एलियन, उनके सूक्ष्म संसार एवं पृथ्वी की दुनिया में उनका हस्तक्षेप आदि कुछ ऐसे विषय है जिनमे आज के ब्रह्माण्ड वैज्ञानिकों की सर्वाधिक रूचि है | इसके प्रमाण हमें आज के संचार माध्यमों से उपलब्ध होने वाले आंकड़ों (चाहे वो यू ट्यूब के विडियो हों या हॉलीवुड में बनने वाली फिल्मे हों) से मिल सकते हैं |
एलियन एवं उनके संसार से सम्बंधित यह खोज, दुनिया भर के और नासा के वैज्ञानिकों को ब्रह्माण्ड में बहुत दूर तक ले आयी है | लेकिन ब्रह्माण्ड में ज्यादे से ज्यादा दूर तक खोज करने के चक्कर में वे वास्तव में बहुत दूर निकल गए हैं |
वैज्ञानिक दूसरे ग्रहों, दूसरे सौर-मंडल के ग्रहों यहाँ तक की दूसरी गैलेक्सी (आकाश गंगा) के सौर-मंडल के ग्रहों तक की जांच पड़ताल कर रहे हैं कि कहाँ पानी की सम्भावना है और कहाँ जीवन की | इन सब के बावजूद वो अपने एलियन संपर्कों पर पर्दा भी डालते आये हैं |
आज दबी-छिपी जबान से हर आदमी स्वीकारता है कि नासा के वैज्ञानिकों के एलियन की दुनिया से संपर्क है, भले ही वे इस तथ्य को सिरे से नकार दें | लेकिन क्या एलियन किसी ग्रह पर रहते हैं, या चन्द्रमा पर या किसी सितारे पर ? बहुत से लोग मानते हैं कि मंगल ग्रह पर एलियन रहते हैं लेकिन मंगल ग्रह के अभियान पर जितने भी यान भेजे गए हैं उनमे से किसी ने भी इसकी पुष्टि नहीं की |
भारतीय ग्रन्थ इन दूसरी दुनिया के प्राणियों को पर ग्रह वासी नहीं बल्कि ‘पर लोक वासी’ कहते हैं | बहुत से लोग इस वजह से भी इन ग्रंथों के तथ्यों को संदेह की निगाह से देखते हैं कि इनमे तो दूसरी दुनिया के प्राणियों के लिए ‘विभिन्न लोकों’ का वर्णन है (जैसे देवलोक, पितर लोक, पृथ्वी लोक, और पाताल लोक) जबकि आज हम जानते हैं कि पृथ्वी (Earth) से बाहर निकलते ही अंतरिक्ष में हमें दूसरे ‘ग्रह’ मिलते हैं ना की दूसरे लोक और इन ग्रहों में जीवन के कोई लक्षण भी नहीं हैं, यानी इस पूरे सौरमंडल में हमारी पृथ्वी के अलावा और कहीं जीवन नहीं है |
तो क्या भारतीय ग्रंथों में जो लिखा है वो कपोल-कल्पित है ? भारतीय ग्रंथों में आये शब्द ‘लोक’ का अर्थ होता है एक ऐसा स्थान जहाँ कोई सभ्यता निवास करती हो यानी किसी निर्जन स्थान या निर्जन ग्रह को हम लोक नहीं कह सकते |
अब आते हैं मुख्य बात पर कि जब हमें आकाश या अंतरिक्ष में दूसरे ग्रह दिख सकते हैं तो दूसरे लोक क्यों नहीं दिख सकते? इसे समझने के लिए हमें लोक की अवधारणा (Concept) को समझना होगा | हम सभी, आज, जो इस दुनिया में अपना-अपना जीवन जी रहे हैं वो एक विशिष्ट दिक्-काल खंड (Specific Time-Space Continuum) के यात्री हैं |
इसी दिक्-काल खंड को हम सामान्य भाषा में लोक से निरुपित कर सकते हैं | इसी पृथ्वी पर अगणित (अनगिनत) दिक्-काल खंड या लोक हो सकते हैं | उनकी दुनिया में प्रवेश करने के लिए हमें अंतरिक्ष में जाने की जरूरत नहीं | प्रत्येक दिक्-काल खंड एक ‘विमीय तल’ (Dimensional Plane) होता है, लेकिन ये आवश्यक नहीं कि वो त्रिआयमीय (Three Dimensional) ही हो |
हम अपने विमीय तल (Dimensional Plane) से दूसरे विमीय तल में प्रवेश तो कर सकते हैं लेकिन ऐसा होते ही हमारे अपने दिक्-काल खंड के विमीय तल से हमारा संपर्क पूरी तरह से कट जाएगा | दूसरे दिक्-काल खंड के विमीय तल में प्रवेश करने पर हमारा समय-चक्र बदल जाएगा और हमारी आयु, सोचने और कार्य करने का तौर-तरीका सब कुछ प्रभावित होगा |
