जब देवताओं ने विक्रमादित्य को सपने में स्वर्ग आने का निमंत्रण भेजा और उन्होंने स्वर्ग तक की यात्रा की

जब देवताओं ने विक्रमादित्य को सपने स्वर्ग आने का निमंत्रण भेजा और उन्होंने स्वर्ग तक की यात्रा की स्वर्ण सिंहासन की अट्ठाईसवीं पुतली का नाम वैदेही था और उसने राजा भोज को आगे बढ़ने से रोक कर उनसे विक्रमादित्य की कथा इस प्रकार कही “एक बार राजा विक्रमादित्य अपने शयन कक्ष में गहरी निद्रा में लीन थे । नींद में उन्होंने एक सपना देखा । सपने में उन्होंने देखा कि एक स्वर्ण महल है जिसमें रत्न, माणिक इत्यादि जड़े हुए हैं ।

महल में बड़े-बड़े कक्ष हैं जिनमें सजावट की अलौकिक चीज़े हैं । महल के चारों ओर उद्यान हैं और उद्यान में हज़ारों तरह के सुन्दर-सुन्दर फूलों से लदे पौधे हैं । उन फूलों पर तरह-तरह की तितलियाँ मँडरा रही और भंवरों का गुंजन पूरे उद्यान में व्याप्त है । फूलों की सुगन्ध चारों ओर फैली हुई है और सारा दृश्य बड़ा ही मनोरम है ।

चारो तरफ़ स्वच्छ और शीतल पवन बह रही है और महल से कुछ ही दूरी पर एक योगी साधनारत है । योगी का चेहरा गौर से देखने पर विक्रम को वह अपना हमशकल मालूम पड़े । यह सब देखते-देखते ही विक्रम की आँखें खुल गईं । वे समझ गए कि उन्होंने कोई सुन्दर सपना देखा है ।

निद्रा से जागने के बाद भी सपने में दिखी हर चीज़ उन्हें स्पष्ट याद थी । उन्हें अपने सपने का अर्थ समझ में नहीं आ रहा था । सारा दृश्य अलौकिक अवश्य था, मगर इसे केवल मन की कल्पना नहीं माना जा सकता था । राजा ने बहुत सोचा पर उन्हें याद नहीं आया कि कभी अपने जीवन में उन्होंने ऐसा कोई महल देखा हो या इस तरह के किसी महल की कभी उन्होंने कल्पना की हो ।

उन्होंने अपने राज्य के पण्डितों, विद्वानों और ज्योतिषियों से अपने स्वप्न की चर्चा की और उन्हें इसकी व्याख्या करने को कहा । सारे विद्वान और पण्डित इसी नतीजे पर पहुँचे कि महाराजाधिराज विक्रमादित्य ने अपने सपने में स्वर्ग का दर्शन किया है तथा सपने का अलौकिक महल स्वर्ग के राजा इन्द्र का महल है । देवता शायद उन्हें वह महल दिखाकर उन्हें सशरीर स्वर्ग आने का निमन्त्रण दे चुके है ।

विक्रमादित्य यह सुनकर बड़े आश्चर्य में पड़ गए । उन्होंने कभी भी न सोचा था कि उन्हें देवताओं के स्वर्ग आने का इस तरह निमंत्रण मिलेगा । वे पण्डितों से पूछने लगे कि स्वर्ग जाने का कौन सा मार्ग होगा तथा स्वर्ग यात्रा के लिए किन-किन वस्तुओं की आवश्यकता हो सकती है ।

काफी मंथन के बाद सारे विद्वानों ने उन्हें वह दिशा बताई जिधर से स्वर्गरोहण हो सकता था तथा उन्हें बतलाया कि कोई पुण्यात्मा जो सतत् भगवान का स्मरण करता है तथा धर्म के पथ से विचलित नहीं होता है वही स्वर्ग जाने का अधिकारी होता है ।

राजा ने कहा कि राजपाट चलाने के लिए जानबूझकर नही तो भूल से ही अवश्य कोई धर्म विरुद्ध आचरण उनसे हुआ होगा । इसके अलावा कभी-कभी राज्य की समस्या में इतने उलझ जाते हैं कि उन्हें भगवान का स्मरण नहीं रहता है ।

राजा विक्रमादित्य की इन बातों पर सभी ने एक स्वर से कहा कि यदि वे इस योग्य नहीं होते तो उन्हें स्वर्ग का दर्शन ही नहीं हुआ होता । सबकी सलाह पर उन्होंने राजपुरोहित को अपने साथ लिया और स्वर्ग की यात्रा पर निकल पड़े । पण्डितों के कथन के अनुसार उन्हें यात्रा के दौरान दो पुण्यकर्म भी करने थे । यह यात्रा लम्बी और कठिन थी ।

