दिव्य शक्ति सम्पन्न वेदव्यास जी भगवान नारायण के कला अवतार थे। वे महा ज्ञानी महर्षि पराशर के पुत्र के रूप में प्रकट हुए थे। उनका जन्म कैवर्तराज की पोष्य पुत्री महाभागा सत्यवती के गर्भ से यमुना जी के द्वीप में हुआ था। इस कारण उन्हें ‘पाराशर्य’ और ‘द्वैपायन’ भी कहते हैं।
व्यास जी के और कितने नाम हैं
उनका वर्ण घननील था, इसलिए वे ‘कृष्णद्वैपायन’ नाम से प्रख्यात हैं। बदरी वन में रहने के कारण वे ‘बादरायण’ भी कहे जाते हैं। उन्हें अंगों और इतिहास सहित सम्पूर्ण वेद और परमात्म तत्त्व का ज्ञान स्वतः प्राप्त हो गया, जिसे दूसरे व्रतोपवासनिरत यज्ञ, तप और वेदाध्ययन से भी प्राप्त नहीं कर पाते।
वेदव्यास जी को वेदव्यास क्यों कहा जाता है
प्रारम्भ में वेद एक ही था। ऋषिवर अङ्गिरा ने उसमें से सरल तथा भौतिक उपयोग के छन्दों को पीछे से संगृहीत किया। वह संग्रह ‘अथर्वाड़िगरस’ या ‘अथर्ववेद’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। परम पुण्यमय सत्यवती नन्दन ने मनुष्यों की आयु और शक्ति को अत्यन्त क्षीण होते देख कर वेदों का व्यास (विभाग) किया। इसलिये वे ‘वेदव्यास’ नाम से जगत में प्रसिद्ध हुए।
वेदव्यास जी ने किन-किन ग्रंथों का निर्माण किया
फिर वेदार्थ-दर्शन की शक्ति के साथ अनादि पुराण (जो की सम्पूर्ण इतिहास है) को लुप्त होते देखकर भगवान कृष्ण द्वैपायन ने पुराणों का प्रणयन किया। उन पुराणों में निष्ठा के अनुरूप आराध्य की प्रतिष्ठा कर उन्होंने वेदार्थ चारों वर्णों के लिये सहज सुलभ कर दिया। अष्टादश पुराणों के अतिरिक्त बहुत से उप पुराण तथा अन्य ग्रंथ भी भगवान वेदव्यास द्वारा ही निर्मित हैं।
अत्यन्त विस्तृत पुराणों में कल्पभेद (अर्थात प्रत्येक कल्प में समयान्तर के भेद से उस कल्प का इतिहास अलग होता है) से चरित्र भेद पाये जाते हैं। समस्त चरित्र इस कल्प के अनुरूप हों तथा समस्त धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष-सम्बन्धी सिद्धांत भी उनमें एकत्र हो जायं-इस निश्चय से वेदव्यास जी ने महान ग्रन्थ ‘महाभारत’ की रचना की।
महाभारत को ‘पंचम वेद’ और ‘काष्र्णवेद’ भी कहते हैं। श्रुति का सारांश, भगवान वेदव्यास ने महाभारत में एकत्र कर दिया। इस महान ग्रंथ रत्न को भगवान व्यास बोलते जाते थे और साक्षात गणेश जी लिखते गये। जब वेदव्यास जी ने महाभारत लिखने के लिये गणेश जी से प्रार्थना की तो गणेश जी ने कहा-‘लिखते समय यदि मेरी लेखनी क्षण भर भी न रूके तो मैं यह कार्य कर सकता हूँ।’
महाभारत ग्रन्थ का निर्माण किस प्रकार संभव हुआ
‘मुझे स्वीकार है’ जीव मात्र के परम हितैषी वेदव्यास जी ने कहा-‘किंतु मै यह चाहता हूँ कि आप भी बिना समझे एक अक्षर भी ना लिखें।’ भगवान गणेश जी ने इसे स्वीकार कर लिया। कहा जाता है कि भगवान वेदव्यास ने, पूरे महाभारत में आठ हजार आठ सौ ऐसे श्लोकों की रचना की हैं, जिनका ठीक-ठीक अर्थ वे और व्यास नन्दन श्री शुक देव जी ही समझते हैं। जब गणेश जी ऐसे श्लोकों का अर्थ समझने के लिये कुछ देर रूकते, तब तक वेदव्यास जी और कितने ही श्लोकों की रचना कर डालते थे। इस प्रकार यह पंचम वेद यानि महाभारत लिपिबद्ध हुआ।
भगवान कृष्ण द्वैपयान ने ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद का अध्ययन क्रमशः अपने शिष्यों पैल, जैमिनि, वैशम्पायन और सुमन्तुको और महाभारत का अध्ययन रोमहर्षण सूत को कराया।
