राजा विक्रमादित्य ने, बिलकुल भी विचलित न होते हुए, वापस पेड़ पर लौटने वाले बेताल को फिर से अपनी पीठ पर लादा और बिना कुछ बोले चल दिए उसी तान्त्रिक के पास, जिसने उन्हें लाने का काम सौंपा था | थोड़ी देर बाद बेताल ने वातावरण की स्तब्धता को तोड़ा और कहा “तुम भी बड़े हठी हो राजन, खैर चलो, मार्ग आसानी से काट जाए, इसके लिए मै तुम्हे एक कहानी सुनाता हूँ |
किसी समय की बात है चन्द्रशेखर नगर में रत्नदत्त नाम का एक सेठ रहता था । उसकी एक लड़की थी । उसका नाम था उन्मादिनी। उन्मादिनी जब बड़ी हुई तो तो उसका रूप सौंदर्य, यौवन से निखर गया | सुगठित देहयष्टि की स्वामिनी उन्मादिनी बिलकुल एक अप्सरा के जैसी दिखती थी | उसके पिता रत्नदत्त को उसके रूप सौंदर्य के अनुरूप वहां का राजा ही उपयुक्त लगा उसके विवाह के लिए | अतः उसने राजा के पास जाकर कहा कि यदि आप चाहें तो उससे ब्याह कर लीजिए।
उस प्रस्ताव को सुन कर राजा ने कुछ देर तक सोचा फिर महल की तीन दासियों को बुला कर लड़की को देख आने को कहा । उन्होंने उन्मादिनी को देखा तो उसके रूप सौंदर्य पर मुग्ध हो गयीं, लेकिन साथ ही ईर्ष्या की अग्नि से दहक उठी | उन्होंने यह सोचकर कि राजा उसके रूप सौंदर्य पर मुग्ध हो कर उसके वश में हो जायेगा, आकर कह दिया कि वह तो कुलक्षिणी है और राजा ने सेठ से उसके प्रस्ताव के लिए इन्कार कर दिया। इसके बाद सेठ ने राजा के सेनापति बलभद्र से उसका विवाह कर दिया। वे दोनों सुख पूर्वक अच्छी तरह से रहने लगे।
एक दिन राजा की सवारी उस रास्ते से निकली, जिस रास्ते पर सेनापति का प्रासाद पड़ता था । उस समय उन्मादिनी अपने प्रासाद की खिड़की पर खड़ी थी। राजा की उस पर निगाह पड़ी तो वह भौचक्का रह गया | वह उस पर मोहित हो गया । उसने पता लगाया ।
राजा को पता चला कि वह तो उसी सेठ की लड़की है, जो कुछ महीनों पहले उसके पास अपनी उसी पुत्री के विवाह का प्रस्ताव ले कर आया था। राजा ने सोचा कि हो-न-हो, जिन दासियों को मैंने देखने भेजा था, उन्होंने मुझसे छल किया है।
राजा ने उन्हें बुलाया और कड़ाई से पूछताछ की तो उन्होंने आकर सारी बात सच-सच कह दी। राजा यह सब सुन कर अपना सर पकड़ कर बैठ गए | इतने में सेनापति वहाँ आ गया। उसे राजा की बैचेनी मालूम हुई। उसने कहा, “स्वामी उन्मादिनी को आप ले लीजिए।” राजा ने गुस्सा होकर कहा, “क्या मैं अधर्मी हूँ, जो पराई स्त्री को ले लूँ?” उसने सेनापति को दोबारा ऐसी बात न कहने की चेतावनी दी |
किन्तु राजा इस सदमे से उबर न सका | राजा को इतनी व्याकुलता हुई कि वह कुछ दिन में मर गया। स्वामिभक्त सेनापति यह सब देख सुन कर अत्यंत विचलित हो उठा | उसने अपने गुरु को सब हाल सुनाकर पूछा कि अब मैं क्या करूँ? गुरु ने कहा, “सेवक का धर्म है कि स्वामी के लिए जान दे दे।”
राजा की चिता तैयार हुई। सेनापति वहाँ गया और उसमें कूद पड़ा । जब उन्मादिनी को यह बात मालूम हुई तो वह पति के साथ जल जाना धर्म समझकर चिता के पास पहुँची और उसमें जाकर भस्म हो गयी।
इतनी कथा सुना कर बेताल ने राजा विक्रमादित्य से पूछा, “राजन्, बताओ, सेनापति और राजा में कौन अधिक साहसी था?”
राजा विक्रमादित्य ने कहा, “राजा अधिक साहसी था, क्योंकि उसने राजधर्म पर दृढ़ रहने के लिए उन्मादिनी को उसके पति के कहने पर भी स्वीकार नहीं किया और अपने प्राणों को त्याग दिया। सेनापति कुलीन सेवक था। अपने स्वामी की भलाई में उसका प्राण देना अचरज की बात नहीं। असली काम तो राजा ने किया कि प्राण छोड़कर भी राजधर्म नहीं छोड़ा।”
राजा विक्रमादित्य का यह उत्तर सुनकर बेताल फिर से उड़ा और पेड़ पर जा लटका। राजा उसे पुन: पकड़कर कर लाये और तब उसने यह कहानी सुनायी।