अपने वन गमन के दौरान जिस वन में युधिष्ठिर आदि सो रहे थे, उससे थोड़ी ही दूर पर एक शाल-वृक्ष था । उस पर हिडिम्बासुर बैठा हुआ था । वह बड़ा क्रूर, पराक्रमी एवं मांसभक्षी था । उसके शरीर का रंग एकदम काला, आँखें पीली और आकृति बड़ी भयानक थी । दाढ़ी-मूंछ और सिर के बाल लाल-लाल थे तथा बड़ी-बड़ी डाढों के कारण उसका मुख अत्यन्त भीषण था ।
उस समय उसे भूख लगी थी । मनुष्य की गन्ध पाकर उसने पाण्डवों की ओर देखा और फिर अपनी बहिन हिडिम्बा से कहा, “बहिन ! आज बहुत दिनों के बाद मुझे अपना प्रिय मनुष्य-मांस मिलने का सुयोग दीखता है । जीभ पर बार-बार पानी आ रहा है । आज मैं अपनी डाढ़ें इनके शरीर में डुबा दूंगा और ताजा-ताजा गरम खून पीऊँगा ।
तुम इन मनुष्यो को मारकर मेरे पास ले आओ । तब हम दोनों इन्हें खायेंगे और ताली बजा-बजाकर नाचेंगे । अपने भाई की आज्ञा मानकर वह राक्षसी बहुत जल्दी-जल्दी पाण्डवों के पास पहुँची । उसने जाकर देखा कि कुन्ती और युधिष्ठिर आदि तो सो रहे हैं, लेकिन महाबली भीमसेन जग रहे हैं ।
भीमसेन के विशाल शरीर और परम सुन्दर रूप को देखकर हिडिम्बा का मन बदल गया और वह सोचने लगी ‘इनका वर्ण श्याम है, बाँहें लंबी हैं, सिंह के समान कंधे हैं, शंख की तरह गर्दन और कमल-से सुकुमार नेत्र हैं । रोम-रोम से छबि छिटक रही है । अवश्य ही ये मेरे पति होने योग्य हैं । मैं अपने भाई की क्रूरतापूर्ण बात नहीं मानूंगी क्योंकि भ्रातृ प्रेम से बढ़कर पति-प्रेम है ।
यदि इन्हें मारकर खाया जाय तो थोड़ी देर तक हम दोनों तृप्त रह सकते हैं, परन्तु इनको जीवित रखकर तो मैं बहुत वर्षां तक सुख-भोग कर सकती हूँ’ । यह सोचकर हिडिम्बा ने मानुषी स्त्री का रूप धारण किया और धीरे-धीरे भीमसेन के पास गयी |
दिव्य गहने और वस्त्रों से भूषित सुन्दरी हिडिम्बा ने कुछ संकोच के साथ मुसकराते हुए पूछा, “पुरुषशिरोमणे ! आप कौन, कहाँ से आये हैं ? ये सोने वाले पुरुष कौन हैं ? ये बड़ी-बूढ़ी स्त्री कौन हैं ? ये लोग इस घोर जंगल में घर की तरह नि:शंक होकर सो रहे हैं । इन्हें पता नहीं कि इसमें बड़े-बड़े राक्षस रहते हैं और हिडिम्ब राक्षस तो पास ही है ।
मैं उसी की बहिन हूँ | आप लोगों का मांस खाने की इच्छा से ही उसने मझे यहाँ भेजा है । मैं आपके देवोपम सौन्दर्य को देखकर मोहित हो गयी हूँ । मैं आपसे शपथ पूर्वक सत्य कहती हूँ कि आपके अतिरिक्त और किसी को अब अपना पति नहीं बना सकती । आप धर्मज्ञ हैं । जो उचित समझें, करें । मैं आपसे प्रेम करती हूँ ।
आप भी मुझसे प्रेम कीजिये । मैं इस नरभक्षी राक्षस से आपकी रक्षा करूँगी और हम दोनों सुख से पर्वतों की गुफा में निवास करेंगे | मैं स्वेच्छानुसार आकाश में विचर सकती हूँ । आप मेरे साथ अतुलनीय आनन्द का उपभोग कीजिये” ।
भीमसेन ने कहा, “अरी राक्षसी ! मेरी माँ, बड़े भाई और छोटे भाई सुख से सो रहे हैं । मैं इन्हें तो छोड़कर राक्षस का भोजन बना दूँ और तेरे साथ काम-क्रीड़ा करने के लिये चला चलूँ, यह भला कैसे हो सकता है” । हिडिम्बा ने कहा, “आप जैसे प्रसन्न होंगे, मैं वही करूँगी । आप इन लोगों को जगा दीजिये, मैं राक्षस से बचा लूंगी” ।
भीमसेन बोले, “वाह वाह ! यह खूब रही । मैं अपने सुख से सोये हुए भाइयों और माँ को दुरात्मा राक्षस के भय से जगा दूं ? जगत का कोई भी मनुष्य, राक्षस अथवा गन्धर्व मेरे सामने ठहर नहीं सकता । सुन्दरि ! तुम जाओ या रहो, मुझे इसकी कोई परवाह नहीं है” ।
उधर राक्षसराज हिडिम्ब ने सोचा कि मेरी बहिन को गये बहुत देर हो गयी । इसलिये उस वृक्ष से उतरकर वह पाण्डवों की ओर चला । उस भयंकर राक्षस को आते देखकर हिडिम्बा ने भीमसेन से कहा, “देखिये, देखिये, वह नरभक्षी राक्षस क्रोधित होकर इधर आ रहा है । आप मेरी बात मानिये । मैं स्वेच्छानुसार चल सकती हूँ । मुझमें राक्षसबल भी है । मैं आपको और इन सबको लेकर आकाश मार्ग से उड़ चलूँगी” ।
