परीक्षित के पुत्र जन्मेजय को महाभारत की कथा सुनते हुए वैशम्पायन जी कहते हैं “जनमेजय ! द्रुपद को जीत लेने के एक वर्ष बाद राजा धृतराष्ट्र ने पाण्डु नन्दन युधिष्ठिर को युवराज पद पर अभिषिक्त कर दिया । एक तो युधिष्ठिर में धैर्य, स्थिरता, सहिष्णुता, दयालुता, नम्रता और अविचल प्रेम आदि बहुत-से लोकोत्तर गुण थे; दूसरे सारी प्रजा चाह रही थी कि युधिष्ठिर ही युवराज हो ।
युवराज होने के बाद थोड़े ही दिनों में धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने शील, सदाचार और विचारशीलता के द्वारा प्रजा के हृदय पर अपने सद्गुणों की ऐसी छाप बैठा दी कि लोग उनके उदार चरित्र पिता को भी भूलने लगे । इधर भीम सेना ने बलराम जी से खड्ग, गदा और इधर भीम सेना ने बलरामजी से खड्ग, गदा और रथ के युद्ध की विशिष्ट शिक्षा प्राप्त की ।
युद्ध की शिक्षा पूरी हो जाने पर वे अपने भाइयों के अनुकूल रहने लगे । कई विशेष अस्त्र-शस्त्रों के संचालन में, फुर्ती और सफाई में उन दिनों अर्जुन के समान कोई योद्धा नहीं था । द्रोणाचार्य का ऐसा ही निश्चय था । उन्होंने एक दिन कौरवों की भरी सभा में अर्जुन से कहा, “अर्जुन ! देखो, मैं महर्षि अगस्त्य के शिष्य अग्निवेश्य का शिष्य हूँ ।
उन्हीं से मैंने ब्रह्मशिर नामक अस्त्र प्राप्त किया था, जो तुम्हें दे दिया । उसके जो नियम हैं, वे तुम्हें बतला चुका हूँ । अब मुझे तुम अपने भाई बन्धुओं के सामने यह गुरु दक्षिणा दो कि यदि युद्ध में मेरा और तुम्हारा मुकाबला हो तो तुम मुझसे लड़ने में भी मत हिचकना” । अर्जुन ने गुरुदेव की आज्ञा स्वीकार की और उनके चरणों का स्पर्श करके बायीं ओर से निकल गये । पृथ्वी में सर्वत्र यह बात फैल गयी कि अर्जुन के समान श्रेष्ठ धनुर्धर और कोई नहीं है ।
भीम सेना और अर्जुन के समान ही सहदेव ने भी बृहस्पति से, सम्पूर्ण नीति शास्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी । अतिरथी नकुल भी बड़े विनीत और तरह तरह के युद्धों में कुशल थे । अर्जुन ने तो सौवीर देश के राजा दत्तामित्र को भी, जो बड़ा बली और मानी था, जिसने गन्धर्वो का उपद्रव रहते हुए भी तीन वर्ष तक लगातार यज्ञ किया था और जिसे स्वयं राजा पाण्डु भी नहीं जीत सके थे, युद्ध में मार गिराया ।
इसके अतिरिक्त भीमसेन की सहायता से पूर्व दिशा और बिना किसी की सहायता के दक्षिण दिशा पर भी विजय प्राप्त कर ली । दूसरे राज्यों के धन-वैभव कौरवॉ के राज्य में आने लगे तो उनके राज्य की बड़ी वृद्धि हुई । देश-विदेश में पाण्डवों की प्रसिद्धि हो गयी और सब उनकी ओर आकर्षित होने लगे । यह सब देख-सुनकर यकायक धृतराष्ट्र के भाव में परिवर्तन हो गया ।
दूषित भाव के उद्रेक के कारण वे अत्यन्त चिन्तित रहने लगे । जब उनकी आतुरता अत्यन्त बढ़ गयी, तब उन्होंने अपने श्रेष्ठ मन्त्री राजनीति विशारद कणिक को बुलवाया । धृतराष्ट्र ने कहा, “कणिक ! दिनों दिन पाण्डवों का यश बढ़ता ही जा रहा है । मेरे चित्त में बड़ी ईर्ष्या हो रही है । तुम निश्चित रूप से बतलाओ कि उनके साथ मुझे सन्धि करनी चाहिये या विग्रह ? मैं तुम्हारी बात मानूँगा” ।
