अभिमन्यु के पौत्र और परीक्षित के पुत्र राजा जन्मेजय को सर्प यज्ञ करने के लिए किसने उकसाया था

जब ऋषि उग्रश्रवा वहां बैठे ऋषियों को महभारत की कथा सुना रहे थे उसी समय उन्होंने उस घटना का वर्णन किया जब परीक्षित पुत्र जन्मेजय समूची नागजाति पर क्रुद्ध हो गए और उन्होंने पूरी सर्पजाति के विनाश का संकल्प ले लिया | उग्रश्रवा जी ने कहा “ऋषियो ! उस समय परीक्षितनन्दन जनमेजय अपने भाइयों के साथ कुरुक्षेत्र में एक लंबा यज्ञ कर रहे थे उनके तीन भाई थे- श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन । जब यज्ञ हो रहा था तभी उस यज्ञ के अवसर पर वहाँ एक कुत्ता आया । जनमेजय के भाइयों ने उसे पीटा और वह रोता-चिल्लाता अपनी माँ के पास गया ।

रोते-चिल्लाते कुत्ते से माँ ने पूछा, ‘बेटा। तू क्यों रो रहा है? किसने तुझे मारा है?’ उसने कहा, ‘माँ ! मुझे जनमेजय के भाइयों ने पीटा है।’ माँ बोली, ‘बेटा ! तुमने अवश्य उनका कुछ-न-कुछ अपराध किया होगा।’ कुत्ते ने कहा, ‘माँ ! न मैंने हविष्य की ओर देखा और न ही किसी वस्तु को चाटा। मैंने तो कोई अपराध नहीं किया।’ यह सुनकर माता को बड़ा दुःख हुआ और वह जनमेजय के यज्ञ में गयी । उसने क्रोध से कहा ‘मेरे पुत्र ने हविष्य को देखा तक नहीं, कुछ चाटा भी नहीं और भी इसने कोई अपराध नहीं किया । फिर इसे पीटने का कारण?’

जनमेजय और उनके भाइयों ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया । कुतिया ने कहा, ‘तुमने बिना अपराध मेरे पुत्र को मारा है, इसलिये तुम पर अचानक ही कोई महान् भय आवेगा।’ वह कोई सामान्य कुतिया नहीं थी | उस दैवीय कुतिया सरमा का यह शाप सुनकर जनमेजय बड़े दुःखी हुए और घबराये भी । यज्ञ समाप्त होने पर वे हस्तिनापुर आये और एक योग्य पुरोहित ढूँढने लगे, जो इस अनिष्ट को शान्त कर सके। एक दिन वे शिकार खेलने गये । घूमते-घूमते अपने राज्य में ही उन्हें एक आश्रम मिला । उस आश्रममें श्रुतश्रवा नाम के एक ऋषि रहते थे । उनके तपस्वी पुत्र का नाम था सोमश्रवा ।

जनमेजय ने उन ऋषि पुत्र को ही पुरोहित बनाने का निश्चय किया । उन्होंने श्रुतश्रवा ऋषि को नमस्कार करके कहा, ‘भगवन् ! आपके पुत्र मेरे पुरोहित बनें, ऐसी मेरी इच्छा है।’ ऋषि ने कहा, ‘मेरा पुत्र बड़ा तपस्वी और स्वाध्याय सम्पन्न है। यह आपके सारे अनिष्टों को शान्त कर सकता है । केवल महादेव के शाप को मिटाने में इसकी गति नहीं है। परंतु इसका एक गुप्त व्रत है । वह यह कि यदि कोई ब्राह्मण इससे कोई चीज माँगेगा तो यह उसे अवश्य दे देगा । यदि तुम्हे इस पर कोई आपत्ति न हो तो इसे ले जाओ ।’

जनमेजय ने ऋषि की आज्ञा स्वीकार कर ली । वे सोमश्रवा को लेकर हस्तिनापुर आये और अपने भाइयों से बोले ‘मैंने इन्हें अपना पुरोहित बनाया है। आज से हमारे आचार्य हैं | तुम लोग बिना किसी सोच-विचार, किन्तु-परन्तु के ही इनकी आज्ञा का पालन करना।’ भाइयों ने अपने बड़े भाई की आज्ञा स्वीकार कर ली । उन्होंने तक्षशिला पर चढ़ाई की और उसे जीत लिया । उन्हीं दिनों उस देश में आयोदधौम्य नाम के एक ऋषि रहा करते थे । उनके तीन प्रधान शिष्य थे आरुणि, उपमन्यु और वेद ।

