तुलसी जी कौन हैं, उनके पौधे के क्या क्या फायदे हैं

भगवती मूल प्रकृति का तुलसी रूप में अवतरणनवनीरद-श्याम, कोटि कन्दर्प लावण्य-लीला धाम, वनमाला विभूषित, पीताम्बरधारी भगवान श्री कृष्ण परब्रह्म परमात्मा हैं। प्रलय के समय स्वरूपा प्रकृति इनमें क्रियाशीला हो जाती है। सृष्टि के अवसर पर परब्रह्म परमात्मा स्वयं दो रूपों में प्रकट हुए-प्रकृति और पुरूष। परब्रह्म परमात्मा के सभी गुण उनकी प्रकृति में निहित होतेे हैं। इन प्रकृति देवी के अंश, कला, कलांश और कलांशांश-भेद से अनेक रूप हैं।

भगवती तुलसी को प्रकृति देवी का प्रधान अंश माना जाता है। ये विष्णुप्रिया हैं और विष्णु को विभूषित किये रहना इनका स्वाभाविक गुण है। भारत वर्ष में वृक्ष रूप से पधारने वाली ये देवी कल्प वृक्ष स्वरूपा हैं। भगवान श्री कृष्ण के नित्य धाम गोलोक से मृत्यु लोक मे इनका आगमन मनुष्यों के कल्याण के लिये हुआ है। ब्रह्म वैवर्त पुराण और श्रीमद देवीभागवत के अनुसार इनके अवतरण की दिव्य लीला कथा इस प्रकार है ।

भगवती तुलसी कौन हैं

भगवती तुलसी भगवान श्री कृष्ण के नित्य धाम गोलोक में तुलसी नाम की ही गोपी थीं। वे भगवान श्री कृष्ण की प्रिया, अनुचरी, अर्धागिंनी और प्रेयसी सखी थीं।

एक दिन वे भगवान श्री कृष्ण के साथ रास मण्डल में हास-विलास में रत थीं कि रास की अधिष्ठात्री देवी भगवती राधा वहां पहुंच गयीं और उन्होंने क्रोधपूर्वक इन्हें मानव योनि में उत्पन्न होने का शाप दे दिया। गोलोक में ही भगवान श्री कृष्ण के प्रधान पार्षदों में से एक सुदामा नामक गोप भी थे। एक दिन श्री राधा जी ने उन्हें दानव योनि में उत्पन्न होने का शाप दे दिया।

कालान्तर में भगवती तुलसी ने भारत वर्ष में राजा धर्मध्वज की पुत्री के रूप में जन्म लिया। अतुलनीय रूपराशि की स्वामिनी होने के कारण यहां भी उनका नाम ‘तुलसी’ ही पड़ा उधर श्री कृष्ण के ही अंश रूप पार्षद सुदामा परम वैष्णव, दानव दम्भ के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए और उनका नाम शंखचूड़ रखा गया ।

तुलसी का विवाह शंखचूड़ से कैसे हुआ

उन्हें भगवान श्री कृष्ण की कृपा से पूर्व जन्म की स्मृति थी। साथ ही वह दानवेन्द्र श्री कृष्ण-मंत्र और उन्हीें के सर्व मंगलमय कवच से उत्पन्न होने के कारण त्रैलोक्य विजयी हुए । भगवती तुलसी ने भगवान नारायण को पति रूप में प्राप्त करने के लिये बदरी वन में अत्यन्त कठोर तपस्या की।

तुलसी की घोर तपस्या को देखकर लोक पितामह ब्रह्मा जी ने उसे वर देतेे हुए कहा “तुलसी! भगवान श्री कृष्ण के अंग से प्रकट सुदामा नामक गोप जो उनका साक्षात अंश ही है, राधा के शाप से शंखचूड नाम से दनु कुल में उत्पन्न हुआ है। इस जन्म में वह श्री कृष्ण अंश तुम्हारा पति होगा। इसके बाद वे शान्त स्वरूप नारायण तुम्हें पति रूप से प्राप्त होंगे”। यही बातें ब्रह्मा जी ने शंखचूड से भी कहीं और उन दोनों का गांधर्व-विवाह करा दिया।

परम सुंदरी तुलसी के साथ आनंदमय जीवन बिताते हुए प्रतापी राजाधिराज शंखचूड ने दीर्घकाल तक राज किया। देवता, दानव, असुर, गंधर्व, किन्नर और राक्षस सभी उसके वशवर्ती थे, अधिकार छिन जाने के कारण देवताओं की स्थिति भिक्षुकों जैसी हो गयी थी।

शंखचूड़ का वध किस प्रकार हुआ

वे ब्रह्मा जी के पास जाकर अत्यन्त विलाप करने लगे। उनकी दयनीय दशा देख कर ब्रह्मा जी उन सबको लेकर भगवान शंकर के पास गये। शिव जी उनकी बातें सुनकर ब्रह्मा जी सहित बैकुण्ठ में श्री हरि के पास गये।

