हिडिम्बासुर का वध करने के बाद भी, उसकी बहन हिडिम्बा राक्षसी को पीछे आते देखकर भीमसेन ने कहा, “हिडिम्बे ! मैं जानता हूँ कि राक्षस मोहिनी माया के सहारे पहले वैर का बदला लेते हैं । इसलिये जा, तू भी अपने भाई का रास्ता नाप” । युधिष्ठिर ने कहा, “राम-राम ! क्रोधवश होकर भी स्त्री पर हाथ नहीं छोड़ना चाहिये ।
हमारे शरीर की रक्षा से भी बढ़कर धर्म की रक्षा है । तुम धर्म की रक्षा करो । जब इसके भाई को तुमने मार डाला, तब यह हम लोगों का क्या बिगाड़ सकती है” । इसके बाद हिडिम्बा कुन्ती और युधिष्ठिर को प्रणाम करके हाथ जोड़कर कुन्ती से बोली, “आर्ये ! आप तो जानती हैं कि स्त्रियों को कामदेव की पीड़ा कितनी दुस्सह होती है ।
मैं आपके पुत्र के कारण बहुत देर से व्यथित हो रही हूँ । अब मुझे सुख मिलना चाहिये । मैंने अपने सगे-सम्बन्धी, कुटुम्बी और धर्म को तिलांजलि देकर आपके पुत्र को पति के रूप में वरण किया है | मैं आप और आपके पुत्र दोनों की स्वीकृति प्राप्त करने योग्य हूँ । यदि आप लोग मुझे स्वीकार न करेंगे तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगी । यह बात मैं सत्य-सत्य शपथपूर्वक कहती हूँ ।
आप मुझ पर कृपा कीजिये । मैं मूढ़, भक्त या सेवक जो कुछ हूँ, आपकी हूँ । मैं आपके पुत्र को लेकर जाऊँगी और थोड़े ही दिनों में लौट आऊँगी । आप मेरा विश्वास कीजिये । जब आप लोग याद करेंगे, मैं आ जाऊँगी । आप जहाँ कहेंगे, पहुँचा दूंगी । बड़ी से बड़ी कठिनाई और आपत्ति के समय मैं आप लोगों को बचाऊँगी ।
आप लोग कहीं जल्दी पहुँचना चाहेंगे तो मैं पीठ पर ढोकर शीघ्र-से-शीघ्र पहुँचा दूंगी । जो आपातकाल में भी अपने धर्म की रक्षा करता है, वह श्रेष्ठ धर्मात्मा है” । युधिष्ठिर ने कहा “हिडिम्बे ! तुम्हारा कहना ठीक है । सत्य का कभी उल्लंघन मत करना । प्रतिदिन सूर्यास्त के पूर्व तक तुम पवित्र होकर भीमसेन की सेवा में रह सकती हो । भीमसेन दिनभर तम्हारे साथ रहेंगे सायंकाल होते ही तुम इन्हें मेरे पास पहुँचा देना” ।
राक्षसी के स्वीकार कर लेने पर भीमसेन ने कहा, “मेरी भी एक प्रतिज्ञा है । जब तक पुत्र नहीं होगा, तभी तक मैं तुम्हारे साथ जाया करूँगा । पुत्र हो जाने पर नहीं” । हिडिम्बा ने यह भी स्वीकार कर लिया । इसके बाद वह भीमसेन को साथ लेकर आकाशमार्ग से उड़ गयी ।
अब हिडिम्बा अत्यन्त सुन्दर रूप धारण करके दिव्य आभूषणों से आभूषित हो मीठी-मीठी बातें करती हुई पहाड़ों की चोटियों पर, जंगलों में, तालाबों में, गुफाओं में, नगरों में और दिव्य भूमियों में भीमसेन के साथ विहार करने लगी । समय आने पर उसके गर्भ से एक पुत्र हुआ । विकट नेत्र, विशाल मुख, नुकीले कान, भीषण शब्द, लाल होंठ, तीखी डाढ़ें, बड़ी-बड़ी बाँह, विशाल शरीर, अपरिमित शक्ति और मायाओं का खजाना ।
वह क्षण भर में ही बड़े-बड़े राक्षसों से भी बढ़ गया और तत्काल ही जवान, सर्वास्त्रविद् और वीर हो गया । वास्तव में राक्षसियाँ तुरंत गर्भ धारण कर लेती, बच्चा पैदा कर देती और चाहे जैसा रूप बना लेती हैं । हिडिम्बा के बालक के सिर पर बाल नहीं थे | उसने धनुष धारण किये माता-पिता के पास आकर प्रणाम किया ।