प्राचीन भारतीय पौराणिक ग्रंथों में इनसे सम्बंधित वैज्ञानिक तथ्य कथानक के रूप में वर्णित हुए हैं जिसमे सम्राट रैवत की कथा प्रसिद्ध है जो अपनी कन्या रेवती के साथ पृथ्वीलोक से ब्रह्मलोक जाते हैं और वहाँ थोड़ी देर रुक कर तुरंत वापस आते हैं लेकिन उतनी देर में यहाँ, पृथ्वी लोक पर कई युग बीत चुके होते हैं | इस घटना को विस्तृत रूप से आप यहाँ पढ़ सकते हैं|
लेकिन महत्वपूर्ण प्रश्न ये है कि क्या आज भी पर लोक वासी इन एलियन और उनके सूक्ष्म संसार का अस्तित्व है ? और अगर है तो क्या वो अभी भी धरती पर आते हैं ? इस सम्बन्ध में श्री राम शर्मा जी ने एक प्रमाणिक घटना का उल्लेख अपनी पुस्तक में किया है जो आज भी हमें सोचने पर विवश कर देती हैं |
ये घटना सन 1937 की है | बनारस के बंगाली टोला मोहल्ले में केदार मालाकार नाम का 16 वर्षीय किशोर रहता था | जिन दिनों ये विस्मयकारी घटना घटी, उसी समय केदार के पिता का देहांत हुआ था | परिवार में सिर्फ उसकी माँ, बहन और भांजा रह गए थे | केदार पास के ही एक विद्यालय में पढ़ाई कर रहा था | एक दिन उस बालक के साथ बड़ी अद्भुत घटना घटी |
उस दिन वह दशाश्वमेध घाट के बाज़ार में कोई सामान खरीदने गया | रास्ते में एक थोड़ा सूनसान क्षेत्र था | वहीँ पर एक पेड़ की उपरी टहनियों पर एक ज्योतिर्मय दिव्य सत्ता उसको दिखाई दी | केदार भौचक्का होकर उसको देखे जा रहा था | उस ज्योतिर्मय स्वरुप के आकर्षण में वह थोड़ी देर तक वो हतप्रभ था |
सामान्य होते ही उसके मन में विचार आया कि इसे किसी दूसरे को भी दिखता हूँ | ऐसा सोचते हो वो वही खड़ा होकर अन्य राहगीरों की प्रतीक्षा करने लगा क्योंकि वहाँ दूर-दूर तक दोपहर का सन्नाटा था |
लेकिन केदार के मन में ऐसा विचार आते ही वह दिव्य देहधारी वहाँ से गायब हो गया | और इसी पल केदार को अपने शरीर में एक बेहद अजीबोगरीब अनुभव होने लगा | कुछ पलों के लिए उसकी चेतना का शरीर पर नियंत्रण शिथिल पड़ गया और वह कच्ची जमीन पर घुटनों के बल बैठ गया | फिर थोड़ी देर में वह संयत हो कर उठा और अपने निर्धारित गंतव्य की ओर बढ़ चला |
आवश्यक खरीददारी करने के बाद वह घर वापस आ गया | लेकिन घर आने के बाद उसकी हालत बिगड़ने लगी | शरीर असाधारण रूप से तप रहा था | थोड़ी देर में, पूरे शरीर में होने वाली पीड़ा भी असह्य हो गयी | परिवार वाले अत्यंत चिंतित थे लेकिन दो दिन तक ऐसी ही दशा रहने के बाद उसकी अवस्था में अपेक्षाकृत सुधार होने लगा और कुछ दिनों बाद वह पूरी तरह से ठीक हो गया |
उस दिव्य देहधारी दैवसत्ता से संपर्क का, यह उसका पहला अनुभव था | इसके बाद वह ज्योतिर्मय सत्ता अक्सर आने लगी | अब वह जब आती तो पहले जैसी वेदना का अनुभव तो नहीं होता लेकिन उसकी उपस्थिति से केदार का सूक्ष्म शरीर निकल कर उसके साथ चल पड़ने के लिए विवश हो जाता | कभी-कभी वह घंटों अपने स्थूल शरीर से बाहर रहता और फिर कुछ समय बाद स्वतः उसमे प्रवेश भी कर जाता |
जब बार-बार का यही क्रम हो गया तो उसके परिवार वालो ने उससे पूछा कि आखिर अचानक से उसे यह विद्या कहाँ से आ गयी | इस पर उसका कहना था कि यह कोई ऐसी विद्या नहीं जिसे असाधारण कहा जा सके | जो कुछ उसके साथ घटित हो रहा था उसमे ना तो उसकी कोई स्वयं की शक्ति थी और ना ही उसकी स्वयं की कोई इच्छा थी |
