तीसरा व अन्तिम भाग...
इन प्रणव रुपी सूर्य की दो अवस्थाएं हैं | एक अवस्था में इनकी रश्मियाँ चारो ओर विकीर्ण यानि फैली हुई हैं और दूसरी अवस्था में इनकी समस्त रश्मियाँ संहृत होकर मध्यबिंदु में विलीन हो गयी हैं | ये रश्मियाँ एकदम रास्तों के जैसे हैं | जिस तरह से रास्ता एक शहर से दूसरे शहर तक फैला रहता है ठीक उसी तरह से ये सारी रश्मियाँ भी इस लोक से परलोक पर्यंत फैली हुई हैं |
अब प्रश्न यह है की हर रास्ते की एक सीमा होती है जहाँ वो रास्ता ख़त्म होता है तो इन रश्मियों की सीमाए कहाँ पर है ? इन सारी रश्मियों की एक सीमा पर सूर्यमंडल है और दूसरी सीमा पर नाड़ी-चक्र | सुषुप्ति काल में जीव इसी नाड़ी के भीतर प्रवेश करता है | उस समय स्वप्न नहीं रहता, सर्वत्र केवल शांति रहती है |यह तेजः स्थान है |
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सूर्य ब्रह्माण्ड के द्वार की तरह होते हैं | जिस प्रकार से आज के वैज्ञानिक वर्महोल जैसी काल्पनिक अवधारणा को ब्रह्माण्ड का द्वार समझते है वह एक प्रकार का भटकाव सिद्ध हो सकता है | प्राचीन वैज्ञानिको यानी सनातन धर्मी ऋषियों ने विभिन्न ब्रह्मांडों में स्थित सूर्यों को उन ब्रह्माण्डों का द्वार माना है | यही नहीं ब्रह्माण्ड में स्थित विभिन्न लोकों में प्रकाशित सूर्यों के माध्यम से भी गति किया जा सकता है |
आज के वैज्ञानिक तो अभी हमारे सौरमंडल के गुरुत्व का भेदन नहीं कर सके हैं तो उन्हें इस सौर मंडल के उस पार की दुनिया को समझने में थोड़ा समय लग सकता है |
जिस प्रकार से ह्रदय से चारो ओर असंख्य नाड़ियाँ या पथ फैले हुए हैं-केवल एक सूक्ष्म पथ ऊपर मूर्धा की ओर गया हुआ है जिस पर चलकर सहस्रार का भेदन करते हुए परात्पर पुरुष का दर्शन किया जा सकता है ठीक उसी प्रकार से सूर्य से भी असंख्य रश्मियाँ अन्यान्य लोकों की तरफ़ गयी हुई हैं लेकिन केवल एक सूक्ष्म पथ से ऊर्ध्वगमन किया जा सकता है |
इसी सूक्ष्म पथ से चल सकने पर सूर्यद्वार का अतिक्रम किया जा सकता है | केवल ज्ञानी ही इस द्वार को भेद कर सत्य में और अमर धाम में पहुँच सकते हैं, अज्ञानी नहीं पहुँच सकते | अन्यान्य पथों से चलने पर भुवनकोश (ब्रह्माण्ड) में ही बंध कर रह जाना पड़ता है |
यद्यपि भुवनकोश का केन्द्र सूर्य होने के कारण समस्त भुवन एक प्रकार से सौरमंडल के ही अन्तर्गत है, तथापि केंद्र में प्रविष्ट न हो सकने के कारण सौरमंडल के बाहर जा पाना असंभव हो जाता है | आधुनिक विज्ञान के मनीषी अगर इस दिशा में कार्य करें तो उन्हें अद्भुत परिणाम मिल सकते हैं |
सूर्यमंडल में प्रवेश किये बिना जीव का लिंग शरीर (Cosmic Body) नष्ट नहीं होता और लिंग शरीर से मुक्त हुए बिना जीव की मुक्ति कैसे संभव है ? सूर्यमंडल में आने पर ही जीव पवित्र होता है और उसके सारे क्लेश दग्ध हो जाते हैं | ऐसा महाभारत में भी कहा गया है |
