देवराज इन्द्र जिनके पावन चरण कमलों की भक्तिपूर्वक निरंतर सेवा करते हैं, जो व्यालरूपी विकाराल यज्ञ सूत्र धारण करने वाले हैं, जिनके ललाट पर चंद्रमा शोभायमान है, जो दिगम्बर स्वरूपधारी हैं, कृपा की मूर्ति हैं, नारद आदि सिद्ध योगिवृन्द जिनकी सेवा में लगे रहते हैं, उन काशीपुरी के अभिरक्षक स्वामी काल भैरव की मैं चरण वंदना करता हूँ।
जो करोड़ों सूर्य के समान दीप्तिमान हैं, जो भयावह भव सागर पार करने वाले परम समर्थ प्रभु हैं, जो नीले कण्ठ वालेे, अभीष्ट वस्तु को देने वाले और तीन नेत्रों वाले हैं, जो काल के भी काल, कमल के समान सुन्दर नयनों वाले, अक्षमाला और त्रिशूल धारण करने वाले अक्षर पुरूष हैं, उन काशीपुरी के प्रभु काल भैरव की मैं आराधना करता हूँ।
भगवान भैरव का अवतरण किस लिए हुआ था?
अधर्म मार्ग को अवरूद्ध कर, धर्म-सेतु की प्रतिष्ठापना करने वाले, स्वभक्तों को अभीष्ट सिद्धि प्रदान करने वाले, काल को भी कंपा देने वाला, प्रचण्ड तेजो मूर्ति, अघटितघटन-सुघट-विघटन-पटु, काल भैरव जी भगवान शंकर के पूर्ण अवतार हैं, जिनका अवतरण ही पंचानन ब्रह्मा एवं विष्णु के गर्वापहरण के लिये हुआ था।
भैरवी-यातना-चक्र में तपा-तपा कर पापियों के अनन्तानन्त पापों को नष्ट कर देने की विलक्षण क्षमता उन्हें प्राप्त है। देव मण्डली सहित देवराज इन्द्र और ऋषि मण्डली सहित देवर्षि नारद उनकी स्तुति कर अपने को धन्य मानते हैं। उनकी महिमा अदभुत है। उनकी लीलाएं विस्मयकारिणी हैं। उन महा महिमावान के चरणों में शीश नवाते हुए यहां उनका संक्षिप्त आख्यान शिव पुराण के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है|
भगवान विष्णु एवं ब्रह्मा जी में विवाद
अति प्राचीन काल की बात है | एक बार सुमेरू पवर्त के मनोरम शिखर पर ब्रह्मा और विष्णु जी बैठे हुए थे। उसी काल में परम-तत्त्व की जिज्ञासा से प्रेरित होकर समस्त देव और ऋषिगण वहां आ पहुंचे। उन्होंने श्रद्धा-विनयपूर्वक शीश झुका कर, हाथ जोड़ कर ब्रह्मा जी से निवेदन किया-‘हे देवाधि देव! प्रजापति! लोेक पिता! लोक पालक! कृपा कर हमें परम अविनाशी तत्व का उपदेेश दें। हमारेे मन मेें उस परम-तत्व कोेे जाननेे की प्रबल अभिलाषा है।’
भगवान शंकर की विश्व मोेहिनी माया के प्रभाव से मोह ग्रस्त हो ब्रह्मा जी यथार्थ तत्व बोध न करा कर आत्म प्रशंसा में प्रवृत्त हो गये। वे कहने लगे-
‘हे समुउपस्थित देव एवं ऋषि गण! आदरपूर्वक सुनें- मैं ही जगच्चक्र का प्रवर्तक, संवर्तक और निवर्तक हूँ। मैं धाता, स्वयम्भू, अज, अनादि ब्रह्म तथा एक निरंजन आत्मा हूँ। मुझसे श्रेष्ठ कोई नहीं है’।
सभा में विद्यमान भगवान विष्णु को उनकी आत्मश्लाघा नहीं रूची। भला अपनी अवहेलना किसे उचित लगती है? अमर्ष भरे स्वर में उन्होंने प्रतिवाद किया- हे धाता! आप कैसी मोह भरी बातें कर रहे हैं? मेरी आज्ञा से ही तो आप सृष्टि कार्य में प्रवृत्त हैं। मेरे आदेश की अवहेलना कर किसी की प्राण रक्षा सम्भव नहीं। कदापि सम्भव नहीं’|
वेदों द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य
पारस्परिक विवाद-क्रम में आरोप-प्रत्यारोप का स्वर उत्तरोत्तर तीखा होता गया। विवाद-समापन-क्रम में जब वेदों से साक्ष्य मांगा गया तो वहां उपस्थित हो कर उन्होंने शिव को परम तत्व अभिहित किया। माया विमोहित ब्रह्मा तथा भगवान विष्णु किसी को भी वेद-साक्ष्य रास नहीं आया। वे बोल पड़े ‘अरे वेदों! तुम्हारा ज्ञान नष्ट हो गया है क्या? भला अशुभ वेशधारी, धूलिधूसर, पीतवर्ण, दिगम्बर, रात-दिन शिवा के साथ रमण करने वाले शिव कभी परम तत्व कैसे हो सकते हैं?
