जैसे-जैसे महाभारत युद्ध का अंत नज़दीक आ रहा था, राजा धृतराष्ट्र केवल चिंता और शोक में डूबते जा रहे थे | उस दिन राजा धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा-संजय ! इसके बाद दुर्योधन ने क्या किया? वह मन्दबुद्धि तो कर्ण का सहारा पाकर पाण्डवों को उनके पुत्र और श्रीकृष्ण के सहित परास्त करने का दम भरता था ।
किंतु बड़े ही दुःख की बात है कि कर्ण अपने पराक्रम से संग्राम में पाण्डवों से पार नहीं पा सका । निःसंदेह जय-पराजय दैवाधीन ही है । मालूम होता है, अब जूए का परिणाम समीप ही आ गया है ।
हाय ! इस दुर्योधन के कारण मुझे काँटे के समान अनेकों तीव्रतर कष्ट सहने पड़ेंगे । मैं नित्यप्रति अपने पुत्रों के ही मारे जाने और परास्त होने की बात सुनता रहा हूँ । क्या पाण्डवों को रोकने वाला हमारी सेना में कोई भी वीर नहीं है? संजय ने कहा-राजन् ! जो पुरुष बीती हुई बात के लिये बाद में सोच-विचार करता है, उसका वह काम तो नहीं बनता, हाँ, चिन्ता उसे अवश्य खाती रहती है ।
अब आपको इस कार्य में सफलता मिलनी तो बड़े दूर की बात है, क्योंकि पहले जान-बूझ कर भी आपने इसके औचित्य-अनौचित्य के विषय में विचार नहीं किया । महाराज ! पाण्डवों ने तो आपसे बार-बार कहा था कि लड़ाई मत ठानिये, किंतु आपने मोहवश सुना ही नहीं । आपने पाण्डवों के ऊपर बड़े-बड़े अत्याचार किये हैं । इस समय भी आप ही के कारण यह राजाओं का घोर संहार हो रहा है ।
परंतु जो बात बीत गयी, उसके विषय में आप चिन्ता न करें । अब जिस प्रकार वह भयंकर संहार हुआ, वह सुनिये । वह रात बीतने पर कर्ण राजा दुर्योधन के पास आया और उससे कहने लगा, “राजन् ! आज मेरी अर्जुन के साथ मुठभेड़ होगी, उसमें या तो मैं उस वीर का काम तमाम कर दूंगा या वह मुझे मार डालेगा । मैं इन्द्र की दी हुई शक्ति खो बैठा हूँ; इसलिये आज अर्जुन अवश्य मेरे ऊपर धावा करेगा । अब जो काम की बात है वह सुनिये।
मेरे और अर्जुन के दिव्य अस्त्रों का प्रभाव तो समान ही है, किंतु शत्रु के पराक्रम को कुचलने में, हाथ की सफाई में, युद्धकौशल में और अस्त्र-संचालन में अर्जुन मेरे समान नहीं है । इसके अलावा बल, वीर्य, विज्ञान, पराक्रम और निशाना साधने में भी वह मेरी बराबरी नहीं कर सकता । मेरा जो यह विजय नाम का धनुष है, इसे विश्वकर्मा ने इन्द्र के लिये बनाया था । इसी के द्वारा इन्द्र ने दैत्यों पर विजय प्राप्त की थी ।
इन्द्र ने यह श्रेष्ठ धनुष परशुराम जी को दिया था और उन्होंने मुझे दिया । यह परशुराम जी का दिया हुआ प्रचण्ड धनुष गाण्डीव से भी बढ़कर है । इसी के द्वारा परशुराम जी ने इक्कीस बार पृथ्वी को जीता था । इसी से अर्जुन के साथ मेरे दो-दो हाथ होंगे । आज संग्राम भूमि में विजयी वीर अर्जुन को धराशायी करके मैं आपको और आपके बन्धु-बान्धवों को आनन्दित करूँगा ।
