वाले सात प्रमुख वैज्ञानिकों में से पांच वैज्ञानिको की खौफनाक मौत इन्ही प्रयोगों के दौरान हुई। डी ग्लोके का क्या हुआ ? वो पूरी तरह से कभी बन पाया या नहीं ? और इस पुरे प्रयोग में इस्तेमाल हो रही अद्भुत टेक्नोलॉजी क्या पर-ग्रही थी ? ये सब कुछ आज भी रहस्य है |
एक नए खुलासे में फिर ये पता चला है कि हिटलर दूसरी दुनिया के जीवों के संपर्क में था | यही नहीं वो ऐसे एयरक्राफ्ट बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहा था जो यू. एफ. ओ. की तकनीकि से बना हो और पूरी दुनिया में उसकी कोई काट न हो | इन सब काम को अपने अंजाम तक पहुचाने में हिटलर की “सीक्रेट सोसाइटी” अपने पूरे जी जान से जुटी थी |
ऐसा कहा जाता है की हिटलर की नात्ज़ी पार्टी को जो शुरुआती फण्ड मिलता था उसे थ्यूल सोसाइटी दिया करती थी | इस सोसाइटी का पूरा नाम “अल्टिमा-थ्यूल” था जो कभी उत्तरी यूरोप में प्राचीन यूनान और रोमन किंवदंतियों में एक देश हुआ करता था |
एक जर्मन स्टडी ग्रुप ने ये दावा किया है कि वो खोया थ्यूल राज्य, आर्यन जाति का उद्गम स्थल था | शोधकर्ताओं का का मानना है कि थ्यूल सोसाइटी के वरिष्ठ लोग ये मानते थे की दूसरी दुनिया के पर-ग्रही लोग (एलियंस) धरती के नीचे रहकर अपने काम-काज को अंजाम दे रहे हैं |
उन्होंने ही “व्रिल” योजना बनाई थी जिसमे यू. एफ. ओ. जैसी तकनिकी का इस्तेमाल करके भविष्य के विमान बनाये जाने थे और वे इसके बेहद करीब पहुँच गए थे |
हिटलर और उससे जुड़े रहस्य आज भी दुनिया को सम्मोहित किये हुए हैं | काल, दबे पाँव, इन रहस्यों का खुलासा भविष्य में करेगा लेकिन इतना तो तय है कि द्वितीय विश्व युद्ध की ये रहस्यमय कड़ियाँ जब भी जुड़ेंगी, धमाका करेंगी |
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