वहां पहुंच कर ब्रह्मा जी ने बड़ी विनम्रता से सम्पूर्ण परिस्थिति स्पष्ट की, जिसे सुनकर भगवान श्री हरि ने कहा ‘हे ब्राह्मण! शंखचूड पूर्व जन्म में सुदामा नामक गोप था, वह मेरा प्रधान पार्षद था, श्री राधा जी के शाप से उसे दानव योनि की प्राप्ति हुई है। वह अपने कण्ठ में मेरा सर्वमंगल नामक कवच धारण किये हुए है, उसके प्रभाव से वह त्रैलोक्य विजयी है। उसकी पत्नी तुलसी भी पूर्व जंम में गोलोक में गोपी थी और राधा जी के शाप से मृत्यु लोक में अवतरित हुई हैं।

वह परम पतिव्रता है, अतः उसके पातिव्रत के प्रभाव से भी शंखचूड को कोई मार नहीं सकता। परंतु तुलसी मेरी नित्यप्रिया है, अतः सर्वात्म रूप मैं उसके लौकिक सतीत्व को भंग करूंगा और ब्राह्मण वेश से शंखचूड से उसका कवच मांग लूंगा, तब भगवान शंकर मेरे दिये शूल के प्रहार से उसका वध कर सकेंगे।

इसके बाद वह शंखचूड भी अपनी दानव योनि को छोड़ कर मेरे गोलोक धाम में पुनः चला जायगा। तुलसी भी शरीर त्याग कर पुनः गोलोक में मेरी नित्यप्रिया के रूप में प्रतिष्ठित होगी।’

श्री हरि का यह कथन सुनकर भगवान शंकर शूल लेकर ब्रह्मा जी और देवताओं सहित श्री हरि को प्रणाम कर वापस चले आये। तब देवताओं ने शंखचूड को युद्ध के लिये ललकारा। श्री हरि ने अपने कथनानुसार वृद्ध ब्राह्मण का वेश धारण कर शंखचूड से अपना सर्व मंगलकारी ‘कृष्णकवच’ मांग लिया और शंखचूड का स्वरूप धारण कर तुलसी से हास-विलास किया, जिससे उसका सतीत्व भंग हो गया। उसी समय शंकर जी ने श्री हरि के दिये त्रिशूल का प्रहार कर शंखचूड का वध कर दिया।

तुलसी जी ने भगवान विष्णु को क्या श्राप दिया

इधर जब तुलसी को श्री हरि द्वारा अपने सतीत्व-भंग और शंखचूड के निधन की जानकारी हुई तो उसने श्री हरि को शाप देते हुए कहा “हे नाथ! शंखचूड आपका भक्त था, आपने अपने भक्त को मरवा डाला। आप अत्यन्त पाषाण हृदय हैं, अतः आप पाषाण हो जायं”।

भगवान श्री हरि ने उसके शाप को स्वीकार करते हुए कहा “हे देवि! शंखचूड मेरे नित्यधाम गोलोक चला गया । तुम्हारे द्वारा यह शरीर छोड़ने पर, तुम्हारा यह शरीर नदी रूप में परिणत होकर ‘गण्डकी’ के नाम से प्रसिद्ध होगा। मैं तुम्हारे शाप को सत्य करने के लिये भारत वर्ष में पाषाण (शालग्राम) बनकर तुम्हारे (गण्डकी नदी के) तट पर ही वास करूंगा।

गण्डकी नदी और शालग्राम का माहात्म्य

गण्डकी अत्यन्त पुण्यमयी नदी होगी और मेरे शालग्राम स्वरूप के जल का पान करने वाला समस्त पापों से निर्मुक्त होकर विष्णु लोक को चला जायगा। हे देवि! तुम्हारे केश कलाप तुलसी नामक पवित्र वृक्ष होंगे। त्रैलोक्य में देवपूजा में काम आने वाले जितने भी पत्र-पुष्प हैं, उनमें तुलसी प्रधान मानी जायगी। इस प्रकार लीलामय प्रभु भक्तों के हित के लिये पाषाण (शालग्राम) और उनकी नित्यप्रिया तुलसी वृक्ष के रूप में भारत वर्ष में अवतरित हुईं।

तुलसी के पत्ते से टपकता हुआ जल जो अपने सिर पर धारण करता है, उसे गंगा स्नान और दस गोदान का फल प्राप्त होता है। जिसने तुलसी दल के द्वारा सम्पूर्ण श्रद्धा के साथ प्रतिदिन भगवान विष्णु का पूजन किया है, उसने दान, घर , यज्ञ और व्रत आदि सब पूर्ण कर लिये।

तुलसी का माहात्म्य

तुलसी दल से भगवान की पूजा कर लेने पर कान्ति, सुख, भोग-सामग्री, यश, लक्ष्मी, श्रेष्ठ कुल, सुशील पत्नी, पुत्र, कन्या, धन, आरोग्य, ज्ञान, विज्ञान, वेद, वेदांत, शास्त्र, पुराण, तंत्र और संहिता सब करतलगत हो जाता है। तुलसी के मूल की मृत्तिका जिसके अंग में लगी हो, सैकड़ों पापों से युक्त होने पर भी उसे यमराज देखने में समर्थ नहीं होते।