विक्रमादित्य ने अपना राजसी वेश त्याग दिया था और वह अत्यन्त साधारण वस्त्रों में यात्रा कर रहे थे । रास्ते में वे दोनों, एक नगर में रात में विश्राम के लिए रुक गए । जहाँ वे दोनों रुके थे वहाँ उन्हें एक बूढी औरत रोती कलपती हुई मिली । उसके माथे पर चिन्ता की लकीरें उभरी हुई थीं तथा गला रोते-रोते र्रूँधा जा रहा था ।

विक्रम से उसकी दशा देखि न गयी | उन्होंने द्रवित होकर उससे उसकी चिन्ता का कारण पूछा तो उसने बताया कि उसका एकमात्र जवान बेटा सुबह ही जंगल गया, लेकिन अभी तक वापस नहीं लौटा है । विक्रम ने जानना चाहा कि वह जंगल किस प्रयोजन से गया है । बूढ़ी औरत ने बताया कि उसका बेटा रोज़ सुबह में जंगल से सूखी लकड़ियाँ लाने जाता है और लकड़ियाँ लाकर नगर में बेचता है । लकड़ियाँ बेचकर जो धन मिलता है उसी से उन दोनों का गुज़ारा होता है ।

विक्रम ने कहा कि अब तक वह नहीं आया हे तो आ जाएगा । बूढ़ी औरत ने कहा कि जंगल बहुत घना है और नरभक्षी जानवरों से भरा पड़ा है । उसे शंका है कि कहीं किसी हिंसक जानवर ने उसे अपना ग्रास न बना लिया हो ।

उसने यह भी बताया कि शाम से वह बहुत सारे लोगों से विनती कर चुकी है कि उसके बेटे का पता लगाए, लेकिन कोई भी जंगल जाने को तैयार नहीं हुआ । उसने अपनी विवशता दिखाई कि वह बूढ़ी और निर्बल है, इसलिए खुद जाकर पता नहीं कर सकती है । विक्रम ने उसे आश्वासन दिया कि वे जाकर उसे ढूँढेंगे ।

उन्होंने विश्राम का विचार त्याग दिया और तुरन्त जंगल की ओर चल पड़े । थोड़ी देर बाद उन्होंने जंगल में प्रवेश किया तो देखा कि जंगल सचमुच बहुत घना था । वे चौकन्ने होकर थोड़ी दूर और अन्दर गए तो उन्होंने देखा कि एक नौजवान कुल्हाड़ी लेकर पेड़ पर दुबका बैठा है और ठीक नीचे एक शेर घात लगाए बैठा है ।

विक्रम ने चतुराई से कोई उपाय ढूँढकर शेर को वहाँ से भगा दिया और उस युवक को लेकर नगर लौट आए । उस वृद्ध महिला ने अपने बेटे को देखकर विलाप करना छोड़ दिया और विक्रम को ढेरों आशीर्वाद दिए । इस तरह बुढिया को चिन्तामुक्त करके उन्होंने एक पुण्य का काम किया ।

रात भर विश्राम करने के बाद उन्होंने सुबह फिर से अपनी यात्रा शुरु कर दी । चलते-चलते वे समुद्र तट पर आए तो उन्होंने वहां एक स्त्री को रोते हुए देखा । स्त्री को रोते देख वे उसके पास आए तो देखा कि एक मालवाहक जहाज खड़ा है और कुछ लोग उस जहाज पर सामान लाद रहे हैं । उन्होंने उस स्त्री से उसके रोने का कारण पूछा तो उसने बताया कि बस तीन महीने पहले उसकी विवाह हुआ और वह गर्भवती है ।

उसका पति इसी जहाज पर कर्मचारी है तथा जहाज का माल लेकर दूर देश जा रहा है । विक्रम ने जब उसे कहा कि इसमे परेशानी की कोई बात नहीं है और कुछ ही समय बाद उसका पति लौट आएगा तो उसने अपनी चिन्ता का कारण कुछ और ही बताया । उसने बताया कि उसने कल सपने में देखा कि एक मालवाहक जहाज समुद्र के बीच में ही और भयानक तूफान में घिर जाता है ।

समुद्र में आया तूफ़ान इतना तेज है कि जहाज के टुकड़े-टुकड़े हो जाते है और उस पर सारे सवार, जहाज के साथ, समुद्र में डूब जाते हैं । वह सोच रही है कि अगर वह सपना सच निकला तो उसका क्या होगा । खुद तो किसी प्रकार जी भी लेगी मगर उसके होने वाले बच्चे की परवरिश कैसे होगी ।

विक्रम को उस पर तरस आया और उन्होंने समुद्र देवता द्वारा प्रदत्त शंख उसे देते हुए कहा “यह अपने पति को दे दो । जब भी तूफान या अन्य कोई दैवीय विपदा आए तो इसे फूँक देगा । उसके फूँक मारते ही सारी विपत्ति समाप्त हो जाएगी” ।

उस सुन्दर स्त्री को उन की कही हुई बात पर पर विश्वास नहीं हुआ और वह शंकालु दृष्टि से उन्हें देखने लगी । विक्रम ने उसके चेहरे का भाव पढ़कर शंख को अपने हाँथ में ले कर एक जोर की फूँक मारी । शंख से ध्वनि हुई और समुद्र का पानी कोसों दूर चला गया । उस पानी के साथ वह जहाज और उस पर सवार सारे कर्मचारी भी कोसों दूर चले गए ।

