हमारे सनातन धर्म के शास्त्रों तथा पौराणिक ग्रंथों में जहां भगवान के विभिन्न अवतारों का वर्णन मिलता है, वहीं वर्तमान काल की तरह भगवान श्री कृष्ण के काल अर्थात द्वापर युग में भी एक नकली अवतार का रोचक वर्णन श्रीमद भागवत ग्रन्थ के दशम स्कन्ध में मिलता है।
द्वापर युग के इस नकली अवतार की कथा से हमें बहुत महत्वपूर्ण शिक्षा मिलती है जो आज के इस कलियुग में अत्यंत प्रासंगिक है | किन्तु सबसे पहले हम कथा की ओर चलते हैं | बात द्वापर युग के उस समय की है जब भगवान कृष्ण द्वारिकाधीश थे और समुद्र के एक वृहद क्षेत्र में उन्होंने अपनी, देवताओं को भी लजाने वाली, अत्यंत सुन्दर द्वारिका नगरी बसाई हुई थी | उसी समय करूष देश के राजा पौण्ड्रक ने एक बार भगवान श्री कृष्ण के पास अपना दूत भेज कर कहलवाया कि ‘परम पिता परमेश्वर का असली अवतार, भगवान वासुदेव मैं हूं, कोई और नहीं ।’
जिस समय पौण्ड्रक का दूत राजसभा में आया, भगवान श्री कृष्ण द्वारका की उस राजसभा में अपने सभासदों के साथ बैठे हुए थे। दूत ने उपस्थित होकर सबके सामने अपने राजा पौण्ड्रक का संदेश सुनाया “एकमात्र मैं ही वासुदेव हूं, दूसरा कोई नहीं है। जगत के प्राणियों पर कृपा करने के लिये मैंने ही अवतार ग्रहण किया है। तुमने झूठ-मूठ अपना नाम वासुदेव रख लिया है, अब उसे छोड़ दो। यदुवंशी वीर! तुमने मूर्खतावश मेरे चिन्ह धारण कर रखे हैं। उन्हें छोड़ कर मेरी शरण में आओ और यदि मेरी बात स्वीकार न हो तो मुझसे युद्ध करो।”
उस समय तो, अपने को असली परमेश्वर का अवतार होने का दावा करने वाले राजा पौण्ड्रक का संदेश सुन कर उग्रसेन सहित सभी सभासद हंसने लगे।
श्री कृष्ण ने भी मुस्कुराते हुए पौण्ड्रक के दूत से कहा “जाओ अपने राजा से जाकर कह दो कि यह युद्ध मे निर्णय हो जायगा कि असली वासुदेव कौन है? और हाँ उससे कहना कि मूर्खता का त्याग कर दे और ज्ञान का आश्रय ग्रहण करें अन्यथा मैं अपने चक्र आदि चिन्ह यों नहीं छोडूँगा, इन्हें मैं उस पर छोडूंगा और केवल उस पर ही नहीं, बल्कि उसके उन सभी साथियों पर भी, जिनके बहकाने से वह इस प्रकार बहक रहा है।”
पौण्ड्रक का वध
राजा पौण्ड्रक उस समय काशी में अपने मित्र काशिराज के पास रह रहा था । कृष्ण द्वारा पौण्ड्रक के दूत को दिए गए उत्तर के बाद उनके बीच युद्ध होना तय था | दोनों ओर की सेनाएं मैदान में आ डटीं, काशी का राजा अपनी विशाल सेना सहित पौण्ड्रक की सेना के पीछे-पीछे था।
उस समय पौण्ड्रक ने दैवीय विज्ञान एवं तकनीकि से बने हुए शंख, चक्र, गदा, तलवार, शार्ड़ग धनुष और श्रीवत्स आदि चिन्ह अपने शरीर पर धारण कर रखे थे । वक्षःस्थल पर कृतिम कौस्तुभमणि (जो कृतिम दिव्यता का आभास भी दे रही थी) और वनमाला भी लटक रही थी। उसने रेशमी पीले वस्त्र पहन रखे थे (भगवान विष्णु के जैसे) और रथ की ध्वजा पर गरूढ़ चिन्ह भी लगा रखा था।
उसने सिर पर अमूल्य मुकुट धारण किया हुआ था जो बिलकुल अद्भुत आभा दे रहा था और उसके कानों में मकराकृत कुण्डल जगमगा रहे थे, उस नकली कृष्ण ने अपना वेश पूरी तरह से दिव्य (किन्तु कृतिम रूप से) बना रखा था। वह ऐसा लग रहा था मानो कोई दूसरे ही लोक (ग्रह) का प्राणी धरती पर आया हो |