जैसे पुण्य सलिला गंगा मुक्ति प्रदान करने वाली हैं, उसी प्रकार ये तुलसी भी कल्याण करने वाली हैं । मंजरीयुक्त तुलसी पत्रों के द्वारा भगवान श्री विष्णु की पूजा की जाय तो उसके पुण्य फल का वर्णन करना असम्भव है। जहां पर तुलसी का वन है, वहीं भगवान श्री कृष्ण की समीपता है तथा वहीं ब्रह्मा और लक्ष्मी जी सम्पूर्ण देवताओं के साथ विराजमान हैं। इसलिये अपने निकटवर्ती स्थान में तुलसी देवी को रोप कर उनकी पूजा करनी चाहिये। तुलसी के निकट जो स्तोत्र-मंत्र आदि का जप किया जाता है, वह सब अनंत गुना फल देने वाला होता है।

जो तुलसी की मंजरी से विष्णु तथा शिव की पूजना करते हैं, वे निःसंदेह मुक्ति पाते हैं, जो लोग तुलसी काष्ठ का चंदन धारण करते हैं, उनकी देह को पाप स्पर्श नहीं करते। प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्म राक्षस, भूत और दैत्य आदि सब तुलसी वृक्ष से दूर भागते हैं।

ब्रह्महत्या इत्यादि पाप और खोटे विचार से उत्पन्न होने वाले रोग-ये सब तुलसी वृक्ष के समीप आते ही नष्ट हो जाते हैं। जिसने भगवान की पूजा के लिये पृथ्वी पर तुलसी का बगीचा लगा रखा है, समझो उसने सौ यज्ञों का अनुष्ठान पूर्ण कर लिया।

जो भी भगवान की प्रतिमाओं तथा शालग्राम शिलाओं पर चढ़े हुए तुलसी दल को प्रसाद के रूप में ग्रहण करता है, वह विष्णु के सायुज्य को प्राप्त होता है। जो श्री हरि की पूजा करके उन्हें निवेदन किये हुए तुलसी दल को अपने मस्तक पर धारण करता है, वह पाप से शुद्ध होकर स्वर्गलोक को प्राप्त होता है। कलियुग में तुलसी का पूजन, कीर्तन, ध्यान, रोपण और धारण करने से, तुलसी पाप को जला देती हैं तथा स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करती हैं।

श्राद्ध और यज्ञ आदि कार्यों में तुलसी का एक पत्ता भी महान पुण्य प्रदान करने वाला है। जिसने तुलसी की शाखा तथा कोमल पत्तियों से भगवान श्री विष्णु की पूजा की है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। कोमल तुलसी दलों के द्वारा प्रतिदिन श्री हरि की पूजा करके मनुष्य अपनी सैकड़ों और हजारों पीढ़ियों को पवित्र कर सकता है। जो तुलसी के पूजन आदि का दूसरों को उपदेश देता है और स्वयं भी आचरण करता है, वह भगवान श्री लक्ष्मी पति के परमधाम को प्राप्त होता है।

जिसने तुलसी की सेवा की है, उसने गुरू, ब्राह्मण, तीर्थ और देवता-सबकी भली भांति सेवा कर ली है। तुलसी का नाम उच्चारण करने पर भगवान श्री विष्णु प्रसन्न होते हैं। जिसके दर्शन मात्र से करोड़ों गोदान का फल प्राप्त होता है, उस तुलसी का पूजन और वन्दन लोगों को अवश्य करना चाहिये। भगवान विष्णु के नैवेद्य में तुलसी पत्र अवश्य होना चाहिये। भगवान विष्णु, एकादशी व्रत, गंगा, तुलसी, ब्राह्मण और गौएं-ये मुक्तिप्रद हैं। ब्रह्म वैवर्त पुराण (प्रक0 22।33-34)-में बताया गया है कि तुलसी पूजन उपरान्त निम्नलिखित नामाष्टक का पाठ करने से अश्वमेध यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है-

तुलसी! तुम अमृत से उत्पन्न हो और केशव को सदा ही प्रिय हो। कल्याणि! मैं भगवान की पूजा के लिये तुम्हारे पत्तों को चुनता हूँ। तुम मेरे लिये वरदायिनी बनो। तुम्हारे अंगों से उत्पन्न होने वाले पत्रों और मंजरियों द्वारा मै सदा ही जिस प्रकार श्री हरि का पूजन कर सकूं, वैसा उपाय करो। पवित्राङ्गी तुलसी! तुम कलियुग के प्रभाव का नाश करने वाली हो |

इस भाव के मंत्रों से जो तुलसी दल को चुन कर उनसे भगवान वासुदेव का पूजन करना है, उसकी पूजा से करोड़ गुना फल मिलता है।

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