वर्तमान समय में वैज्ञानिकों ने लगभग यह मान लिया है कि पृथ्वी स्वयं एक प्रकार की चुम्बक है | पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव, उसका उत्तरी सिरा और उसका दक्षिणी ध्रुव, दक्षिणी सिरा दोनों उसके दो शक्तिशाली केन्द्रित स्थान है ।
वैज्ञानिकों के लिए यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं कि पृथ्वी ही नहीं बल्कि सूर्य भी एक चुम्बक की तरह व्यवहार करता है, और यदि यहाँ पर यह कहा जाये कि मनुष्य या उसकी जीवन-शक्ति भी एक प्रकार का विद्युत चुम्बकीय शक्ति ही है तो शायद कुछ गलत नहीं होगा ।
सूर्य के 11 वर्षीय चक्र में जब सूर्य कलंकों (Sun Spots) की तीव्रता अत्यधिक होती है और पृथ्वी पर चुम्बकीय आँधियाँ आने लगती हैं तो मनुष्य जीवन उससे बुरी तरह प्रभावित होता है ।
डॉ. क्रिट्ज आदि वैज्ञानिकों ने अनेक परीक्षणों से यह सिद्ध किया है कि विद्युत-चुम्बकीय आँधियों के समय जन्तु-जगत अपना सारा मानसिक सन्तुलन खो देता है जो इस बात का द्योतक है कि सूर्य के, जीवन या विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र में हलचल के साथ पृथ्वी के जीवन या विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र में हलचल शुरू हो जाती है ।
अगर हम बात करें कुण्डलिनी शक्ति के विज्ञान की तो इसके अंतर्गत पूरी सुषुम्ना नाड़ी को अत्यधिक प्रचण्ड क्षमता वाला चुम्बक माना गया है जिसका उत्तरी सिरा मस्तिष्क के ऊपरी भाग में स्थित “सहस्रार चक्र” है और दक्षिणी सिरा गुदा द्वार पर स्थित मूलाधार चक्र है |
नाभि को सूर्य-चक्र का स्थान माना जाता है | मूलाधार चक्र पृथ्वी का प्रत्निधित्व करता है, जो स्थिति ब्रह्मांड में सूर्य के साथ पृथ्वी की, अर्थात् 23 डिग्री झुकी हुई, है वही स्थिति नाभि के साथ मूलाधार चक्र की है ।
जिस प्रकार से सूर्य में हीलियम, और हाइड्रोजन के संलयन से अपार ऊर्जा उत्पन्न होती है उसी प्रकार से मूलाधार चक्र स्थित त्रिकोण तत्व ही नाभि (सूर्य-चक्र) से प्राप्त ऊर्जा को विद्युत चुम्बकीय रूप “प्रेरणा” या जीवन शक्ति के रूप में बदलता रहता है ।
जब तक मूलाधार स्थित प्रचंड शक्ति सोई रहती है, वहां स्थित ‘जनरेटर’ से काम या सांसारिक इच्छाओं और भोगों की पूर्ती का ही क्रिया-व्यापार चलता रहता है और मनुष्य अधोगामी स्थिति में बना रहता है | लेकिन यदि वहां स्थित उस प्रचंड शक्ति को विभिन्न योग साधनाओं द्वारा कम्पित करके ऊर्ध्वमुखी कर लिया जाता है तो सुषुम्ना प्रवाह के अन्दर के दिव्य तन्तु उत्तेजित और क्रियाशील हो उठते हैं, जिससे कुण्डलिनी के सहस्रार में मिलन की क्रिया सम्पन्न होती है ।
यह अवस्था दिव्य ईश्वरीय शक्तियों से संपर्क एवं अनुभूति की होती है, साथ ही साथ ऊर्ध्वमुखी लोकों के प्राप्ति का साधन भी । मानवीय प्राण-शक्ति जो कि एक प्रकार की विद्युत-चुम्बकीय शक्ति होती है उसे यदि यौगिक क्रियाओं जैसे प्राणायाम और ध्यान साधनाओं द्वारा नियन्त्रित कर लिया जाये तो सूर्य की उत्तरायण अवस्था में, जबकि पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव सक्रिय होता है, वहाँ से निसृत होने वाली एक प्रचंड विद्युतचुम्बकीय रेखा द्वारा ब्रह्माण्ड के ऊर्ध्व लोकों में गमन किया जा सकता है ।
पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव से अन्तरिक्ष के कुछ विशेष ग्रह या नक्षत्रों का सम्बन्ध होता है, इस बात को अब विज्ञान भी मानता है । यह तथ्य जिन वैज्ञानिक धारणाओं पर आधारित है उनका वर्णन, अमेरिका के सबसे बड़े प्रकाशकों में से एक ‘दी ग्रोलिएर’ (The Grolier) द्वारा प्रकाशित पुस्तक श्रृंखला ‘दि बुक ऑफ पापुलर साइंस’ (The Book of Popular Science) के सातवें भाग में किया गया है |