उसने उनको बताया कि यह सब कुछ एक देवपुरुष की सहायता से संपन्न होता था | जब वह सामने आ कर प्रकट होते थे तो सूक्ष्म शरीर, इस स्थूल शरीर से स्वयं अलग हो जाता और फिर उनका अनुसरण करते हुए वह उसी लोक में चला जाता जिस लोक के उक्त दिव्यात्मा वासी होते थे |
वहाँ उसे अलग-अलग स्थानों पर ले जाया जाता और अनगिनत प्रकार के ज्ञान-विज्ञान के रहस्यों की जानकारी दी जाती थी | काम पूरा होने के बाद वह पुनः, पृथ्वी पर, अपने स्थूल शरीर में लौट आता था |
केदार अक्सर कहा करता था दूसरे लोकों में ले जाने वाले देवदूत (वो उनको इसी नाम से संबोधित करता था) एक ही हों, ऐसा नहीं था | अलग-अलग भुवनों (लोकों) के लिए अलग-अलग देवदूत थे | जिस भुवन में केदार को ले जाया जाना होता, उसी भुवन के देवदूत आते और उसे अपने साथ ले जाते | लेकिन यह सब कुछ उसकी (केदार की) मर्जी से होता, ऐसी बात नहीं थी |
केदार ने बताया कि, या तो देवदूत अपनी मर्जी से, या अपने लोक के अधिष्ठाता की इच्छा से उसे अपने भुवन में ले जाते | कहाँ जाना है, क्या करना है, इन सब मामलों में केदार पूरी तरह से उन्ही पर निर्भर था | देवदूत जहाँ-जहाँ जाते, केदार को उन्ही के साथ-साथ चलना पड़ता, मानो उसका सूक्ष्म शरीर उस देवदूत के आकर्षण से स्वयं खिंचा चला जाता हो |
उस समय के कुछ बुद्धिजीवियों ने उससे पूछा कि शरीर से बाहर निकलने पर कैसा अनुभव होता है ? तो उसने बताया कि भौतिक देह के बंधन से मुक्त होते ही अचानक यह दुनिया और उसका स्थूल शरीर एक प्रकार से अदृश्य हो जाते और एक शून्य स्थान का अनुभव होने लगता था (बाद में केदार ने बताया यह महाशून्य था, इसका कोई ओर-छोर नहीं लेकिन इसी महाशून्य से अन्य भुवनों या लोकों में प्रवेश किया जा सकता था) |
मार्गदर्शक देव-सत्ता के आकर्षण से, वो उसी शून्य को भेदते हुए अग्रसर होता था | इसी तरह से आगे बढ़ते हुए वे दोनों (केदार और देवदूत) एक ऐसे स्थान पर पहुँचते जो भयंकर तरंग युक्त होता | यहाँ उसके सूक्ष्म शरीर को ऐसा महसूस होता जैसे उच्च ऊर्जा युक्त तीव्र विद्युतीय झटके लग रहे हों | वहाँ ऐसा महसूस होने के कारण केदार ने उस स्थान का नाम ‘झटिका’ रख दिया था |
उसने बताया कि इस झटके वाले स्थान के आगे कुछ समय तक इन्द्रियां निष्प्रभावी हो जाती इसलिए तब तक का ज्ञान अग्राह्य हो जाता और उसे उनका कोई अनुभव ज्ञात नहीं होता | लोकान्तर यात्रा का हमेशा यही अनुभव रहता, जिसके बाद केदार एक नये भुवन, नए लोक में पहुँचता और वहाँ की नई जानकारियाँ अर्जित करता |
लेकिन केदार ने बताया कि इस दौरान उसे कई बार गंभीर वेदना सहनी पड़ती और यात्रा अधूरी छोड़कर उसे वापस, पृथ्वी पर पड़े हुए, अपने स्थूल शरीर में लौटना पड़ता | लेकिन ऐसा तभी होता जब उसके स्थूल शरीर को कोई अशुद्ध शरीर या मन से छू देता | समय बीतता रहा और उस सोलह वर्षीय किशोर का अद्भुत मानसिक व आध्यात्मिक विकास उत्तरोत्तर गति से होता चला गया |
उसकी इस आश्चर्जनक उन्नति को देखते हुए सूक्ष्म जगत में गति रखने वाले कुछ महात्मा यही बताते कि उस पर ऊर्ध्व लोकों में रहने वाली किसी दैवीय सत्ता की कृपा हुई है अन्यथा एक साधारण बालक के लिए ऐसा पुरुषार्थ कर पाना संभव नहीं था |
