कौन थे महर्षि दधीच?
इस संसार में जब भी कभी महान त्याग, तपस्या, दान, परोपकार एवं लोक कल्याण के लिये आत्म दान की बात आयेगी, वहां महर्षि दधीचि का नाम बड़े ही आदर से लिया जायेगा। महर्षि दधीचि भृगु वंश में उत्पन्न हुए थे । वेदों में भी इनका नाम आया है। भगवान शिव में इनकी अनन्य निष्ठा थी । इसीलिये वे महा शैव भी कहलाते हैं। शिव जी के आशीर्वाद से ही इनकी अस्थ्यिां वज्र के समान कठोर हुई थीं।
महर्षि दधीचि की पत्नी का नाम क्या था?
महर्षि दधीचि की पत्नी का नाम सुवर्चा था, वे सदाचार-सम्पन्न, महान साध्वी, पतिव्रता तथा भगवान शिव में विशेष भक्ति सम्पन्न थीं। इन दोनों की शिव भक्ति से ही प्रसन्न हो कर भगवान शिव ने महा साध्वी सुवर्चा के गर्भ से ‘पिप्पलाद’ नाम से अवतार धारण कर जगत का कल्याण किया और अनेक लीलाएं कीं |
महर्षि दधीचि ने अपनी अस्थियां क्यों और किसे दान दीं
भगवान शिव के पिप्पलाद मुनि के रूप में अवतार धारण करने की बड़ी ही रोचक कथा पुराणों में मिलती हैं, जिसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
देव कार्य की सिद्धि तथा वृत्रासुर आदि दैत्यों से जगत की रक्षा के लिये महर्षि दधीचि द्वारा अपनी अस्थियों के दान तथा शिव कृपा से उनके लोक की प्राप्ति की बात सर्वविश्रुत ही है।
हुआ यों कि जब इन्द्र, बृहस्पति आदि देवता दधीचि से उनकी अस्थियों की याचना करने के लिये उनके आश्रम पर पहुंचे तो वहां देवों को महर्षि दधीचि और सुवर्चा के दर्शन हुए। देवताओं ने अत्यन्त विनम्रता से उन्हें प्रणाम किया। महर्षि दधीचि सर्वज्ञ थे। वे अपने पास आये हुए देवताओं का अभिप्राय समझ गये। तब उन्होंने अपनी धर्म पत्नी देवी सुवर्चा को किसी कार्य के बहाने दूसरे आश्रम में भेज दिया। देवी सुवर्चा उस समय गर्भवती थीं।
देवताओं ने देखा कि देवी सुवर्चा चली गयी हैं तो उन्होंने प्रार्थना करते हुए महर्षि से कहा-‘महा मुने! आप तो सब कुछ जानते ही हैं कि हम क्यों आये हैं तथापि प्रभो! आप महान शिव भक्त हैं, दाता हैं तथा शरणागत रक्षक हैं; वृत्र आदि दैत्यों ने महान उपद्रव मचा रख है, सारी सृष्टि पीड़ित है, हम लोग भी अपने स्थानों से च्युत हो गये हैं|
इस समय आप ही रक्षा करने में समर्थ हैं, आपकी अस्थियों में शिव-तेज तथा हमारे अस्त्र-शस्त्रों की दिव्य शक्ति समाहित हैं, अतः आप अपनी अस्थियों का हमें दान कर देें, इनसे वज्र का निर्माण करके वृत्रासुर आदि दैत्यों का नाश करने में हम सक्षम हो पायेंगे। अन्य किसी अस्त्र-शस्त्र में ऐसी शक्ति नहीं है कि वह दैत्यों का नाश कर सके; क्योंकि वरदान के प्रभाव से वृत्रासुर इस समय अजेय हो गया है।’ ऐसा कह कर देवता कातर-दृष्टि से मुनि की ओर देखने लगे।
महर्षि दधीचि तो देवताओं के आगमन को समझ ही रहे थे। दान का मौका आये, फिर महात्मा दधीचि कैसे चूक सकते थे। आज तो सारे ब्राह्मण्ड की रक्षा करनी है, फिर इसके लिये एक शरीर तो क्या कई जंमों तक शरीर-त्याग करना पड़ता तब भी महर्षि के लिये कम की बात थी। संत तो थे ही, परहित के लिये उन्होंने प्राणों के उत्सर्ग को कम ही समझा। देवताओं की याचनाओं को उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
दधीचि मुनि ने अपने आराध्य भगवान शंकर का ध्यान किया और ध्यान-समाधि से अपने प्राणों को खींचते हुए शिव तेज में समाहित कर लिया। महर्षि का प्राणहीन शरीर पार्थिव की तरह स्थित हो गया। आकाश से पुष्प वृष्टि होने लगी। उसी समय इन्द्र ने देवलोक से सुरभि गौ को बुलाया और महर्षि के शरीर को चटवाया। जिससे महर्षि दधीचि के शरीर का मांस, मज्जा, मेद, रक्त आदि पिघल कर सुगन्धित तरल में बदल गये |