सूर्य रश्मियाँ अनंत हैं-जाति (Category) में भी और संख्या (Count) में भी | परन्तु मूल प्रभा (रश्मि) एक ही है | यह श्वेत रंग की शुक्लवर्णीय है | यही मूल शुक्ल वर्ण लाल, नील वर्ण इत्यादि के परस्पर मिलने के कारण और भी विभिन्न उपवर्णों (Sub spectrum) के रूप में प्रकाशित होता है | इस शुक्लवर्णीय मूल प्रभा से सर्वप्रथम, लाल से नील वर्णीय, प्रथम स्तर की किरणों का आविर्भाव होता है |
शुक्ल से अतीत जो वर्णातीत तत्व (वैज्ञानिक इसे गॉड पार्टिकल समझ सकते हैं हाँलाकि गॉड पार्टिकल का अस्तित्व अभी संदेह के घेरे में है क्योकि सिर्फ उसकी उपस्थिति के प्रमाण मिले हैं, उसकी अवस्थाओं और गतिविधियों के बारे में जानकारी का सर्वथा आभाव है) है उसके साथ शुक्ल का संघर्ष (Fusion) होने से इस प्रथम भूमि का विकास होता है |
वास्तव में यह वर्णातीत तत्व ही चिद्रूपा शक्ति है जिसके बिना सृष्टि सम्भव नहीं | फिर इस प्रथम स्तर से परस्पर संयोग बहि:संसर्ग होने के कारण द्वितीय स्तर का प्राकट्य होता है | आपेक्षिक (Relativity) दृष्टी से पहली वाली शुद्ध सृष्टि या महामाया ही है और दूसरी वाली मलिन सृष्टि या अविद्या है |
इसी बात को एक दूसरे तरीके से समझे तो यही बात मालूम पड़ती है कि ‘ब्रह्म एक और अखण्ड है यह अविभक्त रहते हुए भी पुरुष और प्रकृति रूप में द्विधा विभक्त होता है’ | यही अंतःसंघर्ष से उत्पन्न स्वाभाविक सृष्टि है | दूसरी वाली निम्नवर्ती सृष्टि तो पुरुष और प्रकृति के परस्पर सम्बन्ध या बहि:संघर्ष से आविर्भूत हुई, अविद्या रुपी मैथुनी सृष्टि है | महान ऋषि वेदव्यास जी ने वेदान्त में इसी बात को विस्तार से समझाया है |
सूर्य विज्ञान के मूल सिद्धांत को समझने के लिए इस अवर्ण, शुक्लवर्ण, मौलिक विचित्र वर्ण और यौगिक विचित्र वर्ण, सबको समझना आवश्यक है | अगर हम अवर्ण को छोड़ भी दे तो भी बाकी तीनों को समझना अत्यंत आवश्यक है | इसमें जो शुक्लवर्ण है, यही मूल प्रकाश है जो सारे संसार में सर्वत्र बिखरा है | यही विशुद्ध सत्व है |
इस सादे प्रकाश के ऊपर जो अनंत, वैचित्र्यमय रंगों का खेल हो रहा है, वही इस अनंत विश्व-ब्रह्माण्ड में होने वाली लीलाएं हैं | जैसा बाहर है वैसा ही भीतर भी एक ही व्यापार है | पहले गुरुपदिष्ट क्रम (Visual Light Spectrum) से इस सादे प्रकाश के स्फुरण (Appearance) को प्राप्त करके, उसके ऊपर यौगिक विचित्र उप वर्ण के विश्लेषण से प्राप्त मौलिक विचित्र वर्णों को एक-एक करके पहचानना होता है |
इस प्रकार से प्रत्येक मूल वर्ण (Main Spectrum) को जानने के लिए सादे प्रकाश (Visual Light) की सहायता अत्यंत आवश्यक होती है क्योंकि जिस प्रकाश में रंग पहचानना होता है वही प्रकाश यदि स्वयं रंगीन हो तो उसकी वजह से ठीक-ठीक वर्ण का परिचय पाना संभव नहीं हो पता | योग शास्त्र में जिस प्रकार मन की शुद्धि हुए बिना तत्वदर्शन नहीं हो पाता ठीक उसी तरह सूर्य-विज्ञान में भी वर्ण-शुद्धि हुए बिना वर्ण-भेद का तत्व समझ में नहीं आता |
