ब्रह्माण्ड के विभिन्न लोकों की रचना करने वाले विधाता के भ्रम को जब मुरलीधर श्रीकृष्ण ने दूर किया

ब्रह्माण्ड के विभिन्न लोकों की रचना करने वाले विधाता के भ्रम को जब मुरलीधर श्रीकृष्ण ने दूर कियाएक बार ब्रह्मा जी को भी श्री कृष्ण के परमेश्वर होने पर संदेह हुआ | जीवों को माया के बन्धन में बाँधने वाले ने ऐसी लीला दिखाई कि विधाता भी विह्वल हो गए | इस कथा प्रसंग में अवतारों के आनन्त्य-असंख्य होने का परिज्ञान होता है । किं बहुना परम कृपालु श्रीहरि किन-किन स्वरूपों को हमारे लिये स्वीकार करते हैं, यह अनुभव भी एक भक्त हृदय को ही होता है ।

महामुनीन्द्र व्यासनन्दन श्रीशुकदेव जी कहते हैं, ‘हे उत्तरानन्दन परीक्षित ! सावधान होकर इस रहस्यमयी लीला का आस्वादन करो ।’ नन्दनन्दन परमान्दकन्द मुरली मनोहर श्याम सुन्दर श्रीकृष्ण चन्द्र अपने सखा ग्वाल-बालों की, साक्षात् मृत्यु रुपी अघासुर के मुख से रक्षा करके उन्हें यमुना-पुलिन (यमुना पुल) पर ले आये और उनसे कहने लगे-‘हे मेरे सखाओ ! यह कालिन्दी पुलिन यमुना तट कितना सुरम्य है ।

यहाँ हम लोगों के क्रीडा करने योग्य समग्र सामग्री विद्यमान है । यहाँ गददे के समान अत्यन्त सुकोमल और स्वच्छ बालुका-यामुनरेणु बिछी है । वृक्षों पर बैठे पक्षी अत्यन्त मधुर ध्वनि कर रहे हैं, दूसरी ओर विकसित कमलों की सुगन्ध से आकृष्ट होकर भ्रमर गुंजार कर रहे हैं । मानो ये पक्षी और मधुप हमारा स्वागतगान कर रहे हैं ।

काकभुशुंडी जी एवं कालियानाग के पूर्व जन्म की कथा

समय अधिक हो गया है, हम लोग को भूख भी लगी हैं, इसलिए हमें यहीं भोजन कर लेना चाहिये । हमारे गोवत्स-बछड़े पास में ही पानी पीकर धीरे-धीरे घास चरते रहें ! श्रीठाकुर जी के प्रिय सखाओं ने, ग्वालबालों ने कहा, “हाँ कन्हैया ! ऐसा ही किया जाय” । उसके बाद उन्होंने गोवत्सों को जल पिलाकर हरी-हरी घासों में छोड़ दिया ।

समस्त सखा श्रीभगवान् के सामने मण्डल बनाकर बैठ गये । सबके मध्य में सबके प्यारे दुलारे, आँखों के तारे श्रीकृष्णचन्द्र जी विराज रहे थे । सखाओं के नेत्र श्रीहरि के मुख को निहारकर आनन्द से प्रफुल्लित हो रहे थे । यद्यपि सबका प्रभु के सम्मुख होना सम्भव नहीं था तथापि श्रीहरि की अचिन्त्य लीला शक्ति ने सबके सम्मुख सबके सामने लीलापुरूषोत्तम श्रीकृष्णचन्द्र को प्रकट कर दिया ।

ब्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णचन्द का मंगलमय मुखारविन्द प्रत्येक ग्वाल-बाल की ओर ही था । प्रत्येक सखा को प्रतीत हो रहा था मानो ‘हमारा प्राणधन गोपाल हमारी ही ओर स्नहेपूर्ण दृष्टि से देखकर, स्नेह-सौहार्द्र की अजस्त्र धारा प्रवाहित करते हुए अवस्थित है | आज ग्वाल-बालों के भोजनपात्र भी अनोखे ही थे । कुछ ने कमल के पत्र आदि को लेकर अपना भोजन पात्र निर्मित किया था ।

देवासुर संग्राम के बाद देवताओं के घमण्ड को चूर-चूर करने वाले परब्रह्म परमेश्वर

कुछ ने पवित्र कदल-पत्र को भोजनपात्र बनाया था । कुछ ग्वाल-बालों ने प्रक्षालित प्रस्तर खण्डों को ही अपने सामने भोजनपात्र के लिये स्थापित कर लिया था । श्रीकृष्णचन्द ने अपनी मधुर वाणी से कहा “हे समुज्जवल निष्क-पदक धारण करने वाले मेरे बन्धुओ ! अपने-अपने छींकों से सुन्दर सुस्वादु भोजन-सामग्री निकालो” |

अपने प्राणसखा श्रीकृष्णचन्द के स्नेहिल वचनों को सुनकर सबने अपने-अपने छींक से दही, भात, मीठा, मोदक, नमकीन, बड़ा, शाक-भाजी, चटनी, अचार, मुरब्बा पायस आदि अनेक प्रकार के व्यंजन निकाले और उन्हें पत्तों और पत्थरों का पात्र बनाकर भोजन करने लगे । सभी अपने-अपने भोजनों के स्वाद का वर्णन करते थे ।

इस प्रकार हँसते-हँसाते भोजनानन्द का सब आनन्द ले रहे थे । इस प्रकार सुखसागर में निमग्न बालकवृन्द भोजन करते हुए असीम आनन्द में विभोर थे । स्वयं करूणा-वरूणालय जगदीश्वर कन्हैया जिनके सखा के रूप में नित्य वर्तमान है, उनके सुख की तुलना किसी सुख से हो ही कैस सकती है?

