सनातन धर्म के त्रिदेवों में भगवान शिव का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। यद्यपि भगवान् शिव संहारक तथा प्रलयकर्ता माने गये हैं, परंतु उनके अनन्य उपासक उन्हें ब्रह्मा एवं विष्णु से सम्बन्धित कार्य-सृष्टि एवं स्थिति के कर्ता भी मानते हैं। शिव को अनुग्रह, प्रसाद एवं तिरोभाव करने वाला माना गया है। भगवान् शिव के ये सम्पूर्ण कृत्य पंचकृत्य परिचायक हैं।
संसार के लय, विलय, संरक्षण, अनुग्रह, प्रसाद, तिरोभाव आदि कृत्यों से उनके पंच कृत्यों का उद्धव होता है। शिव के विविध रूप ही उनके विविध कृत्यों के परिचायक हैं। भारतीय संस्कृति के लगभग प्रत्येक अंग पर शिव महिमा की छाप है। दर्शन, कला, नृत्य एवं साहित्य में शिव की व्यापकता द्रष्टव्य है। विभिन्न शास्त्रों में भगवान शिव के रहस्यात्मक स्वरूप हमेशा से चर्चा के विषय रहे हैं तथा उन्हें अनेक नामों से विभूषित किया गया है।
भगवान शिव के विभिन्न स्वरुप
शास्त्रों में जितना अधिक भगवान् शिव के स्वरूपों का वर्णन है, उतना ही शिल्पियों ने उनके स्वरूपों की प्रतिमाएँ शिल्पित की हैं। कला की दृष्टि से भगवान शिव को तीन प्रमुख रूपों में प्रस्तुत किया गया है-प्रतीक रूप में (शिवलिंग), वृष रूप में (नन्दी प्रतिमा) तथा मानवीय स्वरूप में (उग्र एवं सौम्य)।
उग्र स्वरूप में भगवान शिव को भैरव, घोर, रूद्र, पशुपति, वीरभद्र, वीरूपाक्ष तथा प्रेत, पिशाच आदि घोर शक्तियों के स्वामी एवं कंकाल मूर्तियों में दर्शाया गया है। शिवकथानकों में इस स्वरूप का अंकन संहार मूर्तियों के रूप में मिलता है। शैवागमों में शिव की सौम्य मूर्तियों का वर्णन चन्द्रशेखर, वृषवाहन, उमा महेश्वर, सोम, स्कन्द आदि रूपों में किया गया है।
शिव का विशुद्ध स्वरूप महेश, सदाशिव और पंचमुखी प्रतिमा-सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरूष तथा ईशान के माध्यम से निरूपित किया गया है। शिव की स्वतंत्र अभिव्यक्ति तो शिल्प में बहुत अंकित की गयी है; साथ ही शैव, शाक्त, वैष्णव एवं सौर आदि सम्प्रदायों का समन्वय संहार मूर्तियों द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
दक्षिण भारत के देवालयों में नटराज रूप में भगवान शिव की प्रतिमायें
दक्षिण भारत के देवालयों में शिव के अनुग्रह-रूप की गंगाधर तथा कल्याण सुंदर (शिव-पार्वती परिणय) मूर्तियां अत्यन्त रोचक भंगिमाओं में शास्त्र अनुरूप प्रस्तुत की गयी है। शिव का एक अन्य अत्यन्त लोकप्रिय रूप ‘नटराज’ दक्षिण में चोल कालीन मंदिरों की कांस्य-प्रतिमाओं में प्रकट होता है। भगवान शिव को संगीत, नृत्य, नाट्ययोग, व्याख्यान आदि विद्याओं में पारंगत कहा गया है।
प्रतिमा विज्ञान की दृष्टि से शिव का अंकन सश्रवास है, सजीव है तथा शिल्पी की तूलिका का उन्मीलन देवाधिदेव महादेव उन्मेषकारी रूपों में मुखर हुआ है। हिन्दू देवताओं में शिव ही ऐसे एक मात्र देव हैं, जो सभी नृत्यों में पारगंत माने गये हैं। भरत मुनि ने अपने नाटय शास्त्र में नृत्य की 108 मुद्राओं का वर्णन किया है।
शैवागमों में शिव को 101 मुद्राओं से भी अधिक मुद्राओं में नृत्य करते हुए वर्णित किया गया है। चिदम्बरम के नटराज मंदिर के गोपुर के दोनों ओर 108 मुद्राओं में शिव के नृत्य का अंकन है और प्रत्येक मुद्रा को शिल्पी ने भरत मुनि के नाटय शास्त्र के अनुसार प्रस्तर पर उत्कीर्ण किया है। गोपुर में प्रत्येक के नीचे नाटय शास्त्र के श्लोक लिखे हुए है।
भगवान शिव का नटराज-स्वरूप सम्पूर्ण भारत में लोकप्रिय रहा है, परंतु इस स्वरूप में शिल्प की दृष्टि से उत्तर एवं दक्षिण भारत में कुछ अंतर है। दक्षिण भारत के नटराज अपनी बायीं भुजा में अग्नि लिये हुए रहते हैं एव उनके पैरों के समीप झुका हुआ अपस्मार पुरूष मुयलक रहता है, परंतु उत्तर भारत में ललित मुद्रा में बहुभुजी नटराज के पैरों के समीप नंदी अथवा नर्तन का अनुसरण करता सहचर रहता है।