इस भौतिक जगत के भौतिक शरीर से बाहर निकलने की प्रक्रिया में उनका (केदार का) क्रमिक विकास होता चला गया और अंत में ऐसी स्थिति आयी कि उन्होंने अपनी क्षमता से ही, अपने शरीर से बाहर निकल कर किसी भी लोक में बेरोक-टोक आने और जाने की क्षमता प्राप्त कर ली | ऐसा होने के बाद लोग उनसे पर लोक सम्बन्धी तरह-तरह के प्रश्न करने लगे |
एक परोपकारी व्यक्ति की भांति वो हर एक की जिज्ञासा का समुचित समाधान करते | एक बार ऐसी ही एक सभा में जब उनसे निवेदन किया गया कि इस विश्व (केवल पृथ्वी नहीं) से बाहर जा कर इसको देखिये और बताइए कि यह कैसा लग रहा है ? प्रश्न पूछने वाले ज्ञानी थे और इस प्रश्न के द्वारा केदार की परीक्षा लेना चाह रहे थे कि क्या सचमुच इसकी गति लोक-लोकान्तरों तक है या सब कुछ कपोल-कल्पना है सिर्फ |
केदार को अपने सूक्ष्म शरीर से बाहर निकलने में एक क्षण का समय लगा और पलक झपकते ही वो, वापस अपने स्थूल शरीर में लौट आये | इस सवाल का सटीक उत्तर देते हुए उन्होंने उन ज्ञानी महोदय से कहा कि यह जगत बाहर से ऐसा दिखाई पड़ता है मानो कोई मनुष्य अपने दोनों हांथों को दायें-बाए फैलाये हुए निश्छल खड़ा हो | उपनिषदों में दी गयी वैश्वानर विद्या में ऐसा ही वर्णन है | जैन आचार्य भी ऐसा ही मत प्रकट करते हैं |
ऐसी ही एक दूसरी सभा में किसी ने उनसे एक स्तब्ध करने वाला प्रश्न पूछ दिया | उसने केदार से पूछा कि “जिस महाशून्य की आप बात करते हैं, वहाँ से बैकुंठ लोक कैसा दीखता है, कुछ उसके स्वरुप के बारे में बताइए” | केदार पुनः अपने शरीर से बाहर निकले और थोड़ी ही देर में वापस लौट कर आये | उन्होंने वहाँ उपस्थित सभी को बताया कि “महाशून्य से बैकुंठ लोक दक्षिणावर्त शँख जैसा, बाहर से दिखाई पड़ता है” |
इस प्रकार से उन्होंने परलोक सम्बन्धी कईयों के गूढ़ प्रश्नों का समुचित समाधान किया | वह जिन-जिन भुवनों या लोकों में जाते, वहाँ की भाषाएँ सीख लेते और कभी-कभी उनका प्रयोग, स्थूल देह में लौटने के बाद पृथ्वी पर भी करते पाए जाते | सुनने वाले सहसा समझ नहीं पाते कि वह कौन सी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं |
लोकव्यवहार में वह कई बार उन-उन लोकों की सर्वथा अनजान और अपिरिचित शब्दावलियों का प्रयोग, भूलवश कर देते | सामने वाला जब उनके प्रति अनभिज्ञता जाहिर करता और मतलब न समझ पाने की स्थिति में मौन हो जाता तो केदार को अपनी भूल का पता चलता | शाम को संध्या के समय वेदपाठ करना उनका रोज का नियम था लेकिन आश्चर्यजनक रूप से उनका वेद, हमारे यहाँ के प्रचलित वेद से अलग था |
उनके वेदपाठ के स्वरों में तो थोड़ी भिन्नता थी ही, उनके शब्द भी बिलकुल अलग थे | उनके वेद के शब्द ना तो हिंदी में थे और ना ही संस्कृत में थे बल्कि वो तो किसी और ही दुनिया के लगते थे | उनके उच्चारण भी बिलकुल अलग थे | उनके वेदपाठ को देखने और सुनने वालों ने समझा कि शायद देवलोक की यात्रा के दौरान कोई देवभाषा सीख ली हो और उसी वाणी में वहाँ का वेदपाठ कर रहे हों |
फिर भी कुछ लोग से नहीं रहा गया और उन्होंने उनसे, इस बारे में पूछ ही लिया | उन्होंने उन लोगों की जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहा की “यहाँ की लौकिक भाषा की तरह वहाँ की देववाणी पढ़ या सुनकर नहीं सीखनी पड़ती | सीखने-समझने की यह प्रक्रिया पृथ्वी की तुलना में वहाँ बिलकुल अलग है |
