महर्षि जमदग्नि की पति परायणा पत्नी (महाराज रेणु की पुत्री) रेणुका के गर्भ से पांच पुत्र उत्पन्न हुए-रूमण्वान, सुषेण, वसु, विश्वासु और पांचवें सबसे छोटे परशुराम। इनमें से सबसे छोटे पुत्र परशुराम निखिल सृष्टिनायक श्री विष्णु के आवेश अवतार हैं । प्रकट होते ही ये पार्वती वल्लभ भगवान शंकर की आराधना करने के लिये कैलास पर्वत पर चले गये। देवाधि देव महादेव ने संतुष्ट होकर इन्हें वर मांगन के लिये कहा। परशुराम जी बोले-‘प्रभो! आप कृपापूर्वक मुझे कभी कुण्ठित न होने वाला अमोघ अस्त्र प्रदान कीजिये।’
भगवान शंकर का दिव्य परशु जिसे प्राप्त करने के बाद वे परशुराम कहलाये
भगवान शंकर ने इन्हें अनेक अस्त्र-शस्त्रों सहित दिव्य परशु प्रदान किया। वह दिव्य परशु भगवान शंकर के उसी महा तेज से निर्मित हुआ था, जिससे श्री विष्णु के सुदर्शन चक्र और देवराज इन्द्र का व्रज बना था। अत्यन्त तीक्ष्ण धार वाला अमोघ परशु धारण करने के कारण भगवान ‘राम’ का परशु सहित नाम ‘परशुराम’ पड़ा।
परशुराम जी का बाल्यकाल
परशुराम जी बाल्य काल से ही अत्यन्त वीर, पराक्रमी, अस्त्र-शस्त्र विद्या के प्रेमी, त्यागी, तपस्वी एवं सुदंर थे। धनुर्वेद की विधिवत शिक्षा इन्होंने अपने पिता से ही प्राप्त की। ये ‘रूरू’ नामक मृग का चर्म धारण करते। कंधे पर धनुर्बाण एवं हाथ में दिव्य परशु लेकर चलते समय ये वीर रस के सजीव विग्रह प्रतीत होते थे। पिता के चरणों में इनकी अनन्य भक्ति थी।
परशुराम जी द्वारा, उनके पिता के कहने पर, माता और भाइयों का वध
एक बार की बात है, संध्या का समय था। माता रेणुका अपने आश्रम से जल लेने यमुना-तट पर गयीं। संयोगवश उसी समय गन्धर्वराज चित्ररथ अप्सराओं
सहित वहां आकर जल में क्रीड़ा करने लगा। माता रेणुका का भाव दूषित हो गया और यह बात महर्षि जमदग्नि को विदित हो गयी। माता रेणुका जल लेकर लौटीं तो क्रुद्ध होकर उन्होंने अपने पुत्रों से कहा-‘इस पापिनी का वध कर दो।’
किंतु वहां उपस्थित चारों पुत्र मातृ स्नेहवश चुपाचाप खड़े रहे। ‘बेटा! तुम अपनी दुष्टा माता और इन चारों भाईयों का सिर उतार लो।’ परशुराम जी वन से लौटे ही थे कि उन्हें क्रुद्ध पिता ने आज्ञा दी। अपने पिता के तपो बल से परिचित परशुराम जी ने तुरंत परशु उठाया और माता सहित अपने चारों भाईयों का मस्तक काट कर पृथक कर दिया।
‘धर्मज्ञ राम! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ।’ क्रोध शान्त होने पर महर्षि जमदग्नि ने परशुराम जी से कहा। ‘तुम अपना इच्छित वर मांग लो।’ अपने कृत्य और होनी से अत्यंत दुःखी और विह्वल हुए परशुराम जी ने कहा ‘पिता जी! मेरी माता और सारे भाई जीवित होे जायें और उन्हें मेरे द्वारा मारे जाने की स्मृति न रहे।’ परशुराम जी ने अपने हाथ जोड़ कर पिता से निवेदन किया ‘और वह मानस पाप उन्हें (उनकी माँ को) स्पर्श न करे। युद्ध में मेरा कोई सामना न कर सके और मैं दीर्घायु प्राप्त करूँ।’