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ये सारी पुस्तकें Internet पर उपलब्ध हैं | एक बार इन्हें जरूर पढ़ना चाहिए | इस पुस्तक में पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र और सूर्य की प्रचंड ऊर्जा के कारणों द्वारा, पृथ्वी के दोनों ध्रुवों में एक ‘ध्रुव-प्रभा’ के निर्माण का रोमाँचकारी वर्णन दिया हुआ है । इन ध्रुव प्रभाओं (अरोरल-लाइट) के बारे में आज का आधुनिक विज्ञान जितना जान सका है वहां तक वो सनातन धर्म के ग्रन्थ कौषीतकी ब्राह्मणोपनिषद् के महान् ज्ञान की पुष्टि ही करता है ।
इस पुस्तक में बताया गया है कि किस प्रकार से पृथ्वी के दोनों ध्रुवों पर प्रचण्ड चुम्बकीय विक्षोभ होने के कारण पृथ्वी के उस क्षेत्र में न केवल आकस्मिक परिवर्तन उत्पन्न होते रहते हैं बल्कि आविष्ट कारणों की उपस्थिति में वहां चित्र-विचित्र प्रकार की रश्मियों को उत्पन्न करने वाले प्रकाश भी पैदा होते रहते हैं । इस प्रकाश प्रभा को उत्तर में “अरोरा बोरीयेलिस” तथा दक्षिण में “अरोरा आस्ट्रेलिया” कहते हैं ।
इसका उद्गम बिलकुल ध्रुवीय प्रदेश में ही होता है और इनकी उत्पत्ति का स्रोत भी, सूर्य व चन्द्रमा को माना गया है । मन को भारतीय दर्शन में चन्द्रमा से और प्राण को सूर्य से संबोधित किया गया है इससे प्रतीत होता है कि मनुष्य की जीवन शक्ति और ध्रुव-प्रभा की रासायनिक बनावट में कोई बड़ा अन्तर नहीं है ।
ध्रुव प्रभा, आकृति और चमक में एक दूसरे से नितांत अलग अलग देखी गई है । अचानक ही वे स्वर्ग में, सुदूर अन्तरिक्ष में चमकदार प्रकाश फैला देती है और अचानक अपने आप को समेट लेती हैं । इनकी गति आश्चर्यजनक और शीघ्र चलित होती हैं जिससे उनकी आकृति और सघनता में अद्भुत परिवर्तन देखे गये हैं |
यदि इस प्राण प्रवाह में बहते हुए किसी मनुष्य को कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् में वर्णित विराट् आकाश गंगाओं के नदी रूप में, निहारिका के बादल रूप में तथा अनेक ग्रह-नक्षत्रों के दृश्य विलक्षण रूप से दिखाई दिये हों तो इसमें आश्चर्य ही क्या ? उत्तरायण मार्ग को स्वर्गारोहण (या ऊर्ध्व लोकों में गमन) और दक्षिणायन को अधो लोकों में ले जाने वाला कहा गया है |
इन बातों की पुष्टि इस बात से भी हो जाती है कि दक्षिणी ध्रुव की प्रभायें कुछ ही दूर जाकर अन्धकार मय हो गई देखी गई है । जबकि उत्तरी-ध्रुव की प्रभायें जितनी ऊपर बढ़ती है उतनी और भी दिव्य होती चली जाती हैं ।
गहन अध्ययन और शोध कार्यों ने यह सिद्ध कर दिया है कि ध्रुव प्रभा की उत्पत्ति का कारण सूर्य पर घटित होने वाली हलचल ही हैं । हाँलाकि यह ध्रुव प्रभायें कभी-कभी दिखाई देती हैं ।
स्पेन में एक वर्ष में एक बार, फ्राँस के उत्तरी भाग में एक वर्ष में 5 बार, लन्दन में एक वर्ष में 6 बार, उत्तरी आयरलैण्ड में एक वर्ष में तीन बार और उत्तरी संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, कैनेडा तथा फेरो आइलैंड (Faroe Island) में क्रमशः 6, 8 और 12 बार दिखाई देती है । यह ध्रुव प्रभाएँ वह होती है जो खुली आँख से देखी जा सकती हैं |
