पुनर्जन्म की घटनाएं एवं रहस्यमय संयोग

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पुनर्जन्म की घटनाएं एवं रहस्यमय संयोग

पुनर्जन्म की घटनाएं, भारतवर्ष समेत विश्व के अन्यान्य देशों में भी सुनने को मिली हैं | बात सन 1960 की है | गुजरात के राजकोट के एक सहकारी बैंक के कर्मचारी प्रवीण शाह के यहाँ एक पुत्री पैदा हुई । उसका नाम रखा गया राजुल । शुरुआत में सब कुछ सामान्य था |

तीन साल तक उस कन्या के अति मस्तिष्कीय ज्ञान में जागृति के कोई लक्षण नहीं दिखाई पड़े | लेकिन तीसरा वर्ष पूरा करने के बाद ही अचानक से उसमे परिवर्तन आने लगा | परिवार के सदस्यों को वो अपनी मीठी जबान में बताने लगी की वह तो जूनागढ की है और उसका नाम गीता है ।

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पहले तो घर वालो ने कोई ध्यान नहीं दिया और इसे बच्ची का मनबहलाव समझा पर बाद में लड़की के दादा जी ब्रजभाई शाह ने अपने दमाद को जूनागढ़ जाकर सच्चाई का पता लगाने को कहा । जब वहाँ जाकर खोजबीन की गई तो पता चला कि टैली स्ट्रीट जूनागढ़ के गोकुलदास ठक्कर की बेटी गीता की मृत्यु जब वह 21 वर्ष की थी तब हो गई थी ।

राजुल को अपने घर के पास की मिठाई की दुकान भी याद थी वो अक्सर उसका जिक्र किया करती थी । कुछ समय पश्चात् जब परिवार के लोग कन्या को लेकर जूनागढ पहुँचे तो ऊपर पते पर बताये गये स्थान के पास ही उस दुकान को बालिका ने पहचान लिया । शाम को वे लोग राजुल को लेकर गोकुलदास ठक्कर के घर भी गये ।

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सेठ गोकुलदास की धर्म पत्नी काँताबेन खिड़की के पास ही खड़ी थी । ब्रजभाई शाह ने राजुल से पूछा “क्या तू इन्हें पहचानती है”? तो बालिका थोड़ी देर के लिए चुप हुई उसने थोड़ा दिमाग पर जोर लगाया और बोली “हाँ ! तुम मेरी माँ हो” ।

यही नहीं उसने उन्हें जब ‘भाभी’ कहकर पुकारा तो सभी लोग आश्चर्य चकित रह गये क्योंकि गीता (अब राजुल) अपनी माँ को भाभी कहकर ही पुकारा करती थी । उधर शाह परिवार को भी बड़ा आश्चर्य हुआ कि अपने परिवार में तो माँ को बा कहा जाता है पर लड़की ने माँ को भाभी कहने का सम्बोधन कहाँ से सीखा ।

दूसरे दिन दोनों घर के सारे लोग मन्दिर दर्शन करने के लिए गये । बालिका से उस मन्दिर का पता पूछा गया तो उसने एक घर की तरफ़ इशारा किया । ब्रजभाई शाह और उनके परिवार वालों ने समझा लड़की शायद भूल गई है नहीं तो मंदिर पूछने पर किसी घर की तरफ इशारा क्यों करती भला?

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लेकिन काँताबेन ने बताया कि यह मकान जैसा दिखाई देने वाला घर ही मन्दिर है और वे प्रतिदिन यहाँ पूजा करने आती हैं तो उन लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा । अब लड़की (राजुल) के कथन की सत्यता को सभी स्वीकार कर रहे थे ।

इसी तरह की एक और घटना, गीताप्रेस से प्रकाशित कल्याण के मार्च 1966 में छपी बेमुला (लंका) की है । वहां सुरेश मैतृमूर्ति नाम के एक व्यक्ति जिन्होंने बौद्ध धर्म में दीक्षा ली थी बीमार पड़ गये थे । बीमारी के दिनों में ही बिस्तर पर लेटे हुए, तन्द्रावस्था में कुछ अद्भुत अनुभव हुए |