कणिक ने कहा “राजन् ! आप मेरी बात सुनिये, मुझ पर रुष्ट न होइयेगा । राजा को सर्वदा दण्ड देने के लिये उद्यत रहना चाहिये और दैव के भरोसे न रहकर पौरुष प्रकट करना चाहिये । अपने में कोई कमजोरी न आने दे और हो भी तो किसी को मालूम न होने दे । दूसरों की कमजोरी जानता रहे । यदि शत्रु का अनिष्ट प्रारम्भ कर दे तो उसे बीच में न रोके ।
काँटे की नोक भी यदि भीतर रह जाय तो बहुत दिनों तक मवाद देती रहती है । शत्रु को कमजोर समझकर आँख नहीं मूंद लेनी चाहिये । यदि समय अनुकूल न हो तो उसकी ओर से आँख कान बंद कर ले । परन्तु सावधान रहे सर्वदा । शरणागत शत्रु पर भी दया नहीं दिखानी चाहिये ।
शत्रु के तीन (मन्त्र, बल और उत्साह), पाँच (सहाय, सहायक, साधन, उपाय, देश और काल का विभाग) तथा सात (साम, दान, भेद, दण्ड, माया, ऐन्द्रजालिक प्रयोग और शत्रु के गुप्त कार्य) राज्यांगों को नष्ट करता रहे । जब तक समय अपने अनुकूल न हो, तब तक शत्रु को कंधे पर चढ़ाकर भी ढोया जा सकता है ।
परन्तु समय आने पर मटके की तरह पटक कर उसे फोड़ डालना चाहिये । साम, दान, दण्ड, भेद आदि किसी भी उपाय से अपने शत्रु को नष्ट कर देना ही राजनीति का मूल मन्त्र है” । धृतराष्ट्र ने कहा “कणिक ! साम, दान, भेद अथवा दण्ड के द्वारा किस प्रकार शत्रु का नाश किया जाता है-यह बात तम ठीक-ठीक बतलाओ” ।
कणिक ने कहा “महाराज ! मैं आपको इस विषय में एक कथा सुनाता हूँ । किसी वन में एक बड़ा बुद्धिमान् और स्वार्थ कोविद गीदड़ रहता था । उसके चार सखा-बाघ, चूहा, भेड़िया और नेवला भी वहीं रहते थे । एक दिन उन्होंने एक बड़ा बलवान् और हट्टा-कट्टा हरिणों का सरदार देखा । पहले तो उन्होंने उसे पकड़ने की चेष्टा की; परन्तु असफल रहे ।
इसके बाद उन लोगों ने आपस में विचार किया । गीदड़ ने कहा, “यह हरिण दौड़ने में बड़ा फुर्तीला, जवान और चतुर है । भाई बाघ ! तुमने इसे मारने की कई बार कोशिश की, पर सफलता न मिली । अब ऐसा उपाय किया जाय कि जब यह हरिण सो रहा हो तो चूहा भाई जाकर धीरे-धीरे इसका पैर कुतर लें । फिर आप पकड़ लीजिये तथा हम सब मिलकर इसे मौज से खा जायें” ।
सबने मिल-जुलकर वैसा ही किया । हिरन मर गया । खाने के समय गीदड़ ने कहा, “अच्छा, अब तुम लोग स्नान कर आओ । मैं इसकी देख-भाल करता हूँ” । सब के चले जाने पर गीदड़ मन-ही-मन कुछ विचार करने लगा । तब तक बलवान् बाघ स्नान कर के नदी से लौट आया ।
गीदड़ को चिन्तित देखकर बाघ ने पूछा, “मेरे चतुर मित्र ! तुम किस उधेड़-बुन में पड़े हो ? आओ, आज इस हरिण को खाकर हम लोग मौज करें” ।गीदड़ ने कहा, “बलवान् बाघ भाई ! चूहे ने मुझ से कहा है कि बाघ के बल को धिक्कार है ! हरिण को तो मैंने मारा है । आज वह बाघ मेरी कमाई खायेगा । सो भाई ! उसकी यह घमण्ड भरी बात सुनकर मैं तो अब हरिण को खाना अच्छा नहीं समझता” ।