ऊपर आसमान दिव्य विमानों से भर गया । इस अभूतपूर्व अप्रितम मनोहर छवि का दर्शन देव समाज अपने सहज निमेषोन्मेषरहित अपलक नेत्रों से-अतृप्त नेत्रों से कर रहा था । सर्वयज्ञभोक्ता का यह भोजन-ऐसा वात्सल्य-रससम्पुटित स्वच्छन्द भोजनकालीन विहार क्या बार-बार देखने को मिल सकता है?

भूत प्रेत की रहस्यमय योनि से मुक्ति

अचानक एक सखा ने आश्चर्य से कहा-हे कन्हैया ! भैया ! हामरे गोवत्स कहाँ चले गये? फिर तो सबके हाथ के ग्रास हाथ में ही रह गये । सबकी दृष्टि उस अदूरवर्ती तृणश्यामल भूभाग पर चली गयी, जहाँ अभी-अभी कुछ क्षण पूर्व समस्त गोवत्स स्वच्छन्द विचरण कर रहे थे, परंतु अभी वहाँ एक भी न था । सब-के-सब न जने कहाँ चले गये ।

श्रीहरि के समस्त सखा अपने प्यारे कन्हैया की ओर भयसन्त्रस्त दृष्टि से देखने लगे । उनकी दृष्टि से अनेक प्रकार के भाव अभिव्यक्त हो रहे थे । भैया कन्हैया! आपको छोड़कर तो बछड़े कभी कहीं नहीं जाते थे । वे तो हमारी ही तरह आपका मंगलमय दर्शन करके आनन्दानुभूति करते थे । आज कहाँ चले गये? कैसे चले गये? क्यों चले गये?

एक ने कहा “भैया! कन्हैया! अघासुर आपने मारा और हम लोग उसे यों ही छोड़कर चले आये । हम लोग को उसे जला देना चाहिये था । सर्प तो हवा चलने पर स्वयं जीवित हो जाते हैं, कहीं जीवित होकर उसने हमारे गोवत्सों को अपना ग्रास तो नहीं बना लिया होगा ?

उस समय अपने सखाओं के मन, प्राण और इन्द्रियों को शीतल करते हुए, उन्हें आश्वस्त करते हुए करूणामय श्रीकृष्णचन्द ने कहा “हे मेरे सखाओ ! तुम लोग निश्चिन्त हो जाओ, भोजन करना मत छोड़ा । गोवत्सों को तो मैं अकेला ही जाकर लाता हूँ” | यहाँ पर आये संस्कृत के श्लोक में श्रीकृष्ण जी को ‘अस्य भीमयम्’ कहा गया है ।

इसका अर्थ यह है कि इस संसार के भी जो भय हैं-काल आदि, उनको भी भय प्रदान करने वाले श्रीकृष्णचन्द भगवान् हैं अर्थात् वे स्वतः ही सबके भय को समाप्त करने वाले हैं । इस प्रकार अपने सखाओं को आश्वस्त करके, अपने हाँथ में पकड़े भोजन के ग्रास को अपने मुख में डालने के बाद, श्रीहरि सखाओं के बछड़ों को खोजने के लिये चल पड़े |

नल और दमयन्ती के पूर्वजन्म की कथा

चतुर्मुख श्रीब्रह्माजी पहले से ही आकाशपथ में समुपस्थित थे । कालवश उन्हें, उस समय, श्रीकृष्ण के परब्रह्म होने पर महान कौतूहल हुआ | उन्होंने पहले तो बछड़ों को और फिर गोपाल कृष्ण के गोवत्सों को खोजने के लिये जाने पर ग्वाल-बालों का भी अपहरण करके अन्यत्र (दूसरे ही आयामों के लोक में) ले जाकर स्थापित कर दिया । इसके बाद स्वयं अन्तर्धान हो गये ।

विश्व के समस्त ज्ञान-विज्ञान के जो उत्स हैं, वे सर्वज्ञशिरोमणि आज गोवत्सों की गतिविधि को नहीं जान पाये, उनक पता नहीं लगा पाये और अन्ततः निराश होकर यमुनापुलिन पर आ गये । वहाँ किसी सखा को न देखकर एक-एक का नाम लेकर पुकारने लगे ।