उनका पद्मासन में बैठा हुआ शरीर केवल हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया | तब उनकी अस्थियों से विश्वकर्मा ने वज्रादि अन्यान्य अस्त्र-शस्त्रों को बनाया। देवराज इन्द्र द्वारा वज्र के प्रयोग से वृत्रासुर मारा गया और देवता विजयी हुए। संसार में सुख-शांति का साम्राज्य छा गया।
भगवान शिव के पिप्पलाद मुनि के रूप में अवतार धारण करने की कथा
देवताओं के आश्रम-प्रदेश से जाने पर जब महर्षि पत्नी सुवर्चा आश्रम में वापस आयीं तो देवताओं की नीति उन्हें समझ में आ गयी। उन्हें समझते देर नहीं लगी कि उनके परोक्ष में देवताओं ने उनके प्राणाराध्य से अस्थियों की याचना की और महामति ने अपनी अस्थियों का दान कर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया।
वे कुपित हो उठीं और उन्होंने क्रोध में आ कर देवताओं को पुत्रहीन होने का शाप दे डाला तथा उसी समय अत्यन्त क्रोधाविष्ट हो उन्होंने लकड़ियां एकत्र कर एक चिता का निर्माण किया और पति का ध्यान करते हुए वे ज्यों ही चिता पर आरूढ़ होने का उद्यत हुई; उसी समय लीलाधारी भगवान शंकर की प्रेरणा से आकाशवाणी हुई-‘हे देवि! तुम इस प्रकार का साहस न करो; क्योंकि तुम्हारे गर्भ में दधीचि का ब्रह्म तेज है, जो भगवान शंकर का अवतार रूप है। उसकी रक्षा आवश्यक है। सगर्भ के लिये देह-त्याग करना शास्त्र विरूद्ध है’|
महामुनि पिप्पलाद का जन्म
आकाशवाणी सुन कर सुवर्चा को अत्यन्त विस्मय हुआ और वे पास ही स्थित एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ गयीं। वहीं उन्होंने एक दिव्य बालक को जन्म दिया, जो साक्षात भगवान् शिव का अवतार ही था। उस समय उसके दिव्य तेज से दसों दिशाएं आलोकित हो उठीं।
देवी सुवर्चा ने उसे साक्षात रूद्र अवतार समझ कर प्रणाम किया और रूद्र स्तव से उसकी स्तुति की और कहा-‘हे परमेशान! तुम इस पीपल (अश्वत्थ)-वृक्ष के निकट चिर काल तक स्थित रहो। महाभाग! तुम समस्त प्राणियों के लिये सुख दाता और अनेक प्रकार की लीला करने में समर्थ होओ। अब इस समय पति लोक में जाने की मुझे आज्ञा प्रदान करो।’ ऐसा कह कर वह अपने पुत्र को वहीं पीपल के समीप छोड़ कर पति का ध्यान करती हुई सुवर्चा सती हो गयीं और उन्होंने पति के साथ शिव लोक प्राप्त किया।
इसी समय सभी देवता ऋषि-महर्षि वहां आये और दधीचि एवं सुवर्चा के उस पुत्र को साक्षात रूद्र अवतार जान कर अनेक स्तुतियों से उनकी प्रार्थना करने लगे तथा इसे भगवान शिव की ही कोई लीला समझ कर आनंदित हो गये। वहां पर देवताओं ने महान उत्सव किया। आकाश से पुष्पवृष्टि भी होने लगी। विष्णु भगवान् और समस्त देवताओं ने उस दिव्य बालक के सभी संस्कार कराये।
ब्रह्मा जी ने प्रसन्न होकर उस बालक का ‘पिप्पलाद’ नाम रखा | चँकि भगवान् शिव का अवतार वह बालक पीपल के वृक्ष के नीचे आविर्भूत हुआ था और माता की आज्ञा से पीपल-वृक्ष के समीप रहा था उसने पीपल के मुलायम पत्तों को भक्षण भी किया, इसलिये उसका पिप्पलाद यह नाम सार्थक ही हुआ। कुछ समय बाद देवता तथा ऋषि-महर्षि सब अपने स्थानों को चले गये। पिप्पलाद उसी पीपल वृक्ष के मूल में स्थित रह कर तपस्या में स्थित हो गये। ऐसे ही तप करते हुए उन्हें बहुत समय व्यतीत हो गया।
महामुनि पिप्पलाद का विवाह