सर्वश्रेष्ठ वरदायक, महान पुण्यमय, यशस्वी वेदव्यास जी राजा जनमेजय के सर्प यज्ञ की दीक्षा लेने का संवाद पाकर वेद वेदांगों के पारंगत विद्वान शिष्यों के साथ उनके यज्ञ-मण्डप में पहुंचे। यह देख कर राजा जनमेजय बड़े हर्षित हुए। उन्होंने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक पराशर नन्दन वेदव्यास को सुवर्ण का पीठ देकर आसन की व्यवस्था की। फिर उन्होंने पाद्य, आचमनीय और अध्र्यादिक द्वारा उनकी सविधि पूजा की।
फिर राजा जनमेजय के अनुरोध से महर्षि वेदव्यास जी के शिष्य वैशम्पायन जी ने वेद वेत्ताओं में श्रेष्ठ, त्रिकालदर्शी, परम पवित्र, गुरूदेव वेदव्यास जी के चरणों में प्रणाम किया और उन्होंने राजा जनमेजय, सभासदगण तथा अन्य उपस्थित नरेशों के सम्मुख विस्तारपूर्वक व्यास विरचित कौरव-पाण्डवों का सुविस्तृत इतिहास ‘महाभारत’ सुनाया।
धृतराष्ट के पुत्रों द्वारा अधर्मपूर्वक पाण्डवों को राज्य से बहिष्कृत कर दिये जाने पर सर्वज्ञ वेदव्यास जी वन में उनके पास पहुंचे। वहां उन्होंने कुंती सहित पाण्डवों को धैर्य बंधाया और उनकी एक चक्रा नगरी के समीप एक ब्राह्मण के घर में रहने की व्यवस्था कर दी। फिर उनसे अपनी एक मास तक वहीं प्रतीक्षा करने का आदेश देकर वे लौट गये।
सत्यव्रत परायण वेदव्यास जी एक महीने के बाद पुनः पाण्डवों के समीप पहुँचे । उनसे उनका कुशल संवाद पूछ कर धर्म सम्बन्धी और अर्थ विषयक चर्चा की। फिर उन्होंने महाराज पृषत की पौत्री सती-साध्वी कृष्णा यानि द्रौपदी के पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनाकर पाण्डवों को उसके स्वयंवर में पांचाल नगर जाने की प्रेरणा दी। वेदव्यास जी ने पाण्डवों से कहा कि ‘सती द्रौपदी तुम्हीं लोगों की पत्नी नियत की गयी है।’
पाण्डव पांचाल नगर पहुंचे और स्वयंवर में अर्जुन ने लक्ष्य वेध कर सती द्रौपदी की जयमाला प्राप्त की, लेकिन जब माता कुंती के आदेश अनुसार युधिष्ठिर आदि पांचों भाईयों ने एक साथ द्रौपदी के साथ विवाह करना चाहा, तब महाराज द्रुपद ने इसे सर्वथा अनुचित और अधर्म समझ कर आपत्ति की।
उसी समय निग्रह अनुग्रह समर्थ वेदव्यास जी वहां पहुंच गये। वहां उन्होंने महारज द्रुपद को पाण्डवों एवं द्रौपदी के इस जीवन के पूर्व का विवरण ही नहीं दिया, बल्कि उन्हें दिव्य दृष्टि देकर उनके परम तेजस्वी स्वरूप का दर्शन भी करा दिया। फिर तो महाराज द्रुपद ने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक द्रौपदी का विवाह युधिष्ठिर आदि पांचों भाइयों के साथ कर दिया।
जब वेदव्यास जी ने युधिष्ठिर का राज्याभिषेक किया
फिर जब महाराज युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण के सत्परामर्श से राजसूय यज्ञ की दीक्षा ली, तब परब्रह्म और अपरब्रह्म के ज्ञाता कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास जी परम वेदज्ञ ऋत्विजों के साथ वहां पहुंचे। उक्त यज्ञ में स्वयं उन्होंने ब्रह्मा का ज्ञान संभाला और यज्ञ सम्पन्न होने पर देवर्षि नारद, देवल और असित मुनि को आगे करके महाराज युधिष्ठिर का अभिषेक किया।
अपने पौत्र युधिष्ठिर से विदा होते समय वेदव्यास जी ने अन्य बातों के अतिरिक्त उनसे कहा-‘राजन्! आज से तेरह वर्ष बाद दुर्योधन के पातक तथा भीम और अर्जुन के पराक्रम से क्षत्रिय-कुल का महा संहार होगा और उसके निमित्त तुम बनोगे। किंतु इसके लिये तुम्हें चिंता नहीं करनी चाहिये, क्योंकि काल सबके लिये अजेय है।’ इतनी बात कह कर ज्ञान मूर्ति वेदव्यास जी ने अपने वेदज्ञ शिष्यों सहित कैलास पर्वत के लिये प्रस्थान किया।