जिस भी लोक में धरती का कोई सूक्ष्म शरीर धारी मनुष्य जाता है, और वहाँ के जिस भी देवपुरुष से वार्ता करने की इच्छा व्यक्त करता है, उसके भ्रू-मध्य से एक ज्योति किरण निकल कर सामने वाले के भ्रू-मध्य को स्पर्श करती है | इतने से ही वह मनुष्य वहाँ के भाव और भाषा का जानकार हो जाता है | इसके बाद वह न सिर्फ वहाँ की बोली समझने लगता है बल्कि स्वतंत्र रूप से, वहाँ विचार-विनिमय भी कर सकता है |
जो कुछ उसे कहना होता है, वह सब वहाँ की भाषा, शब्द और ध्वनि के हिसाब से प्रकट होने लगता है | पृथ्वी की तरह वहाँ बातचीत करने के लिए भाषा के शब्दों, व्याकरण के नियम और वाक्यों को याद रखने की जरूरत नहीं होती” | विभिन्न लोकों में भ्रमण करना केदार का एक प्रकार से नियमित क्रम बन गया था | वह दिन-रात जब भी इच्छा होती, दिव्य लोकों की यात्रा पर निकल पड़ते और इच्छानुसार देव पुरुषों के दर्शन, चरण स्पर्श करके लौट आते |
केदार की यह अलौकिक क्षमता उनके लिए केवल कौतुक या कौतूहल मात्र नहीं थी | इसके माध्यम से उन्होंने अनेक प्रकार के अलौकिक ज्ञान-विज्ञान के रहस्य प्राप्त किये थे, जिनका समय-समय पर उन्होंने प्रयोग व प्रदर्शन भी किया था | लेकिन एक अवसर पर काशी की ‘सिद्धि माँ’ से भेंट होने पर जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण परिवर्तित हो गया | सिद्धि माँ ने उन्हें जीवन के वास्तविक उद्देश्य (परमेश्वर की प्राप्ति) को प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया |
केदार के साथ घटित हुई घटनाओं ने प्राचीन भारतीय ग्रंथों में लिखी हुई बातों को सत्य प्रमाणित किया | कुछ लोग इन बातों को नितांत काल्पनिक मान सकते है लेकिन पिछले कुछ समय में पाश्चात्य विद्वानों द्वारा किये गए शोधकार्य, उनके लेख, इन विषयों पर बनने वाले वृत्तचित्र (Documentaries) और वहाँ बनने वाली कुछ फिल्मों पर गौर करें तो हमें स्पष्ट अंदाज़ा हो जाएगा कि उन्हें प्राचीन भारतीय ग्रंथों के रहस्यमय लेकिन महत्वपूर्ण होने का अहसास है |
हमारे आस-पास की दुनिया जितनी शांत दीखती है, वास्तव में उतनी शांत है नहीं | यत्र-तत्र, सर्वत्र एक हलचल सी मची हुई है | किसी को चैन नहीं है |और ये बेचैनी सिर्फ इस जगत में नहीं बल्कि इस जगत के प्रत्येक परमाणु में है | इस बेचैनी और हलचल को सुनने के लिए खुद का शांत होना बहुत ज़रूरी है | स्वयं के शांत होने पर दूसरी दुनिया की हलचल भी सुनाई और दिखाई पड़ने लगती है |
कभी-कभी कुछ चीजे दिखाई पड़ती हैं लेकिन वो सामने नहीं होती उसी तरह से कुछ चीजें दिखाई नहीं पड़ती लेकिन बिलकुल सामने होती हैं | दूसरी दुनिया के दरवाजे भी यही कहीं हैं हमारे आस-पास लेकिन उसमे प्रवेश करने के लिए हमें पहले स्वयं में प्रवेश करना होगा जिससे हमारा विस्तार हो सके, उतना जितना इस जगत का विस्तार है |
रहस्यमय के अन्य आर्टिकल
जापान के बरमूडा ट्रायंगल का अनसुलझा रहस्य
हिन्दू धर्म में वर्णित, दिव्य लोकों में रहने वाली पितर आत्माएं कौन हैं ?
तंत्र साहित्य में ब्रह्म के सच्चिदानन्द स्वरुप की व्याख्या
कुण्डलिनी शक्ति तंत्र, षट्चक्र, और नाड़ी चक्र के रहस्य