उन्हें किसी अज्ञात प्रेरणा से मालूम पड़ गया कि उनकी मृत्यु अगले दिन शाम तक अवश्य हो जायेगी और उनका दूसरा जन्म उत्तर भारत के किसी क्षेत्र में होगा । उनके सगे-सम्बन्धी एवं परिवारीजनों ने उनकी बातों पर विश्वास नहीं किया क्योंकि जिस दिन उन्होंने यह बात सबको बतायी उस दिन तक उनकी स्थित काफी हद तक सुधर चुकी थी और ऐसा लग रहा था कि अब वो पूरी तरह से ठीक हो जायेंगे ।

दिन भर उनकी स्थिति सुधरती ही रही लेकिन अंत में बात उन्हीं की सच हुई और शाम होने से थोड़ा पहले ही उनकी मृत्यु हो गई । मरने से पहले उन्होंने, अपने हाँथ में बंधी हुई, अपनी कलाई घड़ी अपने गुरुभाई श्री आनंद नेत्राय ने को दी । दोनों में बड़ा आत्मीय भाव था इसलिये श्री नेत्राय ने उनकी दूसरी बात का भी पता लगाने का निश्चय किया ।

कई वर्ष बाद श्री आनन्द नेत्राय अपने किसी काम से मद्रास (वर्तमान चेन्नई) आये और यहाँ एक ज्योतिष के प्रकांड विद्वान से मिले | उन्होंने ज्योतिषी को अपने मित्र सुरेश मैतृमूर्ति की कुण्डली दिखाई और उनसे पूछा कि “क्या इससे सुरेश के भविष्य के जन्म के बारे में कुछ पता चल सकता है? ।

उक्त ज्योतिषी के पास कोई 5000 वर्ष पुरानी संस्कृत में लिखी हुई ज्योतिष विद्या की पुस्तक थी उसके आधार पर उस ज्योतिषी ने बताया कि सुरेश का भावी जन्म भारतवर्ष के बिहार प्राँत में हुआ होगा । उस ज्योतिषी ने यहाँ तक बताया कि सुरेश के वर्तमान जन्म के पिता का नाम रमेश सिंह और माता का नाम सावित्री होगा ।

इतने सूत्र मिल जाने पर श्री आनन्द नेत्राय प्रफुल्लित हुए | उसके बाद उन्होंने बिहार की यात्रा की | पुलिस रिकार्ड की सहायता से सुरेश का पता लगाने में उन्होंने अथक परिश्रम किया और पैसा पानी की तरह बहाया । अंततः उनकी मेहनत रंग लायी और बच्चे का पता चल गया लेकिन कुछ विचित्र बाते उनके सामने आई जैसे कि वह बालक भी अपने पूर्व जन्म की बाते जानता था और लोगों को उसके बारे में बताता था ।

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श्री आनन्द नेत्राय लंका में प्रोफेसर थे | माता-पिता से अनुमति लेकर वे बच्चे को वहाँ ले गये जहाँ उसने अनेक बाते स्पष्ट रूप से पहचानी और लोगों को अपनी घड़ी पहचान कर आश्चर्य चकित कर दिया | आनन्द नेत्राय के हाथ की घड़ी देखते ही उसने कहा “यह घड़ी मेरी है” । यह वही घड़ी थी जो मौत के पहले सुरेश ने ही आनन्द जी को दी थी ।

भारतवर्ष के बिहार में जन्मे उस बालक ओर सुरेश मैतृमूर्ति के गुण, कर्म और स्वभाव में अधिकाँश साम्य पाया गया जिससे यह सिद्ध हो जाता है कि जीवात्मा की यात्रा जिस स्थान से समाप्त हुई थी वही से फिर शुरू हो जाती है |

यदि मनुष्य अपनी चेतना को ऊर्ध्वगामी बनाने में लग जाता है तो पिछले जीवन के अशुभ कर्मों का फल भोगते हुए भी उसका जीवन साधुओं जैसा निर्मल और प्रगतिशील होता जाता है | अगर पिछले जन्म के प्रारब्ध बहुत कठिन और जटिल न हुये तो थोड़े ही दिन में उसे स्थिर शान्ति और आनन्द की प्राप्ति होती है | यदि मुक्ति का द्वार नहीं भी खुलता है तो उसका दूसरा जन्म उच्च और श्री सम्पन्न कुल में होता है और फिर उसे जीवन मुक्ति की उपलब्धि होती है ।

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