शुद्धात्मा वेदव्यास जी विपत्तिग्रस्त सरल एवं निश्चल पाण्डवों की समय-समय पर पूरी सहायता करते रहे। जब दुरात्मा दुर्योधन ने छलपूर्वक पाण्डवों का सर्वस्वापहरण कर उन्हें बारह वर्षों के लिये वन में भेज दिया, तब उसे प्रसन्नता हुई।
किंतु उसे इतने से ही संतोष नहीं हुआ, उसने कर्ण, दुःशासन और शकुनि के परामर्श से अरण्यवासी पाण्डवों को मार डालने का निश्चय कर लिया तथा समस्त प्रकार के शस्त्रों से सुसज्जित हो कर वे रथ पर बैठे ही थे कि दिव्य दृष्टि सम्पन्न वेदव्यास जी तत्काल वहां पहुंचे गये और दुर्योधन को समझा कर उसे इस भयानक अपकर्म से विरत किया ।
इसके बाद वे तुरंत महाराज धृतराष्ट्र के पास पहुंचे और उनसे कहा ‘वत्स! जैसे पाण्डु मेरे पुत्र हैं, वैसे ही तुम भी हो, उसी प्रकार ज्ञान सम्पन्न विदुर जी भी हैं।
मैं स्नेहवश ही तुम्हारे और सम्पूर्ण कौरवों के हित की बात कहता हूँ। तुम्हारा दुष्ट पुत्र दुर्योधन क्रूर ही नहीं, अत्यन्त मूढ़ भी है। तनिक सोचो, छलपूर्वक राज्य लक्ष्मी से वंचित पाण्डवों के मन में तेरह वर्षों तक अरण्यवास की यातना सहते-सहते तुम्हारें पुत्रों के प्रति कितना भयानक विष भर जायेगा! वे तुम्हारे दुष्ट पुत्रों को कैसे जीवित रहने देंगे!
इतने पर भी दुर्योधन उनका नृशंसतापूर्वक वध कर डालना चाहता है। यदि दुर्योधन की इस कुप्रवत्ति की उपेक्षा न हुई, उसे नहीं रोका गया, तो तुम्हारे सहित तुम्हारे निर्मल वंश को कलंकित ही नहीं होना पड़ेगा, बल्कि उसका सर्वनाश भी हो जायगा। उचित तो यह है कि तुम्हारा पुत्र दुर्योधन एकाकी ही पाण्डवों के साथ वन में जाय। उनके संसर्ग से उसकी बुद्धि शुद्ध होकर उसके वैर-भाव का शमन हो सकता है।’
‘किंतु महाराज! जन्म के समय किसी प्राणी का जो स्वभाव होता है, वह मृत्युपर्यन्त बना रहता है, यह बात मेरे सुनने में आयी है।’ ‘राजन! महर्षि मैत्रेय वन में पाण्डवों से मिल कर आ रहे हैं। वे निश्चय ही सत्सम्मति प्रदान करेंगे। उनकी आज्ञा मान लेने में ही कौरव-कुल का हित है।’ इतनी बात कह कर वेदव्यास जी चले गये।
दुर्योधन ने महर्षि मैत्रेय की उपेक्षा की, इस कारण उन्होंने उसे अत्यन्त अनिष्ठ कर शाप दे दिया। अरण्यवास के समय एक बार जब युधिष्ठिर अत्यन्त चिंतित थे, तब त्रिकालदर्शी वेदव्यास जी उनके पास पहुंचे और उन्होंने युधिष्ठिर को समझाया ‘भरत श्रेष्ठ! अब तुम्हारे कल्याण का सर्वेश्रेष्ठ अवसर उपस्थित हो चला है। तुम चिंता मत करो। तुम्हारे शत्रु शीघ्र ही पराजित हो जायेंगे।’
जब वेदव्यास जी ने युधिष्ठिर और पांडवों को दिव्य सिद्धियां प्रदान की
इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर को आश्वस्त करते हुए सर्व समर्थ वेदव्यास जी ने उन्हें मूर्तिमती सिद्धि तुल्य ‘प्रतिस्मृति’ नामक विद्या प्रदान कर दी, जिसके द्वारा उन्हें देवताओं के दर्शन की क्षमता प्राप्त हो गयी। इतना ही नहीं, वेदव्यास जी ने पाण्डवों के हित के लिये उन्हें (पांडवों को) और भी अनेक शुभ सिद्धियां प्रदान की।
भगवान वेदव्यास ने संजय को भी दिव्य दृष्टि प्रदान कर दी, जिससे उन्होंने महाभारत युद्ध ही नहीं देखा, अपितु भगवान श्री कृष्ण के मुखारविन्द से निस्सृत श्री मदभगवद गीता का भी श्रवण कर लिया, जिसे महाभाग पार्थ के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं सुन पाया था। इतना ही नहीं, उक्त दिव्य दृष्टि के प्रभाव से संजय ने श्री भगवान के विश्व रूप का भी अत्यन्त दुर्लभ दर्शन प्राप्त कर लिया।