आयोदधौम्य का तीसरा शिष्य था वेद । आचार्य ने उससे कहा, ‘बेटा ! तुम कुछ दिनों तक मेरे घर रहो सेवा-शुश्रूषा करो, तुम्हारा कल्याण होगा।’ उसने बहुत दिनों तक वहाँ रहकर गुरु सेवा की । आचार्य प्रतिदिन उस पर बैल की तरह भार लाद देते और वह गर्मी सर्दी, भूख-प्यास का दुःख सहकर उनकी सेवा करता । कभी उनकी आज्ञा के विपरीत न चलता । बहुत दिनों में आचार्य प्रसन्न हुए और उन्होंने उसके कल्याण और सर्वज्ञता का वर दिया । ब्रह्मचर्याश्रम से लौटकर वह गृहस्थाश्रम में आया । वेद के भी तीन शिष्य थे, परंतु वे उन्हें कभी किसी काम या गुरु सेवा का आदेश नहीं करते थे । वे गुरुगृह के दुःखों को जानते थे और शिष्यों को दुःख देना नहीं चाहते थे।

एक बार राजा जनमेजय और राजा पौष्य ने आचार्य वेद को पुरोहित के रूप में वरण किया । वेद कभी पुरोहित के काम से बाहर जाते तो घर की देख-रेख के लिये अपने शिष्य उत्तंक को नियुक्त कर जाते थे । एक बार आचार्य वेद ने बाहर से लौटकर अपने शिष्य उत्तंक के सदाचार-पालन की बड़ी प्रशंसा सुनी । उन्होंने कहा ‘बेटा ! तुमने धर्म पर दृढ़ रहकर मेरी बड़ी सेवा की है। मैं तुम पर प्रसन्न हूँ । तुम्हारी सारी कामनाएं पूर्ण होंगी अब जाओ।’ उत्तंक ने प्रार्थना की, ‘आचार्य! मैं आपको कौन-सी प्रिय वस्तु भेंट में दूँ?’ आचार्य ने पहले तो अस्वीकार किया, लेकिन अपने शिष्य के लगातार आग्रह पर उन्होंने उससे कहा कि ‘अपनी गुरु माँ से पूछ लो।’

जब उत्तंक ने गुरु माँ से पूछा तो उन्होंने कहा, ‘तुम राजा पौष्य के पास जाओ और उनकी रानी के कानों के कुण्डल माँग लाओ । मैं आज के चौथे दिन उन्हें पहनकर ब्राह्मणों को भोजन परसना चाहती हूँ । ऐसा करने से तुम्हारा कल्याण होगा, अन्यथा नहीं ।’ उत्तंक ने वहाँ से चलकर देखा कि एक बहुत लंबा-चौड़ा पुरुष बड़े भारी बैल पर चढ़ा हुआ है । उसने उत्तंक को सम्बोधन करके कहा कि ‘तुम इस बैल का गोबर खा लो।’ उत्तंक ने ‘ना’ कर दिया। वह पुरुष फिर बोला, ‘उत्तंक ! तुम्हारे आचार्य ने पहले इसे खाया है। सोच विचार मत करो। खा जाओ।’

उत्तंक ने बैल का गोबर और मूत्र खा लिया और शीघ्रता के कारण बिना रुके कुल्ला करता हुआ ही वहाँ से चल पड़ा । उत्तंक ने राजा पौष्य के पास जाकर उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा कि ‘मैं आपके पास कुछ माँगने के लिये आया हूँ ।’ पौष्य ने उत्तंक का अभिप्राय जानकर उसे अन्तःपुर में रानी के पास भेज दिया। परंतु उत्तंक को रानीवास में कहीं भी रानी दिखायी नहीं दी। वहाँ से लौटकर उसने पौष्य को उलाहना दिया कि ‘अन्तःपुर में रानी नहीं है।’ पौष्य ने कहा-‘भगवन् ! मेरी रानी पतिव्रता है। उसे उच्छिष्ट या अपवित्र मनुष्य नहीं देख सकता।’ उत्तंक ने स्मरण करके कहा कि ‘हाँ, मैंने चलते-चलते आचमन कर लिया था।’ पौष्य ने कहा-‘ठीक है, चलते-चलते आचमन करना निषिद्ध है। इसलिये आप जूठे हैं।’