श्रीदामा, सुबल, तोककृष्ण, भद्रसेन, अर्जुन, पयोद, चन्दन, मंगल, मधुमंगल आदि का नाम ले-लेकर यशोदानन्दन करूण स्वर में उच्च स्वर से बुलाने लगे, परंतु कहीं से कोई प्रत्युत्तर नहीं प्राप्त हुआ | आखिर वो इस दुनिया में थे ही कहाँ | अन्त में लीलाभिनय छोड़कर श्रीभगवान् अपने विश्ववित् रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं । गोवत्स, ग्वाल-बाल कहाँ हैं, वे कैसे गये, क्यों गये और उन्हें कौन ले गया, क्षण मात्र में सब जान गये ।

करूणामय, वृजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णचन्द ने सोचा ‘गोधूलिवेला में जब मैं घर जाऊँगा, तब मेरी वात्सल्यमयी मैया आनन्द और उत्सा से मेरा स्वागत करेगी । उस समय मेरे सखाओं की माताएँ भी अपने-अपने वात्सल्यभाजन पुत्रों को देखना चाहेंगी । गोवत्सों की माताएँ-गायें भी अपने वत्सों की दिदृक्षा में हम्बा-रव से अपने लालों को पुकारकर अपने स्तनों से पयःक्षरण करती हुई दौड़ेंगी ।

उस समय ग्वाल-बालों और वत्सों को न देखकर व्रज में कोहराम मच जायगा, व्रज में करूणा की नदी बह जायगी । अहा! उस समय कितना कारूणिक दृश्य उपस्थित होगा? हा हन्त ! उस समय मैं उन्हें कैसे देख पाऊँगा? इतना सोचते ही विश्वकृदीश्वर-विश्वस्रष्टाओं के भी ईश्वर परमात्मा श्रीकृष्णचन्द ने अभूतपूर्व चमत्कार किया ।

उसी समय श्रीहरि के अनेक अवतारों का, स्वरूपों का, जड़-चेतन के रूप में प्राकट्य हो गया । सहसा लाखों स्वरूपों में श्रीहरि प्रकट हो गये । इन अवतारों के परिगणन करने की क्षमता सहस्रवदन श्रीशेष और अनन्तवदना वाग्वादिनी श्रीशारदा में भी नहीं है फिर अन्यों की भौतिकी और रूद्र बुद्धि के विषय में तो सोचना ही व्यर्थ है ।

श्रीशुक, श्रीव्यास, श्रीनारद, और श्रीसूत सब एकस्वर में कहते हैं-अवतारा ह्यासंख्येयाः।’ श्रीब्रह्मा के द्वारा अपहृत ग्वाल-बाल और गोवत्स ही नहीं प्रकट हुए बल्कि स्वयं श्रीकृष्ण ने ही स्वयं को दो रूपों में प्रकट कर दिया । बछड़ों एवं ग्वाल-बालों की माताओं और श्रीब्रह्मा को भी आनन्दसिन्धु में निमग्न करने के लिये असंख्य ग्वाल-बाल एवं राशि-राशि अवतरित हो गये ।

बलिहारी है नाथ! आपकी, इस अदभ्र करूणा की! इस अप्रतिम बाल्यलीला-विहार की ! असीम-अपरिमित अवतरण की ! धन्य है ! धन्य है ! उस समय अनेक गोपशिशुओं, अनेक गोवत्सों, लाखों गोचारण की छड़ियों, लाखों वंशियों, लाखों घुँघरूओं, लाखों लाल, पीले, हरे श्वेत, नीले वस्त्रों, लाखें मुकुटों, लाखों छीकों, लाखों श्रृड़़गों आदि के जड़-चेतनात्मक रूपों में ठाकुर जी के अवतार हो गये ।

श्रीहरि के अनन्त असंख्या अवतारों का इससे बढ़कर उदाहरण एवं प्रमाण और क्या हो सकता है? श्रीशुकदेव जी ने कहा “परीक्षित् ! वे बालक और बछड़े संख्या मे जितने थे, जितने छोटे-छोटे उनके शरीर थे, उनके हाथ-पैर जैसे-जैसे थे, उनके पास जितनी और जैसी छड़ियाँ, सिंगी, बाँसुरी, पत्ते और छीके थे; जैसे और जितने वस्त्राभूषण थे, उनके शील, स्वभाव, गुण, नाम, रूप और अवस्थाएँ जैसी थीं; जिस प्रकार के खाते-पीते और चलते थे, ठीक वैसे ही और उतने ही रूपों में सर्वस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गये ।

उस समय ‘यह सम्पूर्ण जगत् विष्णुरूप है’-यह वेदवाणी मानो मूर्तिमती होकर प्रकट हो गयी । भगवान् कृष्ण की यह लीला देखकर चतुर्मुख श्रीब्रह्मा जी आनंद से विह्वल हो गए, साथ ही उन्हें अपने कृत्य पर अत्यंत लज्जा आई | वे तुरंत ही बालरूपधारी श्री कृष्ण के समक्ष प्रकट हुए | उन्होंने उनकी स्तुति की और उनसे अपने कृत्य के लिए क्षमा मांगी और उनके गोवत्सों, ग्वालबालों तथा सखाओं को उन्हें वापस कर दिया |

 

 

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