एक क्षण के लिए तो भगवान श्री कृष्ण अपने को चुनौती देकर श्री कृष्ण बताने वाले उस नकली अवतार को देख कर खिल-खिला कर हंस पड़े। कृष्ण की हँसी पौण्ड्रक को चुभ गयी | देखते ही देखते पौण्ड्रक ने भगवान श्री कृष्ण पर त्रिशूल, गदा तथा अन्य अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार किया। भगवान श्री कृष्ण ने अपने दिव्यास्त्रों से देखते ही देखते क्षण भर में पौण्ड्रक तथा काशिराज की सेना के हाथी, रथों तथा घोड़ों को तहस-नहस कर डाला। इसके बाद भगवान कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र के प्रहार से उस पाखण्डी अवतार का सिर धड़ से अलग कर डाला।
हिरण्यकशिपु का वध
पौण्ड्रक से भी हज़ारों वर्ष पहले इसी प्रकार से हिरण्यकशिपु ने भी स्वयं को ही परमेश्वर बता कर अपने पुत्र प्रहलाद को किसी अन्य को भगवान न मानने का दुराग्रह किया था। उस आततायी ने भगवान की भक्ति करने के आरोप में अपने ही पुत्र भक्तराज प्रहलाद को अनेक प्रकार से अमानवीय यातनाएं देने के कुत्सित प्रयास किये। अंत में उसके पापों का घड़ा भरा और भगवान नरसिंह ने खम्भे से प्रकट होकर उस स्वयम्भू भगवान हिरण्यकशिपु का पेट फाड़ कर उसके अहंकार को नष्ट कर डाला।
भारतवर्ष अवतारों की पावन लीला भूमि है। यहाँ भगवान श्री कृष्ण, भगवान श्री राम आदि अनेक अवतारों ने गो-ब्राह्मणों, संतजनों के रक्षार्थ तथा धर्म की पुनः स्थापना के लिये मानव रूप में अवतरित होकर लीलाएं कीं, किंतु यह अत्यन्त दुर्भाग्य की बात है कि पौण्ड्रक तथा हिरण्यकशिपु की तरह समय-समय पर अनेक ऐसे व्यक्ति पैदा होते रहते हैं, जो अपने को साक्षात अवतार होने का दावा कर भोले-भाले श्रद्धालुजनों का धार्मिक शोषण करते रहते हैं।
कुछ वर्षों पूर्व एक तथाकथित संत ने अपने को भगवान श्री कृष्ण का अवतार घोषित कर दिया। वे स्वयं सिर पर मोर मुकुट पहन कर हाथ में बांसुरी रखा करते थे। अपने चार पुत्रों को बाल भगवान बताया करते थे। देखते ही देखते लाखों अंधविश्वासी लोग उनके भक्त-शिष्य बन गये और उन्हें भगवान श्री कृष्ण का अवतार बता कर पूजने लगे। बाद में जब उनका एक पुत्र तथाकथित बाल भगवान एक विदेशी कन्या से विवाह कर उसे लेकर विदेश चला गया, तब लोगों का भ्रम टूटा।
अन्य नकली अवतार
इसी प्रकार से किसी जमाने में सिंध के सक्खर क्षेत्र में एक कथित संत ने अपने आप को साक्षात भगवान शिव घोषित कर दिया। उनका कथन था कि पुराणों में भगवान की गलत ढंग से कल्पना की गयी है, असली शिव तो मैं हूं। इन्होने भारतीय धर्म ग्रंथों को ही गलत बता दिया और स्वयं को ही शिव घोषित कर दिया |
आगा खां का नकली अवतार
इसी प्रकार से पंजाब में किसी समय आगा खां के अनुयायियों ने आगाखानी मत चलाया था। हिन्दुओं को अपने माया जाल में फंसाने के लिये उनके अनुयायियों ने घोषित किया था कि आगा खां ही भगवान के कल्कि अवतार हैं, उनके ऐसे चित्र छपवाकर वितरित किये जाते थे। एक बार शास्त्रार्थ महारथी पं0 माधवाचार्य शास्त्री जी तथा अन्य सनातनधर्मी विद्वानों ने लाहौर मे आगाखानी मत के नेताओं को चुनौती दी कि वे अपने को अवतार सिद्ध करें, अन्यथा भ्रम फैलाना बंद करें । तब जाकर उन्हें यह मिथ्या प्रचार बंद करने को बाध्य होना पड़ा था।
भारतवर्ष सदैव से धर्म परायण देश रहा है। असंख्य संत-महात्माओं, धर्माचार्यों, भक्तों ने जन्म लेकर भक्ति भागीरथी प्रवाहित की। किसी ने भी अपने को सर्वशक्तिमान ईश्वर का अवतार नहीं बताया। तमाम संत-महात्मा आचार्यगण पुराणों तथा धर्मशास्त्रों में वर्णित अवतारों की पूजा-उपासना कर मानव जीवन सार्थक बनाने का उपदेश और प्रेरणा देते रहे।