पराशर नन्दन वेदव्यास जी कृपा की मूर्ति ही थे। एक बार उन्होंने मार्ग में आते हुए रथ के कर्कश स्वर को सुनकर प्राण भय से भागते एक क्षुद्र कीड़े को देखा। कीड़े से उन्होंने बातचीत किया तथा अपने तपोबल से उसे अनेक योनियों से निकाल कर शीघ्र ही मनुष्य-योनि प्राप्त करा दी। फिर क्रमशः क्षत्रिय-कुल एवं ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न होकर उस भूतपूर्व कीट ने दयामय वेदव्यास जी के अनुग्रह से अत्यन्त दुर्लभ सनातन ‘ब्रह्मपद’ प्राप्त कर लिया। पूरी कथा पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक करें
महर्षि वेदव्यास की शक्ति अलौकिक थी। एक बार जब महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था तब वे वन में धृतराष्ट्र और गान्धारी से मिलने गये, संयोग से उस समय सपरिवार युधिष्ठिर भी वहीं उपस्थित थे। धृतराष्ट्र ने वेदव्यास जी से अपने कुटुम्बियों और स्वजनों को देखने की इच्छा व्यक्त की।
जब वेदव्यास जी ने काल के सार्वभौमिक बंधन को काट कर दूसरे लोकों की यात्राएं करायी
रात्रि में महर्षि वेदव्यास के आदेश अनुसार धृतराष्ट्र आदि गंगा-तट पर पहुंचे। व्यास जी ने गंगा जल में प्रवेश किया और दिवंगत योद्धाओं को पुकारा। फिर तो जल में युद्धकाल का सा कोलाहल सुनायी देने लगा साथ ही पाण्डव और कौरव दोनों पक्षों के योद्धा और राजकुमार, भीष्म और द्रोण के पीछे निकल आये। सबकी वेष-भूषा, शस्त्र सज्जा, वाहन और ध्वजाएँ पूर्ववत थीं। सभी ईष्र्या-द्वेष से शून्य दिव्य-देहधारी दीख रहे थे। वे रात्रि भर में अपने स्नेही सम्बन्धियों से मिले और सूर्योदय के पहले ही भगवती भागीरथी में प्रवेश कर अपने-अपने लाकों के लिये चले गये।
‘जो स्त्रियां अपने पति के लोक में, उनके पास जाना चाहें, वो इस समय गंगा जी में डुबकी लगा लें।’ वेदव्यास जी के वचन सुन जिन वीरगति प्राप्त योद्धाओं की पत्नियों ने गंगा जी में प्रवेश किया, वे दिव्य वस्त्र आभूषणों से सुसज्जित होकर विमान में बैठीं और सबके देखते-देखते अभीष्ट लोक के लिये प्रयाण कर गयीं।
नाग यज्ञ की समाप्ति पर जब यह घटना परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने महर्षि वैशम्पायन से सुनी, तब उन्हें इस अदभुत घटना पर सहसा विश्वास न हुआ और उन्होंने इस पर शंका की। वैशम्पायन ने उसका बड़ा ही युक्तिपूर्ण आध्यात्मिक समाधान किया। (महा0, आश्रमवासिक0 24)। पर वे इस पर भी न माने और कहा कि ‘भगवान वेदव्यास यदि मेरे पिता जी को भी उसी वयो रूप में ला दें तो मैं विश्वास कर सकता हूँ।’
भगवान वेदव्यास वहीं उपस्थित थे और उन्होंने जनमेजय पर पूर्ण कृपा की। परिणाम स्वरुप श्रृंडगी, शमीक एवं मंत्री आदि के साथ राजा परीक्षित वहां उसी रूप-वय में प्रकट हो गये। अवभृथ (यज्ञान्त)-स्नान में वे सब सम्मिलित भी हुए और फिर उन्हें आशीर्वाद आदि दे कर वहीं अन्तर्धान हो गये।
महर्षि वेदव्यास मूर्ति मान धर्म थे। आद्य शंकराचार्य तथा अन्य कितने ही महापुरूषों ने उनका दर्शन-लाभ किया है। अब भी श्रद्धा-भक्ति सम्पन्न अधिकारी महात्मा ही उनके दर्शन प्राप्त कर सकते हैं। दया, धर्म ज्ञान एवं तप की परमोज्जवल मूर्ति उन महामहिम वेदव्यास जी के चरण कमलों में बार-बार प्रणाम।