दक्षिण भारत में नटराज शिव की कांस्य प्रतिमाएं बहुतायत से मिलती हैं। ये प्रतिमाएं अधिकांशतः 14-15वीं सदी तथा उसके बाद की हैं। चोल शैली में नटराज शिव, विशाल प्रभा मण्डल में अंधकर के प्रतीक अपस्मार-पुरूष पर चरण रख कर नृत्य कर रहे हैं। नृत्य में शिव की पांचों क्रियाओं-सृष्टि, निर्माण, स्थिति, संहार एवं तिरोभाव का समावेश है।
पुराणों में नटराज शिव का उल्लेख
विभिन्न पुराणों में नटराज शिव का उल्लेख मिलता है। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में उल्लेख है कि जिस प्रकार प्रजापति, शतक्रतु, धन्वन्तरि, मही, संकर्षण एवं रूद्र क्रमशः इतिहास, धनुर्वेद, आयुर्वेद, फलवेद, पांचरात्र, पाशुपतमत के प्रवर्तक हैं, उसी प्रकार महेश्वर शिव नृत्य विज्ञान के प्रवर्तक हैं। इसी में उल्लेख है-‘यथा चित्रे तथा नृत्ये त्रैलोक्यानुकृतिं स्मृता।’ इसमें नृत्य के विभिन्न करण के विभिन्न सुझाव दिये गये हैं।
मत्स्य पुराण (249।10-11)-में नटराज शिव की दशभुजी मूर्ति का विवरण इस प्रकार आया है-“अर्थात दस भुजाओं वाली शिव की नटराज-मूर्ति को विशाख स्थान मुद्रा (नृत्य या युद्ध में खड़े होने की वह मुद्रा जिसमें दोनों पैरों के बीच एक हाथ जगह खाली रहती है)-में बनाया जाना चाहिये। वह नाचती हुई तथा गज चर्म धारण किये हुए हो।
शिव की नृत्य प्रतिमाएं भारत के विभिन्न क्षेत्रों-एलोरा, एलीफेण्टा, बादामी, कांचीवरम, भुवनेश्वर के लिंगराज एवं खुजराहो तथा मध्यक्षेत्र में पूरे वैभव के साथ अंकित हैं, परंतु इनके सुन्दर स्वरूप दक्षिण भारत की कांस्य प्रतिमाओं में मिलते हैं। इन प्रतिमाओं में नटराज शिव में विशेष प्रकार की उन्नति हुई है, जो कला के क्षेत्र में उत्कृष्ट देन है। दक्षिण भारत के शिल्पियों ने भगवान शिव को विश्व नर्तक के रूप में व्यक्त किया है।
शिव जी का ताण्डव-नृत्य क्या है?
शिव जी का ताण्डव-नृत्य, केवल नृत्य नहीं बल्कि सम्पूर्ण शैव दर्शन है। श्रीमद भागवत (10।62।4)-में वर्णित है कि एक बार बाणासुर ने अपनी हजार भुजाओं से वाद्य बजाकर ताण्डव-नृत्य करते शिव को प्रसन्न किया था-‘सहस्रबाहुर्वाद्येन ताण्डवेऽतोषयन्मूडम्’
ताण्डव-नृत्य में शिव की बिखरी हुई जटाएं ब्रह्माण्ड हैं, फुफकारता हुआ सर्प वासना है, गंगा ज्ञान है, चन्द्र ज्योति है तथा तीसरा नेत्र अग्नि है, मुण्ड माला संसार की निस्सारता है, पैरों के नीचे अपस्मार-पुरूष अज्ञान का प्रतीक है।
ताण्डव श्मशान का नृत्य है, भैरव या वीरभद्र की रूपसज्जा इस नृत्य हेतु की जाती है। ताण्डव के पांच रूप हैं-सृष्टि (जन्म), स्थिति (सुरक्षा), तिरोभाव (माया), अनुग्रह (क्षमा), संहार (विनाश), जो क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, सदाशिव एवं रूद्र के कार्य हैं और जिन्हें महादेव शिव तांडव-नृत्य में क्रियान्वित करते हैं।
कभी-कभी उनके साथ नंदी, श्रृंगी, ऋषि, गणेश, कार्तिकेय एवं समस्त परिवार भी नृत्य करता है। उनकी जटाएं फैली हुई होती हैं और जटा के बायीं ओर गंगा तथा दायीं ओर चंद्रमा विराजमान रहता है-‘सुधामयूरखलेखया विराजमानशेखरम्’ शिव संसार के क्रमबद्ध जीवन के प्रतिपादन के लिये नृत्य करते हैं।
शिव जी के पञ्चाक्षर मन्त्र की व्याख्या
उनका नृत्य पंचाक्षर ‘न म शि व य’ (पांच अक्षरों)-का समुदाय है। उनके पग में ‘न’ मध्य भाग (नाभि)-में ‘म’, स्कन्ध में ‘शि’, मुख में ‘व’ एवं मस्तक में ‘य’ है। शिव के चार हाथ से (अभय) रक्षा प्रवृत्त होती है, अग्नि लिये हाथ से विध्वंस प्रवृत्त होता है, चौथा हाथ जो पैर की ओर उठा हुआ रहता है, आत्मा का शरण स्थल है तथा ऊपर की ओर उठा हुआ पैर मुक्ति प्रदान करता है। तमिल साहित्य में ‘उन्मैय-विलक्कम’ में शिव के नृत्य की अलौकिक व्याख्या की गयी है।
यद्यपि शिव महान नर्तक के रूप में बहुत पहले से साहित्य में वर्णित किये गये हैं तथापि उनका प्रतिमा सम्बन्धी वर्णन केवल शैवागमों में ही मिलता है। एक सर्वोच्च नर्तक के रूप में शिव कई स्वरूप ग्रहण करते हैं और उनकी विभिन्न मुद्राएं नृत्य के विभिन्न स्वरूपों को दर्शाती हैं। प्रत्येक नृत्य में जीव-निकाय के आत्यन्तिक कल्याण का लाक्षणिक अर्थ समाहित रहता है।