स्वर्ण सिंहासन की बीसवीं पुतली ज्ञानवती ने राजा भोज को बताया कि राजा विक्रमादित्य सच्चे ज्ञान के बहुत बड़े पारखी थे तथा ज्ञानियों का अत्यधिक सम्मान करते थे । उन्होंने अपने राज दरबार में चुन-चुन कर विद्वानों, पंडितों, लेखकों और कलाकारों को जगह दे रखी थी तथा समय-समय पर उनके अनुभव और ज्ञान का भरपूर सम्मान करते थे ।
एक दिन वे वन में किसी कारण से विचरण कर रहे थे तो उनके कानों में दो मनुष्यों की बातचीत का कुछ अंश सुनायी पड़ा । उनकी समझ में आ गया कि उनमें से एक ज्योतिषी है तथा उन्होंने चंदन का टीका लगाया और अन्तर्ध्यान हो गए । ज्योतिषी अपने मित्र से बोला “मित्र मैंने ज्योतिष का पूरा ज्ञान अर्जित कर लिया है और अब मैं तुम्हारे भूत, वर्तमान और भविष्य के बारे में सब कुछ स्पष्ट बता सकता हूँ” ।
दूसरा मनुष्य उसकी बातों में कोई रुचि न लेता हुआ बोला “तुम मेरे भूत और वर्तमान से पूरी तरह परिचित हो इसलिए सब कुछ बता सकते हो और अपने भविष्य के बारे में जानने की मेरी कोई आकान्छा नहीं है । अच्छा होता तुम अपना ज्ञान अपने तक ही सीमित रखते” । मगर ज्योतिषी रुकने वाला नहीं था ।
वह बोला “इन बिखरी हुई अस्थियों को देख रहे हो तुम” । मैं इन अस्थियों को देखते हुए बता सकता हूँ कि ये अस्थियाँ किस जानवर की हैं तथा जानवर के साथ क्या-क्या बीता” । लेकिन उसके मित्र ने फिर भी उसकी बातों में अपनी रुचि नहीं जताई ।
तभी ज्योतिषी की नज़र ज़मीन पर पड़ी पद चिन्हों पर गई । उसने कहा “ये पद चिन्ह किसी राजा के हैं और सत्यता की जाँच तुम खुद कर सकते हो । ज्योतिष के अनुसार राजा के पाँवों में ही प्राकृतिक रूप से कमल का चिन्ह होता है जो यहाँ स्पष्ट नज़र आ रहा है” ।
उसके मित्र ने सोचा कि चलो सत्यता की जाँच कर ही ली जाए, अन्यथा यह ज्योतिषी लगातार बोलता ही रहेगा । पद चिन्हों का अनुसरण करते-करते वे जंगल में अन्दर आते गए । जहाँ पद चिन्ह समाप्त होते थे वहाँ कुल्हाड़ी लिए एक लकड़हारा खड़ा था तथा कुल्हाड़ी से एक पेड़ काट रहा था । ज्योतिषी ने उसे अपने पाँव दिखाने को कहा ।
लकड़हारे ने अपने पाँव दिखाए तो उसका दिमाग चकरा गया । लकड़हारे के पाँवों पर प्राकृतिक रूप से कमल के चिन्ह बने हुए थे । निराश हुए ज्योतिषी ने जब उससे उसका असली परिचय पूछा तो वह लकड़हारा बोला कि उसका जन्म ही एक लकड़हारे के घर हुआ है तथा वह और उसकी कई पुश्तें, वर्षों से यही काम कर रहे है । जबकि ज्योतिषी सोच रहा था कि वह किसी राजवंश का होगा तथा किसी परिस्थितिवश लकड़हारे का काम कर रहा होगा।
किन्तु इतना सब कुछ देखने सुनने के बाद अब उसका विश्वास अपने ज्योतिष ज्ञान से उठने लगा था । उसके साथ वहीँ खड़ा उसका दोस्त उसका उपहास करने लगा तो वह चिढ़कर बोला “चलो चलकर राजा विक्रमादित्य के पाँव देखते हैं । अगर उनके पाँवों पर कमल चिन्ह नहीं हुआ तो मैं सचमुच ज्योतिष शास्त्र को झूठा समझूंगा और मान लूंगा कि मेरा ज्योतिष अध्ययन बेकार चला गया” ।