‘यही होगा।’ मुस्कराकर जमदग्नि जी ने कहा ‘इन सबके सिर इनके धड़ों से जोड़ दो।’ परशुराम जी ने पिता की आज्ञा का पालन किया और उनकी माता तथा अग्रज अनायास ही उठ बैठे। उन्होंने समझा, हमें प्रगाढ़ निद्रा आ गयी थी।
कार्त्तवीर्यार्जुन से सामना
एक बार हैहयवंशीय महाराज कृतवीर्य के परम पराक्रमी पुत्र महिष्मतीपुरी के नरेश वीरवर सहस्रार्जुन (जिन्हे कार्त्तवीर्यार्जुन भी कहते हैं) महर्षि जमदग्नि के आश्रम में उपस्थित हुए। महर्षि ने कामधेनु के द्वारा ससैन्य उनका अदभुत स्वागत किया। शूर शिरोमणि सहस्रार्जुन ने महर्षि से कामधेनु को दे देने के लिये कहा, पर महर्षि जमदग्नि ने उनसे कहा “राजन! यह कामधेनुु तो मेर समस्त धर्म-कर्मों की जननी है। यज्ञिय सामग्री, देवता, ऋषि, पितर और अतिथियों का सत्कार ही नहीं, इसी गौ के द्वारा मेरे सारे इहलौकिक तथा पारलौकिक कर्म सम्पन्न होते हैं। मैं इसे देने का विचार भी कैसे कर सकता हूँ?”
शक्ति सम्पन्न नरेश सहस्रार्जुन ने बलपूर्वक गाय छीन ली और सेना सहित अपनी माहिष्मती पुुरी केे लिये चलते बने। सवत्सा कामधेनु पीछे ऋषि की ओर देख-देख कर रंभाती जा रही थी। दुष्ट क्षत्रिय उसे दण्ड-प्रहार कर हांकते ले जा रहे थे।
परम वीत राग, क्षमा मूर्ति, ब्राह्मण-ऋषि के नेत्रों से आंसू भर आये, पर वे कुछ बोल न सके। चुपचाप श्री भगवान के ध्यान में बैठ गये। ‘मैं अपने पिता का मलिन और उदास मुंह नहीं देख सकता, माँ!’ समिधा लिये वन से लौटकर मूर्ति मान तप और तेज से संपन्न परशुराम जी ने जब अपनी माता के मुख से गो-हरण का संवाद सुना तो क्रोध से कांप उठे। उन्होंने अपनी माता से कहा ‘माता! मैं उस कृतघ्न और दुष्ट नरेश को यथोचित दण्ड दे, कामधेनु को लेकर लौटने पर ही पूज्य पिता के चरणों में प्रणाम निवेदन करूंगा।’
पितृ भक्त परशुराम जी का प्रचंड रूप
माता रेणुका कुछ बोल भी न सकीं कि उग्रता की प्रचण्ड मूर्ति जामदग्न्य अत्यन्त शीघ्रता से अपना धनुष अक्षय तूणीर और प्रचण्ड परशु ले सहस्रार्जुन के पीछे दौड़े। तपस्या से दीप्त, गौरवर्ण, बिखरी काली जटाएं, कटि में रूरू मृग का चर्म, स्कन्ध पर धनुष, पृष्ठ देश पर अक्षय तूणीर, दाहिने हाथ में विद्युत-तुल्य चमचमाता दिव्य अमोघ परशु, हृदय में क्रोध की ज्वाला लिये और लाल-लाल नेत्रों से अंगार बरसाते वायु वेग से दौड़ते परशुराम जैसे -महाकाल की प्रचण्ड मूर्ति की भांति सहस्रार्जुन को निगल जाने के लिये दौड़ रहे थे ।
उधर उद्धत कार्तवीर्य अपनी माहिष्मती पुरी में प्रविष्ठ भी नहीं हो पाया था कि पितृ भक्त, परम तेजस्वी ऋषि कुमार परशुराम की गर्जना सुनकर सहम गया। अपने पीछे प्रज्वलित अग्नि के समान परशुराम को युद्ध के लिये प्रस्तुत देख कर उसने अत्यन्त उपेक्षा-भाव से अपने सैनिकों से कहा ‘ये ब्राह्मण कामधेनु लेने आया है। इसे मार डालो।’