इस ब्रह्माण्ड में हम जो भी द्रव्य (Matter) देख रहे हैं वो सब के सब मिश्रण हैं-उसका विश्लेषण करने पर उनके संघटक शुद्ध वर्णों का साक्षात्कार (ज्ञान) होता है | उन सब वर्णों (Spectrum) को अलग-अलग सादे वर्ण (Main Spectrum) के ऊपर डालकर पहचानना होता है | वैसा देखा जाये तो इस सृष्टि के अन्दर विशुद्ध शुक्ल वर्ण कहीं भी नहीं है-जो कुछ है वह आपेक्षिक (Relative) है |
सबसे पहली चुनौती, इस विशुद्ध शुक्ल वर्ण को भौतिक विधियों से प्रस्फुटित (Appear) करने की है | इस विशुद्ध शुक्ल वर्ण का, किसी स्थान पर, प्रस्फुटन तभी संभव है जब वहाँ अन्य वर्णों के सभी क्रिया-कलाप अवरुद्ध (Block) हो जाए | ऐसी स्थिति में वहां तुरंत शुक्ल ज्योति का विकास (Evolution) होता है |
इस शुक्ल तेज को वहाँ कुछ समय तक स्तम्भित करना या रोके रखना दूसरी चुनौती है | किन्तु ऐसा कर लेने पर ऊपर लिखित विचित्र वर्णों के स्वरूप की पहचान हो जाती है | इस प्रकार से समस्त वर्णों (Spectrum) का परिचय हो जाने पर, उन सब वर्णों के संयोजन (Fusion) और वियोजन (Fission) पर अपना अधिकार (Control) स्थापित करना तीसरी व सबसे बड़ी चुनौती होती है |
कुछ वर्णों के निर्दिष्ट (Certain) क्रम से मिलने पर निर्दिष्ट (Certain) वस्तु की सृष्टि होती है; उनका क्रम भंग करने से नहीं होती | किस वस्तु में कौन-कौन से वर्ण किस क्रम से रहते हैं, यह सीखने से ही इस विज्ञान को समझा जा सकता है | उन सब वर्णों को ठीक उसी क्रम से सजाने पर उस वस्तु की उत्पत्ति होगी-अन्यथा नहीं होगी |
इस ब्रह्माण्ड के सारे पदार्थ मूलतः वर्णसंघर्षजन्य ही हैं | इसलिए जो पुरुष वर्ण परिचय, वर्ण संयोजन तथा वियोजन की प्रणाली जानते हैं उनके लिए इस ब्रह्माण्ड में किसी भी पदार्थ की सृष्टि और संहार करना संभव है |
इस विषय को और भी अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए दृष्टांत रूप से लेते हैं की हमें स्वर्ण धातु की सृष्टि करनी है | मान लीजिये की सौर विद्या के अनुसार M, A, Q तथा C- इन चार रश्मियों का इस प्रकार क्रमबद्ध संयोग होने से स्वर्ण धातु उत्पन्न होती है | अब प्रस्फुटित श्वेत वर्ण के ऊपर क्रमशः M, A, Q तथा C इन चार रश्मियों के डालने से स्वर्ण की सृष्टि होगी |
लेकिन इन चारों रश्मियों को एक साथ नहीं डाला जा सकता, डालने से कोई लाभ भी नहीं होगा | सृष्टि सदैव, काल (Time) में ही संपन्न होती है और क्रम (Sequence) काल का धर्म है | इसलिए क्रमलंघन असंभव है |