वे दोनों मनुष्य लकड़हारे को छोड़ उज्जैन नगरी को चल पड़े । काफी लम्बा रास्ता तय करने के बाद वे राजमहल पहुँचे । राजमहल पहुँच कर उन्होंने विक्रमादित्य से मिलने की इच्छा जताई । जब विक्रम सामने आए तो उन्होंने उनसे अपना पैर दिखाने की प्रार्थना की । विक्रम का पैर देखकर ज्योतिषी सन्न रह गया ।
उनके पाँव भी साधारण मनुष्यों के पाँव जैसे थे । उन पर वैसी ही आड़ी-तिरछी रेखाएँ थीं । कोई कमल चिन्ह नहीं था । ज्योतिषी को अपने ज्योतिष ज्ञान पर नही, बल्कि पूरे ज्योतिष शास्त्र पर संदेह होने लगा । वह राजा विक्रमादित्य से बोला “राजन ज्योतिष शास्त्र कहता है कि कमलचिन्ह जिसके पाँवों में उपस्थित हों वह व्यक्ति अवश्य राजा होगा परन्तु यह सरासर असत्य है ।
जिसके पाँवों पर मैनें ये चिन्ह देखे वह पुश्तैनी लकड़हारा है । दूर-दूर तक उसका सम्बन्ध किसी राजवंश से नहीं है । पेट भरने के लिए जी तोड़ परिश्रम करता है तथा हर सुख-सुविधा से वंचित है । दूसरी ओर आप जैसा चक्रवत्तीं सम्राट है जिसके भाग्य में भोग करने वाली हर चीज़ है । जिसकी कीर्त्त दूर-दूर तक फैली हुई है ।
आपको तो राजाओं का राजा कहा जाता है मगर आपके पाँवों में ऐसा कोई चिन्ह मौजूद नहीं है” । राजा को हँसी आ गई और उन्होंने हँसते हुए व्यंग से पूछा “तो क्या आपका विश्वास अपने ज्ञान तथा विद्या पर से उठ गया?” ज्योतिषी ने जवाब दिया “अवश्य । मुझे अब रत्ती भर भी विश्वास नहीं रहा ज्योतिष शास्त्र पर” । उसने राजा से नम्रतापूर्वक विदा लेते हुए अपने मित्र से चलने का इशारा किया । जब वह चलने को हुआ तो राजा ने उसे रुकने को कहा ।
दोनों ठिठक कर रुक गए । विक्रम ने दरबार में एक तेज़ धार चाकू मंगवाया तथा अपने पैरों के तलवों को खुरचने लगे । खुरचने पर दोनों पैरों के तलवों की एक चमड़ी उतर गई और अन्दर से कमल के चिन्ह स्पष्ट हो गए । ज्योतिषी को हतप्रभ देख विक्रम ने कहा “हे ज्योतिषी महाराज, आपके ज्ञान में कोई कमी नहीं थी ।
लेकिन आपका ज्ञान तब तक अधूरा रहेगा, जब तक आप अपने ज्ञान की डींगें हाँकेंगे और जब-तब उसकी जाँच करते रहेंगे । वन में विचरण करते हुए मैंने आप दोनों की बातें सुन लीं थीं और मैं ही जंगल में लकड़हारे के वेश में आपसे मिला था ।
मैंने आपकी विद्वता की जाँच के लिए अपने पाँवों पर खाल चढ़ा ली थी, ताकि कमल की आकृति ढँक जाए । आपने तब कमल की आकृति नहीं देखी तो आपका विश्वास ही अपनी विद्या से उठ गया । यह अच्छी बात नहीं हैं” । राजा विक्रमादित्य का आशय समझ कर उस ज्योतिषी को अपनी भूल का अहसास हुआ और अपने पाण्डित्य प्रदर्शन की आतुरता को लेकर उन्होंने विक्रमादित्य से क्षमा माँगी तथा उन्हें धन्यवाद् दिया |
राजा विक्रमादित्य उस ज्योतिषी के अपनी भूल स्वीकार करने से अत्यंत प्रसन्न हुए | उन्होंने उसे उपहार स्वरुप ढेर सारी स्वर्ण मुद्राएँ दे कर विदा किया |