पर उसके आश्चर्य की सीमा न रही, जब उसके लक्षाधिक सशस्त्र वीर सैनिक कुछ ही क्षणों में परशुराम के प्रचण्ड परशु की भेंट हो गये। कार्तवीर्य ने एक साथ पांच सौ धनुषों से पांच सौ तीक्ष्ण शरों की वर्षा परशुराम पर की, पर उनके एक ही धनुष के एक साथ छूटे हुए सहस्र शरों की वर्षा से कार्तवीर्य के शर बीच में ही नष्ट हो गये और उसके अंग-प्रत्यंग से रक्त की धाराएं निकलने लगीं।
कार्त्तवीर्यार्जुन का वध
परम धीर सहस्रार्जुन घबरा गया। धनुर्बाण से सफलता की आशा न देख, वह परशुराम को पर्वत के नीचे दबा कर मार डालने के लिये पर्वत उखाड़ना ही चाहता था कि मूषक पर विडाल की भांति परशुराम जी उस पर झपट पड़े और उसका वध कर दिया | फिर वे चतुर्दिक शत्रुओं की प्रतीक्षा करने लगे। सहस्रार्जुन के दस हजार पुत्र युद्ध भूमि से पहले ही भाग गये थे।
परशुराम जी ने एक ओर अत्यन्त डरी हुई और चकित कामधेनु को देखा तो जैसे महा पाषाण द्रवित हो गया हो, परशुराम जी के नेत्रों से जल की दो बूंदें लुढ़क पड़ीं। उन्होंने गाय के गले में अपनी लम्बी बांहें डाल दीं तथा उसे सहला कर प्रेमपूर्वक ले चले।
‘सार्वभौम नृपति का वध ब्रह्म हत्या के सामान पातक है।’ सवत्सा कामधेनु सहित राम के श्रद्धापूर्वक प्रणाम करने पर क्षमामय महर्षि जमदग्नि ने अशान्त चित्त से अपने पुत्र से कहा ‘ब्राह्मण का सर्वोपरि धर्म क्षमा है। तुम्हारे लिये प्रायश्चित आवश्यक है।’
‘पिता जी! प्रेमपूर्वक स्वागत करने वाले तपस्वी ब्राह्मण की गाय बलपूर्वक छीन लेने वाले नराधम और परम पातकी का वध पाप नहीं।’ परशुराम जी ने सिर झुका कर शान्तिपूर्वक उत्तर दिया।’ पर आपके आदेश अनुसार मैं प्रायश्चित अवश्य करूंगा। आपकी प्रत्येक आज्ञा मुझे शिरोधार्य है।’
परशुराम जी का प्रायश्चित
अपने पिता महर्षि जमदग्नि के आदेश अनुसार निस्स्पृह तपस्वी परशुराम जी अपने हृदय में भुवन मोहन परम प्रभु की मंगलमयी छवि का ध्यान एवं मुख से उनके सुमधुर नामों का धीरे-धीरे कीर्तन करते हुए तीर्थ यात्रा के लिये निकल पड़े।
परशुराम जी एक वर्ष में पिता के बताये सम्पूर्ण तीर्थों का सविधि पर्यटन अपने आश्रम में लौटे, तब उन्होंने माता-पिता के चरणों में अत्यन्त भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और उन्होंने भी अपने निष्पाप तपस्वी पुत्र को अत्यन्त प्रसन्न होकर शुभ आशीर्वाद प्रदान किया।
परशुराम के पिता जमदग्नि ऋषि का वध
वीर सहस्त्रार्जुन के कायर पुत्र परशुराम जी के सम्मुख तो नहीं ठहर सके, प्राण भय से भाग गये, लेकिन वे अपने पिता के वध का प्रतिशोध लेने के लिये सदा सचिन्त रहते थे। एक बार जब उन्हें विदित हुआ कि अपने चारों भाईयों सहित परशु राम वन में दूर चले गये हैं, तब वे नर-राक्षस जमदग्नि के आश्रम पर पहुंचे और चोरी से ध्यानरत महर्षि का मस्तक उतार, उसे अपने साथ ले, आश्रम को नष्ट करते हुए भाग गये।
‘हा राम! हा राम!!’- माता का करूण-क्रन्दन सुनकर परशुराम भागते हुए आश्रम पर आये। उन्होंने सहस्रार्जुन के नीच पुत्रों के द्वारा अपने परम पूज्य पिता की हत्या देखी तो वे अपना अक्षय तूणीर सहित धनुष और तीक्ष्ण परशु लेकर दौड़े। माहिष्मती पुरी में पहुंचते ही वे सहस्रार्जुन के सहस्रों पुत्रों को अपने अमोघ परशु से काटने लगे।