एक दिन पिप्पलाद मुनि पुष्पभद्रा नामक नदी में स्नान करने के लिये गये। वहां उन्हें राजा अनरण्य की कन्या राजकुमारी पद्मा दिखलायी दी। वह पार्वती के अंश से प्रादुर्भाव हुई थी तथा दिव्य रूप एवं गुणों से सम्पन्न थी। उसे प्राप्त करने की आकांक्षा से महात्मा पिप्पलाद उसके पिता अनरण्य के पास गये और विवाह के लिये कन्या की याचना की। प्रथम तो राजा अनरण्य महर्षि की वृद्धा अवस्था और जर्जर शरीर को देख कर चिंतित हुए, किंतु फिर उन्होंने उनके अलौकिक तेज और प्रभाव को समझते हुए अपनी कन्या उन्हें सौंप दी।
पद्मा अपने वृद्ध पति महात्मा पिप्पलाद की अनन्य मन से सेवा करने लगी। वह महान पातिव्रत्य-गुण से सम्पन्न थी। एक बार पद्मा नदी में स्नान करने गयी हुई थी, उसी समय उसके पातिव्रत्य-धर्म की परीक्षा करने के लिये साक्षात धर्म देवता दिव्य रूप एवं रमणीय दिव्याभरणों को धारण कर पद्मा के पास आये और पिप्पलाद की जरावस्था का ध्यान दिलाते हुए अपने को वरण करने के लिये बार-बार आग्रह करने लगे, परंतु पद्मा तनिक भी डिगी नहीं।
महात्मा पिप्पलाद उसके प्राणधार भी थे। मन-वाणी तथा कर्म से उसकी पति में अनन्य भक्ति थी। उसने धर्म देव की बड़ी भर्त्सना की और उसे क्षीण हो जाने का शाप दे दिया। धर्म देव भयभीत हो अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो हाथ जोड़ कर खड़े हो गये और बोले-‘देवि! मैं साक्षात धर्म हूँ। तुम्हारी पति भक्ति देख कर मैं बहुत प्रसन्न हूँ; किंतु तुम्हारे शाप से मैं भयभीत हूं।’
देवी पद्मा बोली-‘धर्म देव! मैंने अज्ञानता में ही यह सब किया है, किंतु शाप तो मिथ्या हो नहीं सकता, इसलिये तीनों युगों में चतुष्पाद धर्म के एक-एक पाद क्षीण रहेंगे। सत्य युग में तुम चारों पादों से स्थित रहोगे, त्रेता में तीन पादों से रहोगे, द्वापर में दो पादों से स्थित रहोगे तथा कलियुग में केवल एक पाद से स्थित रहोगे। इस तरह प्रत्येक चतुर्युगी में ऐसी ही व्यवस्था रहेगी’।
इसके साथ ही शाप का परिहार बताकर पद्मा पुनः पति सेवा में जाने को उद्यत हुई। तब प्रसन्न हुए धर्म देव ने वृद्ध महात्मा पिप्पलाद को रूपवान, गुणवान, स्थिर यौवन से युक्त पूर्ण युवा हो जाने का वर प्रदान किया और पद्मा को भी चिर यौवना होकर अखण्ड सुख-सौभाग्य प्राप्त करने का वर दिया।
वरदान के प्रभाव से पिप्पलाद तथा देवी पद्मा ने बहुत समय तक धर्म आचरण पूर्वक गृहस्थ-जीवन का आचरण किया। इस प्रकार महा प्रभु शंकर के लीला अवतार पिप्पलाद ने अनेक प्रकार की लीलाएं कीं|
पिप्पलाद का शनि देव को शाप देना
जब महात्मा पिप्पलाद का अवतार हुआ था, उस समय उन्होंने देवताओं से प्रश्न किया था कि ‘हे देवगणों! क्या कारण है कि मेरे जन्म से पूर्व ही पिता (दधीचि) मुझे छोड़ कर चले गये और जन्म होते ही माता भी सती हो गयीं?’ जब देवताओं ने बताया कि शनि ग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा कुयोग बना। इस पर क्रुद्ध हो पिप्पलाद ने शनि को नक्षत्र-मण्डल से गिरने का शाप दिया।
तत्क्षण ही शनि आकाश से गिर पड़े। पुनः देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने उन्हें पूर्ववत स्थिर हो जाने की आज्ञा दे दी। इसलिये महर्षि पिप्पलाद के नाम-स्मरण तथा पीपल (जो भगवान शंकर का ही रूप है)-के पूजन से शनि की बाधा दूर हो जाती है। महा मुनि गाधि, कौशिक तथा पिप्पलाद-इन तीनों का नाम-स्मरण करने से शनि ग्रहकृत पीड़ा नष्ट हो जाती है। शंकर अवतार महा मुनि पिप्पलाद तथा देवी पद्मा के चरित्र का श्रद्धा-भक्ति-पूर्वक पाठ अथवा श्रवण शनि ग्रह द्वारा किये गये अनिष्ट-पीड़ा आदि को दूर करने के लिये श्रेष्ठतम उपाय है|