भीमसेन बोले, “सुन्दरि । तू डर मत । मेरे रहते कोई राक्षस इनका बाल बाँका नहीं कर सकता । मैं तेरे सामने उसे मार डालूँगा । देख मेरी यह बाँह और मेरी यह जाँघ ! यह क्या, कोई भी राक्षस इनसे पिस जायगा । मुझे मनुष्य समझकर तू मेरा तिरस्कार न कर” । इस तरह की बातें हो ही रही थीं कि उन्हें सुनता हुआ हिडिम्ब वहाँ आ पहुँचा ।
उसने देखा कि मेरी बहिन तो मनुष्यों का-सा सुन्दर रूप धारण करके खुब बन ठन और सज-धजकर भीमसेन को पति बनाना चाहती है । वह क्रोध से तिलमिला उठा और बड़ी-बड़ी आँखें फाड़कर कहने लगा, “अरे हिडिम्बा ! मैं इनका मांस खाना चाहता हूँ और तू इसमें विघ्न डाल रही है। धिक्कार है ! तूने हमारे कुल में कलंक लगा दिया । जिनके सहारे तूने ऐसी हिम्मत की है, देख मैं तेरे सहित उन्हें अभी मार डालता हूँ” ।
यह कहकर हिडिम्ब दाँत पीसता हुआ अपनी बहिन और पाण्डवों की ओर झपटा । भीमसेन ने उसे आक्रमण करते देखकर डाँटते हुए कहा, “ठहर जा ! ठहर जा ! मूर्ख ! तू इन सोते हुए भाइयों को क्यों जगाना चाहता है ? तेरी बहिन ने ही ऐसा क्या अपराध कर दिया है ? हिम्मत हो तो मेरे सामने आ । तेरे लिये मैं अकेला ही काफी हूँ, तू स्त्रीपर हाथ न उठा” ।
भीमसेन ने बलपूर्वक हँसते हुए उसका हाथ पकड़ लिया और वे उसको वहाँ से बहुत दूर घसीट ले गये । इसी प्रकार एक-दूसरे को कसकते मसकते तनिक और दूर चले गये और वृक्ष उखाड़ उखाड़कर पारजते हुए लड़ने लगे । उनकी गर्जना सुनकर कुन्ती और पाण्डवों की नींद खुल गयी । उन लोगों ने आँख खुलते ही देखा कि सामने परम सुन्दरी हिडिम्बा खड़ी है ।
उसके रूप-सौन्दर्य से विस्मित होकर कुन्ती ने बड़ी मिठास के साथ धीरे धीरे कहा, “सुन्दरि ! तुम कौन हो ? यहाँ किसलिये और कहाँ से आयी हो” ? हिडिम्बा ने कहा, “यह जो काला काला घोर जंगल हैं, वही मेरा और मेरे भाई हिडिम्ब का वासस्थान है । उसने मुझे तुम लोगों को मार डालने के लिये भेजा था । यहाँ आकर मैंने तुम्हारे परम सुन्दर पुत्र को देखा और मोहित हो गयी ।
मैंने मन-ही-मन उनको पति मान लिया और उन्हें यहाँ से ले जाने की चेष्टा की, परंतु वे विचलित नहीं हुए । मुझे देर करते देख मेरा भाई स्वयं यहाँ चला आया और उसे तुम्हारे पुत्र घसीटते हुए बहुत दूर ले गये हैं । देखो, इस समय वे दोनों गरजते हुए एक-दूसरे को रगड़ रहे हैं” ।
हिडिम्बा की यह बात सुनते ही चारों पाण्डव उठकर खड़े हो गये और देखा कि वे दोनों एक-दूसरे को परास्त करने की अभिलाषा से भिड़े हुए हैं । भीमसेन को कुछ दबते देखकर अर्जुन ने कहा, “भईया, कोई डर नहीं । नकुल और सहदेव माँ की रक्षा करते हैं । मैं अभी इस राक्षस को मारे डालता हूँ” । भीमसेन वहीँ से बोले, “भाई अर्जुन ! चुपचाप खड़े रहकर देखो, घबराओ मत । मेरी बाँहों के भीतर आकर यह बच नहीं सकता” ।
अब भीमसेन ने क्रोध से जल-भुनकर आँधी की तरह झपटकर उसे उठा लिया और अन्तरिक्ष में सौ बार घुमाया । भीमसेन ने कहा, “रे राक्षस ! तू व्यर्थ के मांस से झूठ-मूठ का इतना हट्टा-कट्टा हो गया था । तेरा बढ़ना व्यर्थ और तेरा विचारना व्यर्थ । जब तेरा जीवन ही व्यर्थ है, तब मृत्यु भी व्यर्थ होनी चाहिये” ।
इस प्रकार कहकर भीमसेन ने उसे जमीन पर दे मारा । उसके प्राण-पखेरू उड़ गये । अर्जुन ने भीमसेन का सत्कार करके कहा, “भाई जी ! यहाँ से वारणावत नगर कुछ बहुत दूर नहीं है । चलिये, यहाँ से जल्दी निकल चलें । कहीं दुर्योधन को हमारा पता न चल जाय” । इसके बाद माता के साथ सब लोग वहाँ से चलने लगे । हिडिम्बा राक्षसी भी उनके पीछे-पीछे चल रही थी |