किसी ने भी भगवान की उपासना की जगह अपनी पूजा-उपासना नहीं बतायी। भगवान के विग्रह (मूर्ति)-की जगह अपनी मूर्ति का पूजन करने को नहीं कहा। अब अनेक कलियुगी कथित संत तथा गुरू भगवान के अवतारों की जगह अपनी पूजा-अर्चना कराने लगे हैं। उनके अंधविश्वासी भक्त प्रचार करते देखे जाते हैं कि गुरूजी का नाम-स्मरण करते ही संकट टल गया।
उनके चित्र का पूजन करने से बीमारी भाग गयी। अब तो अनेक तथाकथित गुरूओं के अंधविश्वासी चेलों ने गुरू को अवतार सिद्ध करने के लिये कुछ तथाकथित पंडितों से उनकी महत्ता पर, जीवन पर पदों की तुकबंदी करा कर हनुमान चालीसा जैसे दिव्य पदों की जगह गुरूचालीसा प्रकाशित करा कर उनका पाठ शुरू कर दिया है। ज्ञानी जन समझ सकते हैं |
उन पर लिखे काव्य ग्रंथ का रामचरितमानस की तरह पाठ किया जाने लगा है। गुरूओं की मूर्ति के समक्ष आरती की जाने लगी है। उनके लिए दिन विशेष को भी पवित्र मान लिया गया है | कई अंधविश्वासी चेलों ने तो अपने गुरूओं के मंदिर बनाने शुरू कर दिये हैं। कुछ को तो यह कर प्रचारित किया जाता है कि राम, कृष्ण, शिव आदि भगवान्, सब यही हैं |
उनको पूजने वालों ने मंदिर में भगवान श्री कृष्ण, भगवान श्री राम, महादेव शंकर, हनुमान जी आदि की मूर्तियों के स्थान पर (या उनसे भी ऊपर स्थान पर) तथाकथित गुरूओं की मूर्तियों की स्थापित करना शुरू कर दिया है। ये धार्मिक भ्रष्टाचार, पाखण्ड का चरम रूप है | और इनका सहारा ले कर अधर्मियों द्वारा मूर्ख हिन्दुओं को छला जा रहा है | प्रत्येक सनातनी को ‘योगेश्वर महाराज श्री कृष्ण’ के द्वारा प्रदत्त किये हुए ‘गीता ज्ञान’ को अवश्य पढ़ना चाहिए | ये उसका मूल कर्तव्य है | अगर आप गीता को पढ़ कर, महाभारत में निभाए गए, महाराज श्री कृष्ण के चरित्र का चिंतन करेंगे तो आपके ज्ञान चक्षु खुल जाएंगे | आपको समझ में आ जाएगा क्यों ऋषियों, महर्षियों ने इन्हे साक्षात् परमेश्वर कहा है |
ब्रह्मनिष्ठ संत उड़िया बाबा जी महाराज, महान विरक्त संत स्वामी कृष्णबोध आश्रम जी, महाराज, धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज जैसे तपोनिष्ठ संत प्रायः प्रवचन में कहा करते थे कि श्रद्धालुजनों को उन तथाकथित कलियुगी संतों से सतर्क रहना चाहिये जो अपने को सर्वशक्तिमान, साक्षात अवतार घोषित कर चेले-चेली बना कर उनका धार्मिक शोषण करते हैं।
ये सभी ब्रह्मानिष्ठ संत धर्म गुरूओं या संत-महात्माओं की मूर्तियां स्थापित कर उनका पूजन किये जाने को शास्त्र विरूद्ध मानते थे। वे विशेषकर महिलाओं को तो ऐसे मायावी कलियुगी नकली अवतारों से दूर ही रहने की प्रेरणा दिया करते थे। अतः हमें शास्त्रों में वर्णित अपने महान अवतारों के प्रति पूर्ण श्रद्धावान रहते हुए उनकी उपासना के माध्यम से मानव जीवन को सफल बनाते हुए कलियुगी नकली अवतारों से पूर्ण सावधान रहना चाहिये; अन्यथा हम अपने मानव जीवन को कलंकित ही कर लेंगे।
जहां तक पौण्ड्रक की बात है, तो वह भगवान के रूप का चाहे जिस भाव से हो, सदा चिंतन किया करता था, बनावटी वेश धारण करने में भी वह उन्हीं का बार-बार स्मरण करता था, अतः उसके तो सभी बंधन कट गये, भगवान के हाथों उसकी मृत्यु हुई और वह सारूप्य मुक्ति को प्राप्त हुआ, परंतु इन कलियुगी भगवानों को ध्येय तो सिर्फ स्वार्थ और शोषण ही है। भगवान के रूप का स्मरण-चिंतन तो दूर, परोक्ष में ये लोग सारे कार्य उनके सिद्धांतों के विपरीत ही करते हैं; अतः ऐसे वंचकों को तो दूर से ही प्रणाम करना चाहिये। गोस्वामी जी ने इनके विषय में लिखा है-
बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के।।