जब विक्रमादित्य की परोपकार की भावना से प्रसन्न हो कर चन्द्रदेव ने उन्हें अमृत दिया

जब विक्रमादित्य की परोपकार की भावना से प्रसन्न हो कर चन्द्रदेव ने उन्हें अमृत दिया इक्कीसवें दिन राजा भोज को, स्वर्ण सिंहासन की इक्कीसवीं पुतली चन्द्रज्योति ने रोका | उसने राजा भोज को सम्राट विक्रमादित्य के जीवन का रोचक प्रसंग बताया | उसने कहा “एक बार राजा विक्रमादित्य एक यज्ञ करने की तैयारी कर रहे थे । वे उस यज्ञ में चन्द्र देव को आमन्त्रित करना चाहते थे ।

अब प्रश्न उठा कि चन्द्रदेव को आमन्त्रण देने कौन जाए-इस पर सभी विचार करने लगे । काफी सोच विचार के बाद उन्हें लगा कि महामंत्री ही इस कार्य के लिए सर्वोत्तम रहेंगे । विक्रमादित्य ने महामंत्री को बुलाकर उनसे विचार विमर्श करना शुरू किया । तभी महामंत्री के घर का एक नौकर वहाँ आकर खड़ा हो गया ।

महामंत्री ने उसे देखा तो समझ गए कि अवश्य कोई बहुत ही गंभीर बात है अन्यथा वह नौकर उसके पास नहीं आता । उन्होंने राजा से क्षमा मांगी और नौकर से अलग जाकर कुछ पूछा । जब नौकर ने कुछ बताया तो उनका चेहरा उतर गया और वे राजा से विदा लेकर वहाँ से चले गए ।

महामंत्री के अचानक दुखी और चिन्तित होकर चले जाने पर राजा को लगा कि अवश्य ही महामंत्री को कोई भरी कष्ट पड़ा है । उन्होंने महामन्त्री के उस नौकर से उनके इस तरह जाने का कारण पूछा तो नौकरपहले तो हिचकिचाया । लेकिन जब राजा ने आदेश दिया तो वह हाथ जोड़कर बोला कि महामंत्री जी ने मुझे आपसे सच्चाई नहीं बताने को कहा था ।

उन्होंने कहा था कि सच्चाई जानने के बाद राजा का ध्यान बँट जाएगा और जो यज्ञ होने वाला है उसमें व्यवधान होगा । राजा ने कहा कि महामंत्री उनके बड़े ही स्वामिभक्त सेवक हैं और उनका भी कर्त्तव्य है कि वे उनके कष्ट का हर संभव निवारण करें ।

तब नौकर ने बताया कि ‘महामंत्री जी की एकमात्र संतान, उनकी पुत्री, बहुत लम्बे समय से बीमार है । उन्होंने उसकी बीमारी एक से बढ़कर एक वैद्य को दिखाई, पर कोई भी चिकित्सा कारगर नहीं साबित हुई । दुनिया की हर औषधि उसे दी गई, पर उसकी हालत बिगड़ती ही चली गई । अब उसकी हालत इतनी खराब हो चुकी है कि वह हिल-डुल नहीं सकती और मरणासन्न हो गई है’ ।

विक्रमादित्य ने जब यह सुना तो दुःख से व्याकुल हो गए । उन्होंने तुरंत राजवैद्य को बुलवाया और जानना चाहा कि उन्होंने महामंत्री की पुत्री की चिकित्सा की है या नही । राजवैद्य ने विक्रमादित्य से कहा “हाँ मैंने उसे देखा है, मै उसके रोग को जानता हूँ |

मेरा मानना है कि उसकी चिकित्सा केवल ख्वांग बूटी से की जा सकती है । दुनिया की अन्य कोई औषधि उस रोग पर कारगर नहीं हो सकती । ख्वांग बूटी एक बहुत ही दुर्लभ औषधि है जिसे ढूँढ़कर लाने में कई महीने लग जाएँगे” ।

राजा विक्रमादित्य ने यह सुनकर कहा “आपको उस स्थान का पता है जहाँ यह बूटी मिलती है?” राज वैद्य ने बताया कि वह बूटी नीलरत्नगिरि पर्वत की घाटियों में पाई जाती है लेकिन उस तक पहुँचना बहुत ही कठिन है । रास्ते में भयंकर सापं, बिच्छू तथा हिंसक जानवर भरे पड़े हैं” ।

राजा ने यह सुनकर उनसे उस बूटी की पहचान बताने को कहा । राज वैद्य ने बताया कि वह पौधा आधा नीला आधा पीला फूल लिए होता है तथा उसकी पत्तियाँ लाजवन्ती के पत्तों की तरह स्पर्श से सकुचा जाती हैं ।