माता-पिता ने उसके ‘घट’ अर्थात सिर को ‘उत्कच’ यानी केशहीन देखकर उसका ‘घटोत्कच’ नाम रख दिया । घटोत्कच पाण्डवों के प्रति बड़ी ही श्रद्धा और प्रेम रखता था और वे भी उसके प्रति बड़ा स्नेह रखते थे । हिडिम्बा ने सोचा कि अब भीमसेन की प्रतिज्ञा का समय पूरा हो गया । इसलिये वह वहाँ से चली गयीं ।
घटोत्कच ने माता कुन्ती और पाण्डवों को नमस्कार करके कहा, “आप लोग हमारे पूजनीय हैं । आप नि:संकोच बतलाइये कि मैं आपकी क्या सेवा करूँ” । कुन्ती ने कहा, “बेटा ! तू कुरुवंश में उत्पन्न हुआ है और स्वयं भीमसेन के समान है । इन पाँचों के पुत्रों में तू सबसे बड़ा है । इसलिये समय पर इनकी सहायता करना” ।
कुन्ती के इस प्रकार कहने पर घटोत्कच ने कहा, “मैं रावण और इन्द्रजित के समान पराक्रमी तथा विशालकाय हूँ । जब आप लोगों को कोई आवश्यकता हो तो मेरा स्मरण करें । मैं आ जाऊँगा” । यह कहकर उसने उत्तर की ओर प्रस्थान किया । आगे चलकर पाण्डवों ने सिर पर जटाएँ रख ली और वृक्षों की छाल तथा मृगचर्म पहन लिये ।
इस प्रकार तपस्वियों का वेष धारण करके वे अपनी माता के साथ विचरने लगे । एक बार वे शास्त्रों के स्वाध्याय में लग रहे थे, उसी समय भगवान् श्री वेदव्यास उनके पास आये । उन्होंने उठकर उनके चरणों में प्रणाम किया । व्यासजी ने कहा, “युधिष्ठिर ! मुझे तुम लोगों की यह विपत्ति पहले ही मालूम हो गयी थी । मैं जानता था कि दुर्योधन आदि ने अन्याय करके तुम्हें राजधानी से निर्वासित कर दिया है ।
मैं तुम लोगों का हित करने के लिये ही आया हूँ । तुम इस विषादमयी परिस्थिति से दुःखी मत होना । यह सब तुम्हारे सुख के लिये ही हो रहा है । इसमें सन्देह नहीं कि मेरे लिये तुमलोग और धृतराष्ट्र के लड़के समान ही हैं, फिर भी तुम लोगों की दीनता और बचपन देखकर अधिक स्नेह होता है । इसलिये मैं तुम्हारे हित की बात कहता हूँ ।
यहाँ से पास ही एक बड़ा रमणीय नगर है । वहाँ तुम लोग छिपकर रहो और फिर मेरे आने की बाट जोहो” । पाण्डवों को इस प्रकार आश्वासन देकर और उन्हें साथ लेकर वे एकचक्रा नगरी की ओर चले । वहाँ पहुँचकर उन्होंने कुन्ती से कहा, “कल्याणि ! तुम्हारे पुत्र युधिष्ठिर बड़े धर्मात्मा हैं । ये धर्म के अनुसार सारी पृथ्वी जीतकर समस्त राजाओं पर शासन करेंगे ।
तुम्हारे और माद्री के सभी पुत्र महारथी होंगे और अपने राज्य में बड़ी प्रसन्नता के साथ जीवन-निर्वाह करेंगे । ये लोग राजसूय, अश्वमेध आदि बड़े-बड़े यज्ञ करेंगे, अपने सगे-सम्बन्धी और मित्रों को सुखी करेंगे और परम्परागत राज्य का चिरकाल तक उपभोग करेंगे” । व्यासजी ने इस प्रकार कहकर कुन्ती और पाण्डवों को एक ब्राह्मण के घर में ठहरा दिया और जाते-जाते कहा, “एक महीने तक मेरी बाट जोहना । मैं फिर आऊँगा । देश और काल के अनुसार सोच-समझकर काम करना । तुम्हें बड़ा सुख मिलेगा” । सबने हाथ जोड़कर उनको आज्ञा स्वीकार की । फिर वे चले गये ।