जब विक्रमादित्य ने अपने राज्य के निर्धन ब्राहमण तथा भाट को पुत्रियों के विवाह के लिए राजकीय सहायता देने में न्याय किया

जब विक्रमादित्य ने अपने राज्य के निर्धन ब्राहमण तथा भाट को पुत्रियों के विवाह के लिए राजकीय सहायता देने में न्याय किया खुदायी में प्राप्त सम्राट विक्रमादित्य के स्वर्ण सिंहासन की पचीसवी पुतली त्रिनेत्री ने राजा भोज को एक बार फिर रोक दिया | सिंहासन प्राप्त करने से पहले उसने उन्हें विक्रमादित्य की एक कथा सुनाई | उसने कहा ‘राजा विक्रमादित्य अपनी प्रजा के सुख दुख का पता लगाने के लिए कभी-कभी वेश बदलकर घूमा करते थे तथा खुद सारी समस्या का पता लगाकर उसका निदान करते थे ।

उन दिनों उनके राज्य उज्जैयिनी में एक दरिद्र ब्राह्मण और भाट रहते थे । वे दोनों अपना कष्ट अपने तक ही सीमित रखते हुए अपना जीवन-यापन किसी तरह से कर रहे थे तथा कभी किसी के प्रति कोई शिकायत नहीं रखते थे । वे अपनी गरीबी को अपना प्रारब्ध समझकर सदा खुश रहते थे तथा अपनी सीमित आय से संतुष्ट थे ।

सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, मगर जब भाट की बेटी विवाह योग्य हुई तो भाट की पत्नी को उसके विवाह की चिन्ता सताने लगी । उसने अपने पति से कहा कि वह पुश्तैनी पेशे से जो कमाकर लाता है उससे दैनिक खर्च तो आराम से चल जाता है, मगर बेटी के विवाह के लिए कुछ भी नहीं बच पाता है । बेटी के विवाह में बहुत खर्च आता है, अत: उसे कोई और प्रयास करना होगा ।

भाट यह सुनकर हँस पड़ा और कहने लगा कि बेटी उसे भगवान की इच्छा से प्राप्त हुई है, इसलिए उसके विवाह के लिए भगवान ही कोई रास्ता निकाल ही देंगे । अगर ऐसा नहीं होता तो हर दम्पत्ति को केवल पुत्र की ही प्राप्ति होती या कोई दम्पति संतानहीन न रहते । सब ईश्वर की इच्छा से ही होता है । दिन बीतते गए, पर भाट को बेटी के विवाह में खर्च लायक धन नहीं मिल सका ।

उसकी स्त्री अब दुखी रहने लगी थी । भाट से उसका दुख नहीं देखा गया तो वह एक दिन धन इकट्ठा करने का निश्चय कर के निकल पड़ा । कई राज्यों का भ्रमण कर उसने सैकड़ों राज्याधिकारियों तथा बड़े-बड़े सेठों को हँसाकर उनका मनोरंजन किया तथा उनकी प्रशंसा में गीत गाए । खुश होकर उन लोगों ने जो पुरस्कार दिए उससे बेटी के विवाह लायक धन इकठ्ठा हो गया ।

जब वह सारा धन लेकर लौट रहा था तो रास्ते में न जाने चोरों को कैसे उसके धन की भनक लग गई । उन्होंने उसका सारा धन लूट लिया । अब तो भाट का विश्वास केवल भगवान पर ही था । और उसके पास बेटी के ब्याह के लिए धन भी नहीं बचा था । वह जब लौटकर घर आया तो उसकी पत्नी को आशा थी कि वह ब्याह के लिए उचित धन लाया होगा ।

भाट ने अपनी पत्नी को बताया कि उसके बार-बार कहने पर वह विवाह के लिए धन अर्जित करने के लिए कई प्रदेश गया और तरह-तरह के लोगों से मिला । लोगों से पर्याप्त धन भी एकत्र कर लाया पर भगवान को उस धन से उसकी बेटी का विवाह होना मंजूर नहीं था । रास्ते में उसका सारा धन लुटेरों ने लूट लिया और किसी तरह प्राण बचाकर वह वापस लौट आया है ।

भाट की पत्नी गहरी चिन्ता में डूब गई । दुखी हो कर उसने पति से पूछा कि अब बेटी का ब्याह कैसे होगा । भाट ने फिर अपनी बात दुहराई कि जिसने बेटी दी है वही ईश्वर उसके विवाह की व्यवस्था भी कर देगा ।

