इस जगत में जो अज्ञान रुपी अन्धकार को दूर कर हृदय में ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं, उन्हें ‘गुरू’ कहते हैं । ‘गरति अज्ञानम्’ अथवा ‘गृणाति ज्ञानम्, स गुरूः’ ऐसी ‘गुरू’ शब्द की व्यूत्पत्ति है । जीवों का अज्ञान मिटाने के लिये अथवा जीवों के हृदय में ज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिये ही प्रायः भगवान् के अवतार होते हैं । क्योंकि इस जगत का वास्तविक शत्रु अज्ञान ही है |
वैसे तो अवतार के कई प्रयोजन होते हैं, किन्तु जीवों का अज्ञान-अंधकार-निवारण, अवतार का परम प्रयोजन होता है । जब तक सृष्टि में जीव हैं, तब तक इस कर्म को अविरत रूप में चलाना अपरिहार्य है-यही सोचकर भगवान् श्री विष्णु, ने श्री दत्तात्रेय जी के रूप में अवतार ग्रहण किया ।
जैसे जलपूरित महासरोवर से असंख्य स्रोत उमड़ पड़ते हैं, उसी प्रकार परोपकार के लिये भगवान् के अवतार होते ही रहते हैं । उन अनन्त अवतारों में चैबीस प्रमुख अवतारों का निर्देश श्रीमद भागवतकार ने किया है ।
उन चैबीस प्रमुख अवतारों में से सिद्धराज, भगवान् श्री दत्तात्रेय जी का अवतार छठा माना जाता है । इस अवतार की परिसमाप्ति नहीं है, इसलिये उन्हें ‘अविनाश’ भी कहते हैं । दत्तात्रेय जी, समस्त सिद्धों के राजा होने के कारण ‘सिद्धराज’ कहलाते हैं । योग विद्या में असाधारण अधिकार रखने के कारण इन्हें ‘योगिराज’ भी कहा जाता हैं । अपने असाधारण योगचातुर्य से इन्होंने देवताओं का सरंक्षण किया है, इसलिये इस ब्रह्माण्ड में ये ‘देवदेवश्वर’ भी कहे जाते हैं ।
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‘मुझे समस्त प्राणियों का दुःख-निवारण करने वाला पुत्र प्राप्त हो’, इस अभिप्राय से अत्रिमुनि को भावपूर्ण घोर तपस्या करते देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए भगवान् श्री विष्णु ने उनसे कहा, “मैंने स्वयम को ही तुम्हें दान कर दिया है” |
इस कारण इनकी ‘दत्त’ संज्ञा हुई ‘दत्तो मयाहमिति यदभगवान स दत्तः’ (श्रीमदा0 2।7।4) । अत्रिमुनि के पुत्र होने के कारण इन्हें ‘आत्रेय’ भी कहते हैं । ‘दत्त’ और ‘आत्रेय’ इन्ही दोनों नामों के संयोग से इनका ‘दत्तात्रेय’ एक ही नाम रूढ़ हो गया । ये निस्स्पृह होकर सदा ही ज्ञान का दान देते रहते हैं, अतएव ‘गुरूदेव’ या ‘सदगुरू’, ये दो विशेषण इनके नाम के पूर्व व्यवहृत होते हैं ।
इनकी माता थीं परम सती श्री अनसूया देवी । वे अत्यन्त सुन्दरी भी थीं, किंतु उनमें गर्व का लेश मात्र भी नहीं था । एक दिन श्री नारद जी के मुख से श्री सरस्वती, श्री उमा और श्री रमा ने महासती अनसूया जी की महिमा सुन ली । ‘वे हमसे बड़ी कैसे हैं?’ इस विचार से उनके मन में कुछ ईर्ष्या हुई । तीन देवियों ने अपने-अपने पतियों को अनसूया जी के सतीत्व-परीक्षण के लिये महर्षि अत्रि के आश्रम में भेजा ।
ब्रह्मा, विष्णु और महेश वहाँ पहुँचे, किंतु सती शिरोमणि अनसूया के सतीत्व के प्रभाव से तीनों नवजात शिशु बन गये । माता अनसूया ने वात्सल्य भाव से उन्हें अपना स्तन्य पान कराया । कुछ दिनों बाद सरस्वती, उमा और रमा माता अनसूया के समीप आकर उनके चरणों में गिरीं और उन्होंने उनसे क्षमा-याचना की । दयामयी माता अनसूया ने तीनों बालकों को पूर्ववत ब्रह्म, विष्णु और महेश्वर बना दिया ।
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“आप चिन्ता न करें, हम आपके पुत्र रूप में आपके पास ही रहेंगे” । जाते समय त्रिदेवों ने अत्रि और अनसूया का अभिप्राय समझकर कहा । फिर ब्रह्मदेव यानि ब्रह्मा जी, सोम के रूप में, भगवान् श्री विष्णु, दत्त यानि दत्तात्रेय जी के रूप में और भगवान् शंकर दुर्वासा के रूप में भगवती अनसूया के पुत्र बनकर अवतरित हुए । ऐसी और भी कई कथाएँ विभिन्न पुराणों में वर्णित हैं । इन कथाओं में भेद होते हुए भी विरोध नहीं है । सूक्ष्म विचार करने पर सभी कथाओं का ठीक से समन्वय हो सकता है ।
भगवान् श्री विष्णु ने दत्तात्रेय जी के रूप में अवतरित होकर जगत का बड़ा ही उपकार किया है । सत्ययुग में उन्होंने श्री कार्तिक स्वामी, श्री गणेश भगवान् और भक्त प्रहलाद को उपदेश देकर उन्हें उपकृत किया था । त्रेता युग में राजा अलर्कप्रभूति को योग विद्या एवं अध्यात्मविद्या का उपदेश देकर उन्हें कृतार्थ किया । राजा पुरूरवा और राजा आयु भी दत्तात्रेय जी की कृपा के ऋणी थे ।
द्वापर युग में भगवान् श्री परशुराम तथा हैहयाधिपति राजा कार्तवीर्य आदि को भगवान् दत्तात्रेय जी का अनुग्रह प्राप्त हुआ था और उन्हीं की कृपा से वे तेजस्वी एवं यशस्वी हुए थे । कलियुग में भी भगवान् शंकराचार्य, गोरक्षनाथ, चैतन्य महाप्रभु, सिद्ध नागार्जुन, ये सब दत्तत्रेय जी के अनुग्रह से ही धन्य हो गये हैं । श्री संत ज्ञानेश्वर महाराज, श्री जनार्दन स्वामी, श्री संत एकनाथ, श्री संत दासोपंत, श्री संत तुकाराम महाराज, इन भक्तों ने दत्तात्रेय जी का प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त किया था ।
योग, प्राणायाम, आध्यात्म और विज्ञान भारत की देन
भगवान् श्री दत्तात्रेय जी, भक्त का करूण-क्रन्दन सुनकर तुरंत उसके समीप पहुँच जाते हैं । इसी कारण इन्हें ‘स्मर्तगामी’ (स्मरण करते ही आने वाले) कहा गया है । गिरनार श्री दत्तात्रेय जी का सिद्धपीठ है । उनका उन्मत्तों की तरह विचित्र वेष और उनके आगे-पीछे कुत्ते रहते हैं इसलिए उन्हें पहचान लेना सरल नहीं है । वे सिद्धि के परमाचार्य हैं और उन्हें उच्चकोटि के अधिकारी पुरूष ही पहचान सकते हैं, किंतु उनके आराधक तो अपना जीवन धन्य कर ही लेते हैं ।