इसलिए सत्व शोधन करके उसके ऊपर सबसे पहले M वर्ण (Spectrum) डालने से ही स्वच्छ सत्व M के आकार में आकारित और वर्ण में राजित हो जाएगा | दरअसल शुद्ध सत्व ही वास्तविक आकर्षण-शक्ति का मूल है | इसी से वह M को आकर्षित करके रखता है और स्वयं भी वो उसी भाव में भावित हो जाता है | इसके बाद A डालने पर वह भी उसमें मिलकर उसके अंतर्गत आ जाएगा |
इसी प्रकार से Q तथा C के विषय में भी समझना चाहिए | C अंतिम वर्ण है | इस वजह से इसके डालते ही स्वर्ण अव्यक्त से व्यक्त हो जाएगा यानी प्रकट हो जाएगा | अव्यक्त स्वर्ण-सत्ता की अभिव्यक्ति का यही आदि क्षण होगा | यदि M, A, Q तथा C- इन चार रश्मियों के उस संघात को अक्षुण्ण रखा जाये तो उस स्वर्ण की अभिव्यक्ति भी अक्षुण्ण रहेगी, उसकी अव्यक्त अवस्था नहीं आएगी |
परन्तु दीर्घ काल तक उसे रखना कठिन है | इसके लिए विशिष्ट चेष्टा चाहिए क्योंकि ये संसार गमनशील है | इस लेख के मूल लेखक, महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज जी ने आगे कुछ और भी गंभीर रहस्यमय बाते बतायी हैं कि किस प्रकार से सूर्य-विज्ञान रश्मि विन्यास के द्वारा पदार्थ के मूल बीज को व्यक्त करके सृष्टि का आरम्भ (महासृजन के पल) दिखा सकता है |
उन्होंने यह भी बताया की उत्पन्न हुए पदार्थ की मात्रा वृद्धि अपेक्षाकृत सहज कार्य है | जो एक ग्राम सोने का निर्माण कर सकते हैं वो सहज ही उसे क्षण भर में हज़ारों टन में बदल सकते हैं क्योंकि प्रकृति का भंडार अनंत और अपार है | उसके साथ संयोजन करके दोहन कर सकने पर चाहे जिस वस्तु को, चाहे जिस परिमाण में आकर्षित किया जा सकता है |
परन्तु वस्तु की विशिष्ट सत्ता का आविर्भाव या प्रकटीकरण कठिन कार्य है | गोपीनाथ जी ने यह भी बताया कि भौतिक पदार्थों की अभिव्यक्ति का कार्य, रश्मि विन्यास किये बिना भी अन्य उपायों से जैसे वायु-विज्ञान, शब्द-विज्ञान इत्यादि विज्ञान बल से चेष्टा पूर्वक किया जा सकता है |
उन्होंने अपने अनुभवों के बारे में बताते हुए लिखा की सौभाग्यवश उन्होंने भी इन विज्ञान बल से पदार्थों के प्रकटीकरण को अपने आगे होते हुए देखा | लेकिन उन सब गुह्य विषयों की अधिक व्याख्या करना अनुचित समझ कर उन्हें वहीँ छोड़ दिया |
सृष्टि की व्याख्या करते हुए गोपीनाथ जी ने बताया कि साधारणतः तीन प्रकार की सृष्टि होती है | पहली परा-सृष्टि दूसरी ऐश्वरिक सृष्टि तथा तीसरी ब्राह्मी सृष्टि या वैज्ञानिक सृष्टि | सूर्य विज्ञान के बल से जिस सृष्टि की बात की गयी है उसे तीसरे प्रकार की सृष्टि समझनी चाहिए |
आधुनिक युग के मनीषी, गोपीनाथ कविराज जी के लेख पूर्णतः वैज्ञानिक हैं लेकिन उन्हें समझने के लिए धैर्य चाहिए और उस दिशा में अनुसन्धान करने पर निश्चित रूप से चमत्कारिक परिणाम प्राप्त हो सकते हैं क्योंकि इस मायावी संसार में भी वही नियम काम करते है जो प्रकृति से परे महामाया के साम्राज्य में करते हैं |