परशुराम जी द्वारा क्षत्रियों का वध
साक्षात काल की भांति वे दुष्ट और घमंडी क्षत्रियों को काट रहे थे। माहिष्मती पुरी जैसे रक्त में डूब गयी। सहस्रार्जुन के पांच पुत्र-जयध्वज, शूरसेन, वृषभ, मधु और ऊर्जित किसी प्रकार लुक-छिप कर प्राण बचा कर भाग जाने में समर्थ हुए, पर अत्यंत उग्र परशुराम जी क्रूरकर्मी क्षत्रियों का वध करते ही रहे।
वे नगर-नगर और गांव-गांव में जाकर पृथ्वी के भारभूूत कुकर्मी और पात की क्षत्रियों का संहार करने लगे। उन्होंने पृथ्वी को क्षत्रिय शून्य समझ कर अपने पिता के सिर से धड़ को जोड़ कर उनका विधिवत दाह-संस्कार किया। महर्षि जमदग्नि को स्मृति रूप संकल्पमय शरीर तथा सप्तर्षियों में सातवां स्थान मिला।
परशुराम जी द्वारा इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से विहीन कर देना
भगवान परशुराम ने पृथ्वी को इक्कीस बार दुष्टात्मा और घमंडी क्षत्रियों से हीन कर दिया। वे दुष्ट क्षत्रियों को ढूंढ-ढूंढ कर एकत्र करते ओैर कुुुरूक्षेेेत्र मेें जाकर उनका वध कर डालतेे। इस प्रकार परशुराम जी ने क्षत्रियों के रक्त से पांच सरोवर भर दिये। धरती पर वह स्थान ‘समन्तपंचक’ नाम से प्रसिद्ध है।
उन सरोवरों के रक्तरूपी जल से भगवान परशुराम ने अपने पितरों का तर्पण किया । परशुराम जी के ऋचीक आदि पितृगण प्रसन्न होकर उनके समीप आये और उन्हें इच्छित वर मांगने के लिये कहा। अपने पितरों के चरणों में प्रणाम कर तपस्वी परशुराम जी ने उनसे प्रार्थना की “यदि आप सब हमारे पितर मुझ पर प्रसन्न हैं और मुझे अपना अनुग्रह-पात्र समझते हैं तो मैंने जो क्रोधवश क्षत्रिय वंश का विध्वंस किया है, इस कुकर्म के पाप से मैं मुक्त हो जाऊं और ये मेरे बनाये हुए सरोवर पृथ्वी में प्रसिद्ध तीर्थ हो जायं। यही वर मैं आप लोगों से चाहता हूँ।”
परशुराम जी द्वारा सम्पूर्ण पृथ्वी को कश्यप जी को दान कर देना
‘यही होगा।’ पितरों ने परशुराम जी को वर देते हुए कहा ‘पर अब शेष क्षत्रिय-वंश का संहार मत करना, उन्हें क्षमा कर देना।’ अपने पूज्य पितरों के आदेश से जमदग्नि नन्दन शांत हो गये। उस समय सम्पूर्ण वसुन्धरा परशुराम जी के अधीन थी। उनका विरोध करने का साहस किसी में नहीं था, किंतु उन्हें राज्य सुख एवं वैभव की कोई कामना नहीं थी। फलतः उन्होंने सारी पृथ्वी कश्यप जी को दान कर दी।
जब श्री भगवान के आवेश अवतार परशुराम जी ने सम्पूर्ण पृथिवी को तृणमूल्य समझ कर दान कर दिया, तब महर्षि कश्यप ने उनसे कहा ‘तुम मेरी पृथ्वी छोड़ दो और अपने लिये समुद्र से स्थान मांग लो।’ परशुराम जी ने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की परंतु वहां से वे महेन्द्र पर्वत पर चले गये। उस समय महर्षि भरद्वाज के यशस्वी पुत्र द्रोण धनुर्वेद, दिव्यास्त्रों एवं नीति शास्त्र के ज्ञान के लिये भगवान परशुराम के पास महेन्द्र पर्वत पर पहुंचे।