बाघ ने कहा | “अच्छा, ऐसी बात है ? उसने तो मेरी आँखें खोल दी । अब मैं अपने बूते पर पशुओं को मारकर खाऊँगा” । यह कहकर बाघ चला गया । उसी समय चूहा आया । गीदड़ ने कहा, “चूहा भाई ! नेवला मुझसे कह रहा था कि बाघ के काटने से हरिण के मांस में जहर मिल गया है । सो मैं तो इसे खाऊँगा नहीं, यदि तुम कहो तो मैं चूहे को खा जाऊँ । अब तुम जैसा ठीक समझो, करो” ।
चूहा डरकर अपने बिल में घुस गया । अब भेड़िये की बारी आयी । गीदड़ ने कहा, “भेड़िया भाई ! आज बाघ तुम पर बहुत नाराज हो गया है । मुझे तो तुम्हारा भला नहीं दीखता । वह अभी बाघिन के साथ यहाँ आयेगा । जो ठीक समझो, करो” । भेड़िया दुम दबा कर भाग निकला । तब तक नेवला आया ।
गीदड़ ने कहा, “देख रे नेवले ! मैंने लड़कर बाघ, भेड़िये और चूहे को भगा दिया है । यदि तुझे कुछ घमण्ड हो तो आ, मुझ से लड़ ले और फिर हरिण का मांस खा” । नेवले ने कहा, “जब सभी तुम से हार गये तो मैं तुम से लड़ने की हिम्मत कैसे करूँ” । वह भी चला गया । अब गीदड़ अकेला ही मांस खाने लगा ।
“राजन्! चतुर राजा के लिये भी ऐसी ही बात है । डरपोक को भयभीत कर दे, शूरवीर को हाथ जोड़ ले । लोभी को कुछ दे दे और बराबर तथा कमजोर को पराक्रम दिखाकर वश में कर ले । शत्रु चाहे कोई भी हो, उसे मार डालना चाहिये । सौगन्ध खाकर और धन की लालच देकर जहर या धोखे से भी शत्रु को ले बीतना चाहिये । मन में द्वेष रहने पर भी मुस्कुरा कर बातचीत करनी चाहिये ।
मारने की इच्छा रखता और मारता हुआ भी मीठा ही बोले । मार कर कृपा करे, अफसोस करे और रोवे । शत्रु को सन्तुष्ट रखे, परन्तु उसकी चूक देखते ही चढ़ बैठे । जिन पर शंका नहीं होती, उन्हीं पर अधिक शंका करनी चाहिये । वैसे लोग अधिक धोखा देते हैं । जो विश्वासपात्र नहीं हैं, उन पर तो विश्वास नहीं ही करना चाहिये ।
जो विश्वासपात्र हैं, उन पर भी विश्वास नहीं करना चाहिये । सर्वत्र पाखण्डी, तपस्वी आदि के वेष में परीक्षित गुप्तचर रखने चाहिये । बगीचा , टहलने के स्थान, मन्दिर, सड़क, तीर्थ, चौराहे, कृएँ, पहाड़, जंगल और सभी भीड़भाड़ के स्थानों में गुप्तचरों को अदलते-बदलते रहना चाहिये । वाणी का विनय और हृदय की कठोरता, भयंकर काम करते हुए भी मुसकराकर बोलना-यह नीति-निपुणता का चिह्न है ।
हाथ जोड़ना, सौगन्ध खाना, आश्वासन देना, पैर छूना और आशा बँधाना-ये ही सब ऐश्वर्यप्राप्ति के उपाय हैं । जो अपने शत्रु से सन्धि कर के निश्चिन्त हो जाता है, उसका होश तब ठिकाने आता है जब उसका सर्वनाश हो जाता है । अपनी बातें केवल शत्रु से ही नहीं, मित्र से भी छिपानी चाहिये । किसी को आशा दे भी तो बहुत दिनों को ।
बीच में अड़चन डाल दे । कारण-पर-कारण गढ़ता जाय । राजन् ! आपको पाण्डु पुत्रों से अपनी रक्षा करनी चाहिये । वे दुर्योधन आदि से बलवान हैं । आप ऐसा उपाय कीजिये कि उनसे कोई भय न रहे और पीछे पश्चात्ताप भी न करना पड़े । इससे अधिक और मैं क्या कहूँ”। यह कहकर कणिक अपने घर चला गया । धृतराष्ट्र और भी चिन्तातुर होकर सोच-विचार करने लगे ।