जिस प्रकार धर्म में पूर्ण अनुराग रखने वाले संयमी पुरुष का कार्य में सफलता पाना स्वाभाविक ही है, उसी प्रकार ऐसा कोई काम नहीं है जिसे मैं आपके लिये न कर सकूँ । परंतु जिस बात में मैं अर्जुन से कम हूँ, वह भी मुझे अवश्य बता देनी चाहिये । उसके धनुष की डोरी दिव्य है, तरकस अक्षय हैं तथा उसके पास अग्निदेव का दिया हुआ दिव्य रथ है, जो किसी भी ओर से तोड़ा नहीं जा सकता ।
इसके अलावा उसके घोड़े मन के समान वेगवान् हैं, ध्वजा भी दिव्य और दीप्तिमती है तथा उस पर बड़ा ही विस्मय में डालने वाला एक वानर बैठा हुआ है, जो मुझे हमेशा चकित किये हुए है । इससे भी बढ़कर यह बात है कि जगत्की रचना करने वाले स्वयं श्रीकृष्ण उसके सारथि और रक्षक हैं । इन सब बातों की मेरे पास कमी है; तो भी मैं अर्जुन के साथ युद्ध करना चाहता हूँ । हमारे पक्ष में महाराज शल्य अवश्य श्रीकृष्ण की बराबरी कर सकते हैं ।
यदि वे मेरे सारथि बन जायँ तो निश्चय ही आपकी विजय हो सकती है । अतः आप इन्हें मेरा सारथ्य करने के लिये तैयार कर लीजिये । इसके सिवा कई छकड़े मेरे लिये बाण लेकर चलें तथा बढ़िया घोड़ों से जुते हुए कई उत्तम-उत्तम रथ मेरे पीछे-पीछे चलें जिससे कि आवश्यकता होने पर मैं तुरंत दूसरा रथ बदल सकूँ । महाराज शल्य श्रीकृष्ण के समान ही अश्वविद्या के मर्मज्ञ हैं ।
यदि ये मेरे सारथि हो जायँ तो मेरा रथ श्रीकृष्ण के रथ से भी बढ़ जाय । फिर तो इन्द्र के सहित देवताओं का भी मेरे सामने आने का साहस नहीं होगा । बस, मैं आपसे इतना प्रबन्ध कराना चाहता हूँ । फिर मैं संग्राम भूमि में जो काम करके दिखाऊँगा, वह आप देखेंगे ही । अजी ! फिर तो जो भी पाण्डव वीर संग्राम में मेरे सामने आवेंगे, उन्हें मैं सर्वथा परास्त करके ही छोडूंगा” ।
संजय ने कहा-जब कर्ण ने आपके पुत्र से इस प्रकार कहा तो उसने प्रसन्नचित्त से उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, “कर्ण ! तुम्हारा जैसा विचार है, मैं वैसा ही करूँगा । छकड़े तुम्हारे बाण लेकर चलेंगे तथा हम सब राजा लोग तुम्हारे पीछे-पीछे चलेंगे” । राजन् ! कर्ण से ऐसा कहकर आपका पुत्र बड़ी विनय से महारथी शल्यके पास गया और उनसे प्रेमपूर्वक कहने लगा, “मद्रेश्वर ! आप सत्यव्रत, महाभाग और वक्ताओं में अग्रगण्य हैं ।
मैं सिर झुकाकर अत्यन्त विनय के साथ आपसे एक प्रार्थना करता हूँ । आप अर्जुन के नाश और मेरे हित के लिये केवल प्रेम के ही नाते कर्ण का सारथ्य करना स्वीकार कर लीजिये । आपके सारथि बन जाने पर राधापुत्र कर्ण मेरे शत्रुओं को परास्त कर देगा आपके सिवा कर्ण के घोड़ों की रास पकड़ने योग्य कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है । आप संग्राम में साक्षात् श्रीकृष्ण के समान हैं ।