प्रणव का प्राकट्य
वाद-विाद के कटुत्व को समाप्त करने हेतु प्रणव ने मूर्त रूप धारण कर भगवान शिव की महिमा प्रकट करते हुए कहा-लीला रूपधारी भगवान शिव अपनी शक्ति के बिना कभी रमण नही कर सकते। वे परमेश्वर शिव जी स्वयं सनातन ज्योति स्वरूप हैं और उनकी आनंदमयी यह ‘शिवा’ नामक शक्ति आन्तुक की न होकर शाश्वत है। अतः आप दोनों अपने भ्रम का परित्याग करें |
भगवान शिव का प्राकट्य एवं उनका क्रोध करना
ऊँ कार के निभ्र्रान्त वचनों को सुन कर भी प्रबल भवितव्यता विवश ब्रह्मा एवं विष्णु का मोह दूर नहीं हुआ तो उस स्थल पर एक दिव्य ज्योति प्रकट हुई, जो भूमण्डल से लेकर आकाश तक परिव्याप्त हो गयी। उसके मध्य में दोनों ने एक ज्योतिर्मय पुरूष को देखा।
उस समय ब्रह्मा के पांचवें मुख ने कहा ‘हम दोनों के बीच में यह तीसरा कौन है जो पुरूष रूप धारण कर लिया। विस्मय को और अधिक सघन करते हुए उस ज्योति पुरूष ने त्रिशूलधारी, नीललोहित स्वरूप धारण कर लिया। ललाट पर चंद्रमा से विभूषित उस दिव्य स्वरूप को देख कर भी ब्रह्मा जी का अहंकार पूर्ववत रहा। पहले की तरह ही वे बोल पड़े ‘आओ, आओ वत्स चंद्रशेखर, आओ। डरो मत। मैं तुम्हें जानता हूँ। पहले तुम मेरे मस्तक से पैदा हुए थे। रोनेे के कारण मैंने तुम्हारा नाम ‘रूद्र’ रखा है। मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा।’
भगवान भैरव का प्राकट्य
ब्रह्मा जी की गर्वमयी बातें सुन कर भगवान शिव कुपित हुए और उन्होंने भयंकर क्रोध में आकर ‘भैरव’ नामक पुरूष को पैदा किया, जिन्हें ब्रह्मा को दण्डित करने का प्रथम कार्य सौंपा गया| उनका नाम करण करते हुए भगवान शिव ने व्यवस्था दीे ‘हे महाभाग! काल भी तुमसे डरेगा, इसलिये तुम्हारा विख्यात नाम ‘काल भैरव’ होगा।
उनके अतिरिक्त नामों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा’ हे वत्स! तुम काल के समान शोभायमान हो, इसलिये तुम्हारा नाम ‘कालराज’ रहेगा। तुम कुपित होकर दुष्टों का मर्दन करोगे, इसलिये तुम्हारा नाम ‘आमर्दक’ होगा। भक्तों के पापों का तत्काल भक्षण करने की सामर्थ्य से युक्त होने के कारण तुम्हारा नाम ‘पाप भक्षण’ होगा।
इसके बाद भगवान शिव ने उसी क्षण उन्हें काशीपुरी का आधिपत्य भी सौंप दिया और कहा ‘मेरी जो मुक्तिदायिनी काशी नगरी है, वह सभी नगरियों से श्रेष्ठ है, हे कालराज! आज से यहां तुम्हारा सदा ही आधिपत्य रहेगा’ |
भगवान भैरव के पीछे ब्रह्महत्या का पड़ जाना
भगवान शिव से इस प्रकार वरदान प्राप्त कर काल भैरव ने अपनी बायीं उंगली के नख से शिव निन्दा में प्रवृत्त ब्रह्मा जी के पांचवे मुख को काट दिया, यह विचार कर कि पापी अंग का ही शासन अभीष्ट है।
वह पांचवां मुख (कपाल) उनके हाथ में आ चिपका। इस घटना से भयभीत विष्णु और ब्रह्मा जी शत रूद्री का पाठ कर भगवान शिव से कृपा याचना करने लगे। दोनों का अभिमान नष्ट हो गया। उन्हें यह भली भांति ज्ञात हो गया कि साक्षात शिव ही सच्चिदानंद परमेश्वर गुणातीत पर ब्रह्म हैं। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर शिव जी ने भैरव को ब्रह्मा-विष्णु के प्रति कृपालु होने का आदेश दिया |