‘मैं आङ्गिरस-कुल उत्पन्न महर्षि भारद्वाज का अयोनिज पुत्र ‘द्रोण’ हूँ।’ अपना परिचय देते हुए द्रोण ने परशुराम जी के चरणों में प्रणाम किया और कहा-‘मैं धन की इच्छा से आपके पास आया हूँ, आप मुझ पर दया करें।’ परमविरक्त परशुराम जी ने द्रोण से शांत और स्थिर स्वर में कहा ‘ब्रह्मन! अब तो मैंने केवल अपने शरीर को ही बचा रखा है। शरीर के सिवा सब कुछ दान कर दिया। अतः अब तुम मेरे अस्त्रों अथवा यह शरीर-दोनों में से किसी एक को मांग लो।’
‘प्रभो! आप मुझे सम्पूर्ण अस्त्र, उनके प्रयोग तथा उप संहार की विधि प्रदान करें।’ द्रोण ने निवेदन किया। तब रेणुका नन्दन ने प्रसन्नता पूर्वक अपने सब अस्त्र द्रोण को दे दिये। आचार्य द्रोण भृगु नन्दन परशुराम जी से दुर्लभ ब्रह्मास्त्र का भी ज्ञान प्राप्त कर धरती पर अत्यधिक शक्तिशाली हो गये।
राजा युधिष्ठिर के राज्य अभिषेक के समय महा तपस्वी व्यास, देवल, असित तथा अन्य महर्षियों के साथ जमदग्नि पुत्र परशुराम जी ने भी उनका अभिषेक किया था। भीष्म पितामह ने भी इनसे अस्त्र-विद्या सीखी थी। पितामह ने अपने मुखारविन्द से एक बार कहा था की ‘एक बार मुझसे मेरे गुरू परम तेजस्वी परशुराम जी का युद्ध हुआ। परशुराम जी के पास रथ नहीं था। तब मैंने कहा ‘ब्रह्मन! मैं रथ पर बैठा हूँ और आप धरती पर खड़े हैं। इस कारण मैं आपसे युद्ध नहीं करूँगा। मुझसे युद्ध करने के लिये आप कवच पहन कर रथारूढ़ हो जायं।’
भीष्म पितामह का परशुराम जी के साथ घनघोर युद्ध
‘तब युद्ध भूमि में मुस्कराते हुए परशुराम जी ने मुझसे कहा था ‘कुरू नन्दन भीष्म! मेरे लिये पृथ्वी ही रथ है, चारों वेद ही उत्तम अश्वों के समान मेरे वाहन हैं, वायु देव ही सारथि हैं और वेद माताएँ (गायत्री, सावित्री और सरस्वती) ही कवच हैं। इन सबसे आवृत एवं सुरक्षित होकर मैं रणक्षेत्र में युद्ध करूंगा।’
‘इतना कह कर पराक्रमी परशुराम जी ने मुझे अपने तीक्ष्ण शरों से घेर लिया। उस समय मैंने देखा परशुराम जी एक नगर के समान विस्तृत, अदभुत एवं दिव्य विमान में बैठे हैं। उसमें दिव्य अश्व जूते थे। वह स्वर्ण निर्मित रथ प्रत्येक रीति से सजा हुआ था। उसमें सम्पूर्ण श्रेष्ठ आयुध रखे हुए थे। परशुराम जी ने सूर्य-चन्द्र-खचित कवच धारण कर रखा था और उनके प्रिय सखा वेदवेत्ता अकृतव्रण उनके सारथि का कार्य कर रहे थे।’
परम पराक्रमी, परम तेजस्वी, परम तपस्वी, परम पितृ भक्त भगवान परशुराम जी के साथ मेरा भयानक संग्राम हुआ। सुहृदों के समझाने से युद्ध बंद हुआ तो मैंने परमर्षि परशुराम जी के समीप जाकर उनके चरणों में प्रणाम किया। परशुराम जी ने मुस्कराकर मुझसे कहा ‘भीष्म! इस जगत में भूतल पर विचरने वाला कोई भी क्षत्रिय तुम्हारे समान नहीं है। जाओ, इस युद्ध में तुमने मुझे बहुत संतुष्ट किया है।’ श्री परशुराम जी कल्पान्त-स्थायी हैं। किसी-किसी भाग्यशाली पुण्य आत्मा को उनके दर्शन भी हो जाते हैं | ऐसे भगवान के अवतार परशुराम जी को कोटि-कोटि प्रणाम है |