अतः जिस प्रकार त्रिपुर-युद्ध के समय ब्रह्माजी ने भगवान् शंकर की सहायता की थी तथा जैसे श्रीकृष्ण सम्पूर्ण आपत्तियों में अर्जुन की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप कर्ण की रक्षा कीजिये । आरम्भ में ही शत्रुओं की सैन्यशक्ति कम होने पर भी उन्होंने हमारी बहुत-सी सेना को नष्ट कर डाला था, फिर इस समय की तो बात ही क्या है? इसलिये अब आप ऐसा उपाय कीजिये, जिससे पाण्डव लोग मेरी रही-सही सेना का संहार न कर सकें ।
पहले संग्राम भूमि में अर्जुन इस प्रकार शत्रुओं का संहार नहीं कर सकता था, किंतु अब श्रीकृष्ण का साथ हो जाने से ही उसकी इतनी शक्ति बढ़ गयी है । अब पाण्डवों की सेना में आपके और कर्ण के हिस्से का ही भाग रह गया है, उसे आप कर्ण के साथ मिलकर आज एक साथ नष्ट कर दीजिये । आप कोई ऐसी युक्ति कीजिये, जिससे पांचाल और संजयों के सहित कुन्ती के पुत्र शीघ्र ही नष्ट हो जायँ ।
कर्ण रथियों में श्रेष्ठ है और आप सारथियों में सर्वोत्तम हैं । आप दोनों का-सा संयोग संसार में न कभी हुआ है न होगा ही । जिस प्रकार श्रीकृष्ण सब अवस्थाओं में अर्जुन की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप कर्ण की रक्षा कीजिये । आपके सारथि बन जाने पर तो कर्ण इन्द्र और समस्त देवताओं के लिये भी अजेय हो जायगा, फिर पाण्डवों की तो बात ही क्या है” ?
दुर्योधन की यह बात सुनकर शल्य एकदम से क्रोध में भर गये । उनकी भौंहों में बल पड़ गये तथा हाथ बार-बार काँपने लगे । उन्हें अपने कुल, ऐश्वर्य, विद्या और बल का बड़ा गर्व था । इसलिये उन्होंने क्रोध से आँखें लाल करके कहा, “दुर्योधन ! अवश्य ही तुम या तो मेरा अपमान कर रहे हो या तुम्हें मेरे प्रति संदेह है । इसी से तुम मुझे सारथि का काम करने की आज्ञा दे रहे हो ।
तुम कर्ण को हमारी तुलना में भी श्रेष्ठ समझकर उसकी प्रशंसा करते हो । किंतु मैं उसे संग्राम में अपने समान भी नहीं समझता । तुम जो बड़े-से-बड़ा वीर हो, उसे मेरे हिस्से में कर दो; मैं उसे संग्राम में जीतकर अपने घर चला जाऊँगा, अथवा आज मैं अकेला ही युद्ध करूँगा । तब तुम शत्रुओं का संहार करते समय मेरा पराक्रम देख लेना ।
जरा मेरी इन वज्र के समान मोटी और गँठीली भुजाओं को तो देखो तथा मेरे विचित्र धनुष, सर्प के सदृश बाण और सुवर्ण पत्र से मढ़ी हुई गदा पर तो दृष्टि डालो । मैं अपने तेज से सारी पृथ्वी को फोड़ सकता हूँ, पर्वतों को छिन्न- भिन्न कर सकता हूँ और समुद्रों को सुखा सकता हूँ ।
इस प्रकार शत्रुओं का दमन करने में पूर्णतया समर्थ होने पर भी तुम मुझे इस नीच सूतपुत्र के सारथ्य का काम करने की आज्ञा कैसे दे रहे हो ? मैं इस नीच की अपेक्षा सभी प्रकार से श्रेष्ठ हूँ, इसलिये उसका दासत्व करने को कभी तैयार नहीं हो सकता । जो पुरुष प्रेमवश अपने आश्रित हुए किसी श्रेष्ठ व्यक्ति को नीच पुरुष के अधीन कर देता है, उसे उच्च को नीच और नीच को उच्च करने का पाप लगता है ।
