महाराजा विक्रमादित्य के उज्जैयनी राज्य की प्रजा को कोई कमी नहीं थीं । प्रजा का लगभग हर वर्ग संपन्न था | सभी लोग संतुष्ट तथा प्रसन्न रहते थे । कभी कोई समस्या लेकर यदि कोई दरबार आता था तो उसकी समस्या को तत्काल हल कर दिया जाता था । अपने पद का दुरुपयोग करने वाले या प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट देने वाले अधिकारी को दण्डित किया जाता था ।
इसलिए कहीं से भी किसी तरह की शिकायत नहीं सुनने को मिलती थी। राजा खुद भी वेश बदलकर समय-समय पर राज्य की स्थिति के बारे में जानने को निकलते थे । ऐसे ही एक रात जब वे वेश बदलकर अपने राज्य का भ्रमण कर रहे थे तो उन्हें एक झोंपड़े से एक पति-पत्नी की बातचीत का अंश सुनाई पड़ा ।
कोई स्त्री अपने पति को राजा से सब कुछ साफ़-साफ़ बताने को कह रही थी और उसका पति उसे कह रहा था कि अपने स्वार्थ के लिए अपने महान राजा के प्राण वह संकट में नहीं डाल सकता है । विक्रमादित्य को समझ में आ गया कि उन दोनों की समस्या से उनका कुछ सम्बन्ध है । अंततः उनसे रहा नहीं गया । अपनी प्रजा की हर समस्या को हल करना वे अपना कर्त्तव्य समझते थे ।
उन्होंने घर के द्वार को खटखटाया, तो एक ब्राह्मण दम्पत्ति ने दरवाजा खोला । विक्रम ने अपना परिचय देकर उनसे उनकी समस्या के बारे में पूछा तो वे थर-थर काँपने लगे । जब विक्रमादित्य ने निर्भय होकर उन्हें सब कुछ स्पष्ट बताने को कहा तो ब्राह्मण ने उन्हें सारी बात बता दी । ब्राह्मण दम्पत्ति ने उन्हें बताया कि विवाह के बारह साल बाद भी वे निस्संतान थे ।
इन बारह वर्षों में संतान की प्राप्ति के लिए उन्होंने काफ़ी यत्न किए । व्रत-उपवास, धर्म-कर्म, पूजा-पाठ हर तरह की चेष्टा की पर उससे कोई फायदा नहीं हुआ । एक रात ब्राह्मणी ने एक सपना देखा है । उस स्वप्न में एक देवी ने आकर उसे बताया कि उसके घर से तीस कोस की दूरी पर पूर्व दिशा में एक घना जंगल है जहाँ कुछ साधु सन्यासी भगवान् शिव की स्तुति कर रहे हैं ।
वे साधक सन्यासी शिव को प्रसन्न करने के लिए हवन कुण्ड में अपने अंग काटकर डाल रहे हैं । अगर उन्हीं की तरह राजा विक्रमादित्य भी उस हवन कुण्ड में अपने अंग काटकर फेंकें, तो शिव प्रसन्न होकर उनसे उनकी इच्छित चीज़ माँगने को कहेंगे । वे भगवान् शिव से ब्राह्मण दम्पत्ति के लिए संतान की माँग कर सकते हैं और उन्हें सन्तान प्राप्ति हो जाएगी ।
जब विक्रमादित्य ने यह सुना तो उन्होंने उन ब्राह्मण दम्पत्ति के बार-बार मना करने के बावज़ूद उन्हें आश्वासन दिया कि वे यह कार्य अवश्य करेंगे । रस्ते में उन्होंने बेतालों को स्मरण कर बुलाया तथा उस हवन स्थल तक पहुँचा देने को कहा । उस स्थान पर सचमुच साधु-सन्यासी हवन कर रहे थे तथा अपने अंगों को काटकर अग्नि-कुण्ड में फेंक रहे थे ।
विक्रम भी एक तरफ बैठ गए और उन्हीं की तरह अपने अंग काटकर अग्नि को अर्पित करने लगे । जब विक्रम सहित वे सारे जलकर राख हो गए तो एक भगवान् शिव का एक गण वहाँ पहुँचा तथा उसने सारे तपस्विओं को अमृत डालकर जीवित कर दिया, मगर भूल से विक्रम को मृत ही छोड़ दिया ।
सारे तपस्वी ज़िन्दा हुए तो उन्होंने राख हुए विक्रम को देखा । सभी तपस्विओं ने मिलकर शिव की स्तुति की तथा उनसे विक्रम को जीवित करने की प्रार्थना करने लगे । भगवान शिव ने तपस्विओं की प्रार्थना सुन ली तथा अमृत डालकर विक्रम को जीवित करने स्वयं आये ।
विक्रम ने जीवित होते ही शिव के सामने नतमस्तक होकर ब्राह्मण दम्पत्ति को संतान सुख देने के लिए प्रार्थना की । शिव उनकी परोपकार तथा त्याग की भावना से बहुत प्रसन्न हुए तथा उन्हें सारे जगत में यशस्वी होने का आशीर्वाद दे कर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली । कुछ दिनों बाद भगवान् शिव के आशीर्वाद से उस ब्राह्मण दम्पत्ति को संतान की प्राप्ति हुई ।