अब दूर-दूर तक सिर्फ समुद्र तट फैला था । वह स्त्री और कुछ अन्य लोग जो वहाँ थे हैरान रह गए । उनकी आँखें फटी रह गई । जब विक्रम ने दुबारा शंख फूँका तो समुद्र का पानी फिर से वहाँ हिलोरे मारने लगा । समुद्र के पानी के साथ वह जहाज भी कर्मचारियों सहित वापस आ गया । अब युवती को उस शंख की चमत्कारिक शक्ति के प्रति कोई शंका नहीं रही । उसने विक्रम से वह शंख लेकर अपनी कृतज्ञता जाहिर की ।

विक्रमादित्य उस स्त्री को शंख देकर अपनी स्वर्ग की यात्रा पर निकल पड़े । कुछ दूर चलने के बाद उन्हें एक स्थान पर रुकना पड़ा । आकाश में काली घटाएँ छा गईं थी । बिजलियाँ चमकने लगी थीं । बादल के गर्जन से समूचा वातावरण कांपता हुआ प्रतीत होता था । उन बिजलियों के चमक के बीच विक्रम को एक सफेद घोड़ा ज़मीन की ओर उतरता दिख । विक्रम ने ध्यान से उसकी ओर देखा तभी आकाशवाणी हुई-

“महाराजा विक्रमादित्य तुम्हारे जैसा पुण्यात्मा शायद ही कोई हो । तुमने रास्ते में दो पुण्य किए । एक बूढ़ी औरत को चिन्तामुक्त किया और एक स्त्री की सिर्फ शंका दूर करने के लिए वह अनमोल शंख दे दिया जो समुद्र देव ने तुम्हें तुम्हारी साधना से प्रसन्न होकर उपहार दिया था । तुम्हें लेने के लिए एक विमान भेजा जा रहा है जो तुम्हे इन्द्र के महल तक पहुँचा देगा” ।

विक्रमादित्य ने कहा “किन्तु मैं अकेला नहीं हूँ । मेरे साथ राजपुरोहित भी हैं । उनके लिए भी कोई व्यवस्था हो” । इतना सुनना था कि राजपुरोहित ने विक्रम से कहा “राजन्, मुझे क्षमा करें । सशरीर स्वर्ग जाने से मैं डरता हूँ । आपका सान्निध्य रहा तो मरने पर स्वर्ग जाऊँगा और अपने को धन्य समझूँगा” ।

वह घोड़े जैसा विमान उनके पास उतरा तो सवारी के लिए वह सभी आवश्यक वस्तुओं से सुसज्जित था । राजपुरोहित से विदा लेकर विक्रमादित्य उस पर बैठ गए । एड़ लगाते ही वह घोड़े जैसा विमान तेज़ी से हवा में उड़ने लगा । यह घुड़सवारी अप्राकृतिक थी, इसलिए काफी कठिन थी, मगर विक्रम पूरी दृढ़ता से उस पर बैठे रहे । हवा में कुछ देर उड़ने के बाद वह घोड़ा आकाश में दौड़ने लगा । दौड़ते-दौड़ते वह अलकापुरी आया ।

स्वर्ग में देवताओं की नगरी अलकापुरी पहुँचते ही विक्रम को वही सपनों वाला सोने का महल दिखायी पड़ा । जैसा उन्होंने सपने में देखा था ठीक वैसा ही सब कुछ था । चलते-चलते वे इन्द्रसभा पहुँचे । इन्द्रसभा में सारे देवता विराजमान थे । अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं । इन्द्र देव पत्नी के साथ अपने सिंहासन पर विराजमान थे ।

देवताओं की सभा में विक्रम को देखकर खलबली मच गई । वे सभी एक मानव के सशरीर स्वर्ग आने पर आश्चर्यचकित थे । विक्रम को देखकर इन्द्र खुद उनकी अगवानी करने आ गए और उन्हें अपने आसन पर बैठने को कहा । विक्रम ने यह कहते हुए मना कर दिया कि इस आसन के योग्य वे नहीं हैं । इन्द्र उनकी इस विनम्रता और सरलता से प्रसन्न हो गए ।

उन्होंने कहा कि विक्रम ने सपने में अवश्य एक योगी को इस महल में देखा होगा । इंद्र ने यह रहस्योद्घाटन किया कि उनका वह हमशक्ल और कोई नहीं बल्कि वे खुद हैं । उन्होंने इतना पुण्य अर्जित कर लिया है कि इन्द्र के महल में उन्हें स्थायी स्थान मिल चुका है । इन्द्र ने उन्हें एक मुकुट उपहार में दिया । इन्द्रलोक में कुछ दिन बिताकर मुकुट लेकर विक्रम अपने राज्य वापस आ गए।

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