जब विक्रमादित्य अपने राज्य के नौनिहालों की प्राणरक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने से भी नहीं हिचके

जब विक्रमादित्य अपने राज्य के नौनिहालों की प्राणरक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदानराजा भोज को, स्वर्ण सिंहासन की नवीं पुतली, मधुमालती ने जो कथा सुनाई उससे विक्रमादित्य की प्रजा के हित में अपने प्राणों की आहुति करने की भी भावना झलकती है । वह कथा इस प्रकार है | एक बार राजा विक्रमादित्य ने राज्य और प्रजा की सुख-समृद्धि के लिए एक विशाल यज्ञ का आयोजन करवाया । वह यज्ञ कई दिनों तक यज्ञ चलता रहा ।

एक दिन उस यज्ञ में राजा मंत्र-पाठ कर रहे, तभी वहाँ एक ॠषि पधारे । राजा ने उन्हें देखा, पर उनके लिए यज्ञ छोड़कर उठ पाना असम्भव था । उन्होंने मन ही मन ॠषि का अभिवादन किया तथा उन्हें प्रणाम किया । उन ॠषि ने भी राज्य का अभिप्राय समझकर उन्हें स्नेह युक्त आशीर्वाद दिया।

जब राजा यज्ञ से उठे, तो स्वागत सत्कार के बाद उन्होंने ॠषि से आने का प्रयोजन पूछा । राजा को मालूम था कि नगर से बाहर कुछ ही दूर पर वन में ॠषि एक गुरुकुल चलाते हैं जहाँ बच्चे विद्या प्राप्त करने जाते थे ।

ॠषि ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया कि यज्ञ के पुनीत अवसर पर वे विक्रम को कोई असुविधा नहीं देते, अगर आठ से बारह साल तक के छ: बच्चों के जीवन का प्रश्न नहीं होता । राजा भी गंभीर हो गए | उन्होंने उनसे सब कुछ विस्तार से बताने को कहा । इस पर ॠषि ने बताया कि कुछ बच्चे आश्रम के लिए सूखी लकड़ियाँ बीनने वन में इधर-उधर घूम रहे थे ।

तभी दो राक्षस आए और उन्हें पकड़कर ऊँची पहाड़ी पर ले गए । ॠषि ने बताया कि जब वे बच्चे उन्हें वहाँ उपस्थित नहीं मिले तो उनकी खोज में वे वन में बेचैनी से भटकने लगे । तभी पहाड़ी के ऊपर से गर्जना जैसी आवाज सुनाई पड़ी जो निश्चित ही उनमें से एक राक्षस की थी । राक्षस ने अपनी तेज आवाज में उन ऋषि से कहा कि उन बच्चों की जान के बदले उन्हें एक पुरुष की आवश्यकता है जिसकी वे माँ काली के सामने बलि देंगे ।

ॠषि ने विक्रम को बताया कि जब उन्होंने बलि के हेतु अपने-आपको उनके हवाले करना चाहा तो उन्होंने असहमति जताई । उन्होंने कहा कि ॠषि बूढे हैं और काली माँ ऐसे कमज़ोर बूढ़े की बलि से प्रसन्न नहीं होगी । काली माँ की बलि के लिए अत्यन्त स्वस्थ क्षत्रिय की आवश्यकता है । राक्षसों ने कहा है कि अगर कोई छल या बल से उन बच्चों को स्वतंत्र कराने की चेष्टा करेगा, तो उन बच्चों को पहाड़ी से लुढ़का कर मार दिया जाएगा ।

राजा विक्रमादित्य से ॠषि की परेशानी नहीं देखी जा रही थी। वे तुरन्त तैयार हुए और ॠषि से बोले- “आप मुझे उस पहाड़ी तक ले चलिए । मैं अपने आपको माँ काली के सम्मुख बलि के लिए प्रस्तुत कर दूँगा । मैं स्वस्थ हूँ और क्षत्रिय भी । राक्षसों को कोई आपत्ति नहीं होगी ।

ॠषि ने सुना तो हत्प्रभ रह गए । उन्होंने लाख मनाना चाहा, पर विक्रम ने अपना फैसला नहीं बदला । उन्होंने कहा अगर राजा के जीवित रहते उसके राज्य की प्रजा पर कोई विपत्ति आती है तो राजा को अपने प्राण देकर भी उस विपत्ति को दूर करना चाहिए।

सम्राट विक्रमादित्य ॠषि को साथ लेकर उस पहाड़ी तक पहुँचे । पहाड़ी के नीचे उन्होंने अपना घोड़ा छोड़ दिया तथा पैदल ही पहाड़ पर चढ़ने लगे । पहाड़ी वाला रास्ता बहुत ही कठिन था, पर उन्होंने मार्ग में आने वाली कठिनाई की परवाह नहीं की । वे चलते-चलते पहाड़ी की चोटी पर पहुँचे । उनके पहुँचते ही उनको देख कर एक राक्षस बोला कि वह उन्हें पहचानता है और पूछने लगा कि उन्हें बच्चों की रिहाई की शर्त मालूम है कि नहीं।

विक्रम ने उत्तर दिया कि वे सब कुछ जानने के बाद ही यहाँ आए हैं तथा उन्होंने राक्षसों से बच्चों को छोड़ देने को कहा । विक्रम की बात सुन कर एक राक्षस बच्चों को अपनी बाँहों में लेकर उड़ा और नीचे उन्हें सुरक्षित पहुँचाने आया । दूसरा राक्षस उन्हें लेकर उस जगह आया जहाँ माँ काली की प्रतिमा थी और बलिवेदी बनी हुई थी विक्रमादित्य ने बलिवेदी पर अपना सर बलि के हेतु झुका दिया ।

वे ज़रा भी विचलित नहीं हुए । उन्होंने मन ही मन इस अपना अन्तिम समय समझ कर भगवान का स्मरण किया और वह राक्षस खड्ग लेकर उनका सर धड़ से अलग करने को तैयार हो गया । लेकिन इससे पहले कि मृत्यु विक्रम को छू पाती, अचानक उस राक्षस ने खड्ग फेंक दिया और विक्रम को गले लगा लिया ।

वह जगह एकाएक अद्भुत प्रकाश तथा सुगंध से भर गयी । विक्रम ने देखा कि दोनों राक्षसों की जगह इन्द्र तथा पवन देवता खड़े थे । उन दोनों ने उनकी परीक्षा लेने के लिए ही यह सब किया था वे देखना चाहते थे कि विक्रम सिर्फ सांसारिक चीज़ों का दान ही कर सकता है या अपना प्राणोत्सर्ग करने की भी क्षमता रखता है ।

उन्होंने राजा से कहा कि उन्हें यज्ञ करता देख ही उन लोगों के मन में इस परीक्षा का भाव जन्मा था । उन्होंने विक्रम को यशस्वी होने का आशीर्वाद दिया तथा कहा कि उनकी कीर्ति चारों ओर फैलेगी ।

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