अब तक विक्रमादित्य ने यज्ञ की बात को भूलकर ख्वांग बूटी की खोज में जाने का निश्चय कर लिया था । उन्होंने तुरन्त माँ काली के द्वारा दिए गए दोनों बेतालों का स्मरण किया । बेताल उन्हें आनन-फानन में नीलरत्नगिरि की ओर ले चले ।

पहाड़ी पर उन्हें उतारकर बेताल अदृश्य हो गए । राजा घाटियों की ओर बढ़ने लगे । घाटियों में एकदम अंधेरा था । चारों ओर घने जंगल थे । राजा बढ़ते ही रहे । एकाएक उनके कानों में सिंह की दहाड़ पड़ी । वे सम्भल पाते इसके पहले ही सिंह ने उन पर आक्रमण कर दिया ।

राजा ने बिजली जैसी फुर्ती दिखाकर खुद को तो बचा लिया, मगर सिंह उनकी एक बाँह को घायल करने में कामयाब हो गया । सिंह दुबारा जब उन पर झपटा तो उन्होंने अपने वज्र जैसे हाँथों के भरपूर मुष्टि प्रहार से उसके प्राण ले लिए । उसे मारकर जब वे आगे बढ़े तो रास्ते पर सैकड़ों विषधर दिखे । विक्रम तनिक भी नहीं घबराए और उन्होंने मायावी बाणों से बड़े-बड़े पत्थरों की अनवरत वर्षा करके साँपों को रास्ते से हटा दिया ।

उसके बाद वे आगे की ओर बढ़ चले । रास्ते में एक जगह उन्हें लगा कि वे हवा में उठ कर एक तरफ खिंच रहे है । ध्यान से देखने पर उन्हें एक दैत्याकार अजगर दिखा । वे समझ गए कि अजगर उन्हें अपना ग्रास बना रहा है ।

ज्योंहि वे अजगर के पेट में पहुँचे कि उन्होंने अपनी तलवार से अजगर का पेट चीर दिया और बाहर आ गए । तब तक गर्मी और थकान से उनका बुरा हाल हो चुका था । अंधेरा भी घिर आया था । उन्होंने एक वृक्ष पर चढ़कर विश्राम किया । ज्योंहि सुबह हुई वे ख्वांग बूटी की खोज में इधर-उधर घूमने लगे । उसकी खोज में इधर-उधर भटकते न जाने कब शाम हो गई और अंधेरा छा गया ।

अधीर होकर उन्होंने प्रार्थना करते हुए कहा “हे चन्द्रदेव, मेरी सहायता करिए!” इतना कहना था कि मानों चमत्कार हो गया । घाटियों में दूध जैसी चाँदनी फैल गई । अन्धकार न जाने कहाँ गायब हो गया । सारी चीज़े ऐसी साफ दिखने लगीं मानो वहाँ दिन का उजाला हो । थोड़ी दूर बढ़ने पर ही उन्हें ऐसे पौधे की झाड़ी नज़र आई जिस पर आधे नीले आधे पीले फूल लगे थे ।

उन्होंने उन पौधों की पत्तियाँ छूई तो वे लाजवंती की तरह सकुचा गई । अब उन्हें उसका, ख्वांग बूटी का पौधा होने में संशय नहीं रहा । उन्होंने उसमे से ख्वांग बूटी का बड़ा-सा हिस्सा काट लिया । वे बूटी लेकर चलने ही वाले थे कि एकदम से दिन जैसा उजाला हुआ और चन्द्र देव सशरीर उनके सम्मुख प्रकट हो गए ।

विक्रमादित्य ने बड़ी श्रद्धा से उनको प्रणाम किया और उनकी स्तुति की । चन्द्रदेव ने उन्हें अमृत देते हुए कहा कि “तुमने देर कर दी विक्रम | अब तो सिर्फ अमृत ही महामंत्री की पुत्री को जिला सकता है । लो, इसे ले कर उस कन्या की दोनों नासिका में डाल देना” |

राजा विक्रमादित्य की परोपकार की भावना से प्रभावित होकर चन्द्रदेव खुद अमृत लेकर वहाँ उपस्थित हुए थे । उन्होंने जाते-जाते विक्रम को समझाया कि उनके सशरीर यज्ञ में उपस्थित होने से विश्व के अन्य भागों में अंधकार फैल जाएगा, इसलिए वे उनसे अपने यज्ञ में उपस्थित होने की प्रार्थना नहीं करें।

उन्होंने विक्रम को यज्ञ अच्छी तरह सम्पन्न कराने का आशीर्वाद दिया और अन्तर्ध्यान हो गए । विक्रमादित्य अत्यंत प्रसन्नता के साथ ख्वांग बूटी और अमृत लेकर उज्जैन आए । उन्होंने अमृत की बून्दें टपकाकर महामंत्री की बेटी को जीवित किया तथा ख्वांग बूटी जनहित के लिए रख लिया । चारों ओर उनकी जय-जयकार होने लगी ।

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