अब उत्तंक ने पूर्वाभिमुख बैठकर, हाथ-पैर-मुँह धोकर शब्द, फेन और उष्णता से रहित एवं हृदय तक पहुँचने योग्य जल से तीन बार आचमन किया और दो बहुत बार मुँह धोया । इस बार अन्तःपुर में जाने पर रानी दीख पड़ी और उसने उत्तंक को सत्पात्र समझकर अपने कुण्डल दे दिये । साथ ही यह कहकर सावधान भी कर दिया कि नागराज तक्षक ये कुण्डल चाहता है । कहीं तुम्हारी असावधानी से लाभ उठाकर वह ले न जाय ! मार्ग, चलते समय उत्तंक ने देखा कि उसके पीछे-पीछे एक नग्न क्षपणक चल रहा है, कभी प्रकट होता है और कभी छिप जाता है । एक बार उत्तंक ने कुण्डल रखकर जल लेने की चेष्टा की । इतने ही में वह क्षपणक कुण्डल लेकर अदृश्य हो गया ।

नागराज तक्षक ही उस वेष में आया था । उत्तंक ने इन्द्र के वज्र की सहायता से नागलोक तक उसका पीछा किया। अन्त में भयभीत होकर तक्षकने उसे कुण्डल दे दिये। उत्तंक ठीक समय पर अपनी गुरु आनी के पास पहुँचा और उन्हें कुण्डल देकर आशीर्वाद प्राप्त किया। अब आचार्य से आज्ञा प्राप्त करके उत्तंक हस्तिनापुर आया । वह तक्षक पर अत्यन्त क्रोधित था और उससे बदला लेना चाहता था ।

उस समय तक हस्तिनापुर के सम्राट् जनमेजय तक्षशिला पर विजय प्राप्त करके लौट चुके थे । उत्तंक ने सम्राट् जनमेजय से कहा, ‘राजन् ! तक्षक ने आपके पिता को डॅसा है । आप उससे बदला लेने के लिये यज्ञ कीजिये । काश्यप आपके पिता की रक्षा करने के लिये आ रहे थे परंतु उन्हें उसने लौटा दिया । अब आप सर्प-सत्र कीजिये और उसकी प्रज्वलित अग्नि में उस पापी को जलाकर भस्म कर डालिये । उस दुरात्मा ने मेरा भी कम अनिष्ट नहीं किया है । आप सर्प-सत्र करेंगे तो आपके पिता की मृत्यु का बदला चुकेगा और मुझे भी प्रसन्नता होगी ।’

उत्तंक से सम्राट् जनमेजय की हुई बातचीत ने जनमेजय को प्रेरित किया अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए | सम्राट् जनमेजय की आँखों में खून उतर चूका था | क्रोध से उनकी भुजाएं फड़क रही थी |

इतिहास की सबसे सुंदर स्त्री क्या आप शिमला भूतिया टनल नंबर 33 के बारे में यह जानते हैं? क्या आप भूतों के रहने वाले इस कुलधरा गांव के बारे में जानते हैं? भूत की कहानी | bhoot ki kahani क्या आप जानते हैं कैलाश पर्वत का ये रहस्य? क्या आप जानते हैं निधिवन का ये रहस्य – पूरा पढ़िए
इतिहास की सबसे सुंदर स्त्री क्या आप शिमला भूतिया टनल नंबर 33 के बारे में यह जानते हैं? क्या आप भूतों के रहने वाले इस कुलधरा गांव के बारे में जानते हैं? भूत की कहानी | bhoot ki kahani क्या आप जानते हैं कैलाश पर्वत का ये रहस्य? क्या आप जानते हैं निधिवन का ये रहस्य – पूरा पढ़िए