ब्रह्मा ने ब्राह्मणों को अपने मुख से, क्षत्रियों को भुजाओं से, वैश्यों को जंघाओं से तथा शूद्रों को पैरों से उत्पन्न किया है-ऐसा श्रुति का मत है । इनमें क्षत्रिय जाति सब वर्णों की रक्षा करने वाली, सबसे कर लेने वाली और दान देने वाली है । ब्राह्मणों का दान देनेवाली है । ब्राह्मणों का काम यज्ञ कराना, पढ़ाना और विशुद्ध दान लेना है । कृषि, गोपालन और धर्मानुसार दान देना वैश्यों का कर्म है तथा शूद्र लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा के काम में नियुक्त किये गये हैं ।
यह बात तो मैंने बिलकुल नहीं सुनी कि क्षत्रिय शूद्र की सेवा करे । मैंने राजर्षियों के वंश में जन्म लिया है, मेरे मस्तक पर शास्त्रानुसार राज्याभिषेक किया गया है, लोग मुझे महारथी कहते हैं और वन्दीजन मेरी स्तुति किया करते हैं । ऐसा होकर भी मैं सूतपुत्र का सारथ्य करूँ–यह मेरे वशकी बात नहीं है । इस प्रकार अपमानित होकर तो मैं किसी प्रकार युद्ध नहीं कर सकूँगा ।
इसलिये अब मैं अपने घर जाने के लिये तुमसे आज्ञा माँगता हूँ” । शल्य ऐसा कहकर उठ खड़े हुए और वहाँ जो राजा बैठे थे, क्रोधपूर्वक उनके बीच से जाने लगे । तब आपके पुत्र ने बड़े प्रेम और मान से उन्हें रोका और बड़े मीठे शब्दों में उन्हें समझाते हुए कहने लगा, “राजन् ! आप अपने विषय में जैसा समझते हैं, नि:संदेह यह बात ऐसी ही है ।
परंतु मेरे कथन का जो अभिप्राय है, जरा उसे भी सुननेकी कृपा करें । आपके पूर्वज सर्वदा सत्यभाषण ही करते रहे हैं; मैं समझता हूँ, इसी से आप ‘आर्त्तायनि’ कहलाते हैं तथा आप अपने शत्रुओं के लिये शल्य (काँटे) के समान हैं, इसी से पृथ्वीतल में ‘शल्य’ नाम से विख्यात हैं । आप धर्मज्ञ हैं और पहले मेरा प्रिय करने का वचन दे चुके हैं, अतः अब अपने उसी वचन का पालन करने की कृपा कीजिये ।
आपकी अपेक्षा न तो कर्ण बलवान् है और न मैं ही हूँ तो भी अश्वविद्या के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता होने के कारण मैं आपसे ऐसी प्रार्थना कर रहा हूँ । कर्ण शस्त्रविद्या में अर्जुन से श्रेष्ठ है और आप अश्वविद्या में श्रीकृष्ण से बढ़-चढ़कर हैं” । इसपर राजा शल्यने कहा “दुर्योधन ! तुम सब सेना के सामने मुझे श्रीकृष्ण से भी बढ़कर बता रहे हो, इससे मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूँ ।
अच्छा चलो, मैं कर्ण का सारथ्य करना स्वीकार किये लेता हूँ । किंतु कर्ण के साथ मेरी एक शर्त रहेगी । वह यह कि युद्ध के समय मैं उससे चाहे जैसी बात कह सकूँगा; उसमें वह किसी प्रकार की आपत्ति न करे” । इस पर कर्ण और आपके पुत्र ने ‘बहुत अच्छा’ ऐसा कहकर शल्य की शर्त स्वीकार कर ली ।