लेकिन बाद में डॉ. बी.एम. स्लीफर ने लावेल वेधशाला में लगे स्पेक्ट्रम परीक्षण द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि ध्रुव प्रभायें मन्द रूप में हमेशा, सतत् अविच्छिन्न रूप से पाई जाती है । साँप की तरह से लहराती हुई चलने वाली इन प्रकाश लहरियों के बारे में विज्ञान जितना ही खोज करता जा रहा है, उतने ही आश्चर्य जनक परिणाम सामने आते जा रहें हैं ।
अगर इन शोध कार्यों में भारतीय तत्व दर्शन को भी सम्मिलित कर लिया जाता तो न केवल आध्यात्मिक मान्यताओं को बल मिलता बल्कि अन्तरिक्ष और ब्रह्माण्ड के अनेक अप्रकट रहस्यों का भी पता लगाना सम्भव हो जाता । यद्यपि मन्द प्रकाश पुंज विस्तार में कम होते हैं लेकिन ठीक ध्रुव पर उनमें स्थायित्व के साथ-साथ चमक और चौंध भी बहुत तीव्र होती है । उसकी शक्ति और ऊर्जा के आगे सामान्य यन्त्र भी काम नहीं कर पाते |
एक बार उस क्षेत्र में एक जहाज जा रहा था | आश्चर्यजनक रूप से वहां की चुम्बकीय शक्ति की प्रचण्डता के कारण जहाज में लगी लोहे की कीलें और छड़ें निकल-निकल कर भागी और जहाज वहीं चूर-चूर हो गया तब से उधर जाने वाले जहाजों में एक विशेष प्रकार की धातुओं का प्रयोग किया जाता है ।
इसी प्रकार इस विद्युत चुम्बकीय शक्ति में “प्राण-तत्व” को प्रवाहित कर जीवात्मा को ऊर्ध्वगामी बनाने एवं स्वर्ग पहुँचाने की बात सत्य हो सकती है । उसी के लिए तो पितामह भीष्म को भी शर-शैय्या पर लेटे रहना पड़ा था । बाणों में लेटने का अर्थ उनकी इस निष्ठा से था कि कहीं सूर्य की गति उत्तरायण होने से पहले ही उनका मन सांसारिक इच्छाओं में भ्रमित न हो जायें ।
इच्छायें जीवनी-शक्ति का विक्षोभ होती हैं इसलिये जब तक मन निष्काम न हो वह प्राणों के संकल्प को किसी विशेष दिशा में नहीं ले जा सकता इसलिए मृत्यु के समय प्राणों को शुद्ध करने की क्रियायें पहले से ही निर्धारित कर दी गई हैं गीता में उनका उल्लेख भी है । अक्सर ध्रुव-प्रभा श्वेत दूधिया रंग की होती है ।
कुछ वास्तविकता ऐन्शिएंट एलियन्स थ्योरी की
वहाँ दृश्य ऐसा होता है कि बादलों में और इनमें अंतर पता करना कठिन हो जाता है | कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् में भी इन्हें बादल ही कहा गया है । ध्रुव-प्रभा, जो कि विद्युतचुम्बकीय विकिरण है, फैलती और सिकुड़ती रहती है । प्रकाश इसमें विभिन्न खण्डों में बहता है |
इसमें तीव्र गतिमान परिवर्तन भी वैज्ञानिकों ने नोट किये हैं | शेट लैण्ड आइलैंड (Shetland Island) के वैज्ञानिक इन्हें मेरी डासरस कहते हैं और कैनेडा (Canada) वाले इन्हें मेरीयोनेट कहते हैं । उनका विश्वास है कि इन प्रकाश-पुंजों के प्रवाह में अद्भुत ईश्वरीय नियम उपस्थित हो सकते हैं । इनमें श्वेत, पीले और गुलाबी रंग की प्रभाओं की तरंगो के अतिरिक्त यहाँ “शब्दों” के कम्पन भी अंकित किये गये हैं |
यहाँ की रंगीन किरणें कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् में वर्णित विभिन्न प्रकार के दृश्य और श्रव्य की अनुभूतियों की समानार्थी उपलब्धियाँ हैं । हाइड्रोजन कणों की उपस्थिति से अनिवार्य सूर्य-हस्तक्षेप का पता चलता है । समाधिवस्था में ब्रह्मरन्ध्र में स्थित इन्ही विभिन्न ध्वनियों के विभिन्न लोक-लोकान्तरों की अनुभूतियाँ होती है | यह ठीक आधुनिक क्वांटम विज्ञान के समान ही है |
कालान्तर में वैज्ञानिक इन्हीं तथ्यों पर आने वाले हैं और अगर इस ब्रह्माण्ड में मनुष्य जाति के विकास तथा उत्पत्ति सम्बन्धी जानकारियों में इसका वैज्ञानिक प्रयोग करेंगे तो यह निश्चित हैं कि विज्ञान के कई क्षेत्रों की प्राप्त उपलब्धियों में उन्हें बड़े परिवर्तन करने पड़ सकते हैं |