इस पर उसकी पत्नी निराशा भरी खीझ के साथ बोली कि “हाँ जैसे लगता है ईश्वर महाराजा विक्रमादित्य को ही तुम्हारे पुत्री के विवाह की व्यवस्था करने भेजेंगे” । जब यह वार्तालाप हो रहा था तभी महाराज विक्रमादित्य उसके घर के पास से गुज़र रहे थे । उन्हें भाट की पत्नी की उस टिप्पणी पर हँसी आ गई ।

दूसरी तरफ ब्राह्मण अपनी आजीविका के लिए पुश्तैनी पेशा अपनाकर जैसे-तैसे गुज़र-बसर कर रहा था । वह पूजा-पाठ करवाकर जो कुछ भी दक्षिणा के रूप में प्राप्त करता उसी से आनन्दपूर्वक निर्वाह कर रहा था । ब्राह्मणी को भी तब तक सब कुछ सामान्य दिख पड़ा जब तक कि उनकी बेटी विवाह योग्य नहीं हुई ।

बेटी के विवाह की चिन्ता जब उस ब्राह्मणी को सताने लगी तो उसने ब्राह्मण को कुछ धन जमा करने को कहा । मगर ब्राह्मण चाहकर भी नहीं कर पाया । पत्नी के बार-बार याद दिलाने पर उसने अपने यजमानों को घुमा फिरा कर कहा भी, मगर किसी यजमान ने उसकी बात को गंभीरतापूर्वक नहीं लिया । एक दिन ब्राह्मणी तंग आकर बोली कि विवाह खर्च महाराजा विक्रमादित्य से मांगकर देखो, क्योंकि अब और कोई विकल्प नहीं बचा है ।

कन्यादान तो करना ही है । ब्राह्मण ने कहा कि वह महाराज के पास ज़रूर जाएगा । महाराज धन दान करेंगे तो सारी व्यवस्था हो जाएगी । संयोग ऐसा की उसकी भी पत्नी के साथ पूरी बातचीत विक्रम ने उस समय सुन ली, क्योंकि उसी समय वे उसके घर के पास गुज़र रहे थे ।

सुबह में उन्होंने सिपाहियों को भेजकर भाट तथा ब्राह्मण दोनों को दरबार में बुलवाया । विक्रमादित्य ने अपने हाथों से भाट को दस लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान की । फिर ब्राह्मण को राजकोष से कुछ सौ मुद्राएँ दिलवा दी । वे दोनों अति प्रसन्न हो वहाँ से विदा हो गए । जब वे चले गए तो सभी अधीर दरबारियों में से एक दरबारी से नहीं रहा गया | अंततः उस दरबारी ने महाराज से कुछ कहने की अनुमति मांगी ।

उसने जिज्ञासा की कि भाट और ब्राह्मण दोनों कन्या दान के लिए धन चाहते थे तो महाराज ने पक्षपात क्यों किया । भाट को दस लाख और ब्राह्मण को सिर्फ कुछ सौ स्वर्ण मुद्राएँ क्यों दी । विक्रम ने जवाब दिया कि भाट धन के लिए उनके आसरे पर नहीं बैठा था । वह ईश्वर से आस लगाये बैठा था ।

ईश्वर से आस लगाने के साथ साथ उसने धन कमाने के लिए पुरुषार्थ भी किया | ये उसका दुर्भाग्य ही था कि उसके द्वारा कमाए गए सारे धन को लुटेरों ने लूट लिया | इतनी दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटने के बाद भी उसने ईश्वर में विश्वास बनाए रखा |

ईश्वर लोगों को कुछ भी दे सकते हैं, इसलिए उन्होंने उसे ईश्वर का प्रतिनिधि बनाकर अप्रत्याशित दान दिया, जबकि ब्राह्मण कुलीन वंश का होते हुए भी ईश्वर में पूरी आस्था नहीं रखता था । वह उनसे सहायता की अपेक्षा रखता था । राजा भी साधारण मनुष्य है, ईश्वर का स्थान नहीं ले सकता । उन्होंने उसे उतना ही धन दिया जितने में विवाह अच्छी तरह संपन्न हो जाए । राजा का ऐसा गूढ़ उत्तर सुनकर सभी दरबारियों ने मन ही मन उनकी प्रशंसा की तथा वे शांत हो गए ।

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