उन्होंने उनसे कहा ‘हे नील लोहित! तुम ब्रह्मा और विष्णु का सतत सम्मान करना। ब्रह्मा जी कोे दण्ड देनेे केे क्रम मेें हेे भैरव! तुुम्हारेे द्वारा उन्हें कष्ट पहुंचा है, अतः लोेक शिक्षार्थ तुुम प्रायश्चित स्वरूप ब्रह्म हत्या निवारक कापालिक व्रत का आचरण कर भिक्षावृत्ति धारण करो’|
भगवान भैैरव प्रायश्चिताचरण-लीला में तत्काल प्रवृत्त हो गये। ब्रह्म हत्या विकराल स्त्री का रूप धारण कर उनका अनुगमन करने लगी। तदनन्तर भिक्षाटन करते हुए भगवान भैरव वाराणसी पुरी के ‘कपालमोचन’ नामक तीर्थ पर पहुंचे, जहां आते ही उनके हाथ से चिपका हुआ कपाल छूट कर गिर गया और वह ब्रह्म हत्या पाताल में प्रविष्ट हो गयी।
भगवान् भैरव द्वारा काशी का दायित्व संभालना
अपना प्रायश्चित पूरा कर वे वाराणसी पुरी की पूर्ण सुरक्षा का दायित्व संभालने लगे। बटुक भैरव, आस भैरव, आनंद भैरव आदि उनके विविध अंश स्वरूप हैं। उनकी महिमा वर्णनातीत है। वे भगवान शिव के आदेश-‘तत्र (वाराणस्यां) ये पातकिनरास्तेषां शास्ता त्वमेव हि।’ का अनुपालन कर रहे हैं। उनकी महिमा विषय में भगवान विष्णु कहते हैं-
‘ये धाता, विधाता, लोकों के स्वामी और ईश्वर हैं। ये अनादि, सबके शरणदाता, शान्त तथा छब्बीस तत्वों से युक्त हैं। ये सर्वज्ञ, सब योगियों के स्वामी, सभी जीवों के नायक, सभी भूतों की अंतरात्मा और सबको सब कुछ देने वाले हैं’।
भैरव जयंती कब होती है?
भगवान भैरव का अवतरण अगहन मास की अष्टमी तिथि (कृष्ण पक्ष)-को हुआ था, अतः उक्त तथि को उनकी जयंती धूम-धामपूर्वक मनायी जाती है-
उपर्युक्त मास तथा तिथि को भक्तिभावपूर्वक उनकी पूजा करने से जन्म-जंमान्तर के पाप नष्ट हो जाते हैं। स्वयं भगवान शिव ने भैरव उपासना की महिमा बताते हुए पार्वती जी से कहा है ‘हे देवि! भैरव का स्मरण पुण्यदायक है। यह स्मरण समस्त विपत्तियों का नाशक, समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाला तथा साधकों को सुखी रखने वाला है, साथ ही लम्बी आयु प्रदान करता है और यशस्वी भी बनाता है’।
वाराणसी के आठ भैरव कौन कौन हैं ?
मंगलवार युक्त अष्टमी और चर्तुदशी को काल भैरव के दर्शन का विशेष महत्व है। वाराणसी में अष्ट दिशाओं में स्थापित अष्ट भैरवों-रूरूभैरव, चण्ड भैरव, आसितागड़ भैरव, कपाल भैरव, क्रोध भैरव, उन्मत्त भैरव तथा संहार भैरव का दर्शन-आराधन अभीष्ट फलप्रद है। रोली, सिंदूर, रक्त चंदन का चूर्ण, लाल फूल, गुड़, उड़द का बड़ा, धान का लावा, ईख का रस, तिल का तेल, लोहबान, लाल वस्त्र, भुना केला, सरसों को तेल-ये भैरव जी की प्रिय वस्तुएं हैं, अतः इन्हे भक्तिपूर्वक समर्पित करना चाहिये।
भगवान भैरव शाक्त साधकों के भी परमाराध्य हैं। ये ही भक्तों की प्रार्थना भगवती दुर्गा के पास पहुंचाते हैं। देवी के प्रसिद्ध 51 पीठों की रक्षा में ये भिन्न-भिन्न नाम-रूप धारण कर अहर्निश साधकों की सहायता में तत्पर रहते हैं। प्रतिदिन भैरव जी की आठ बार प्रदक्षिणा करने से मनुष्यों के सर्वविध पाप विनष्ट हो जाते हैं| ऐसे महा प्रभु भैरव समस्त जनों के पाप-ताप का शमन करें।