भगवान श्री कृष्ण भगवत गीता में कहते हैं कि वे समस्त वृक्षों में पीपल के वृक्ष हैं और देवर्षियों में नारद हैं। इसके बाद पुनः श्रीमद भागवत में वे कहते हैं-वनस्पतियों में मैं पीपल और धन्यों में यव (जौ) हूं। वह कौन सा वन था और कौन सा वृक्ष था, जिसको गढ़ छीलकर यह द्युलोक और पृथ्वी बनायी गयी है? हे मनीषियों! अपने मन में उस तत्व का विचार करो, जिसने भुवनों को धारण कर रखा है और जो सबका अधिष्ठाता है।
इस प्रश्न का उत्तर तैत्तिरीय ब्राह्मण में इस प्रकार मिलता है| ब्रह्म ही वह वन है, ब्रह्म ही वह वृक्ष है, जिसको गढ़-छीलकर यह द्युलोक और इस पृथ्वी को बनाया गया है। हे मनीषियों! मैं अपने मन में विचार कर कहता हूं कि ब्रह्म ही लोकों को धारण करते हुए इसका अधिष्ठाता है।
ब्रह्म ही संसार का उपादान और निमित्त कारण है। अतः ब्रह्म को कभी वन तो कभी वृक्ष के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इस सम्बन्ध में अध्यात्म रामायण में इस प्रकार का वर्णन मिलता है कि ‘मनुष्य जो कुछ सदा देखता और स्मरण करता है, वह सब स्वप्न और मनोरथों के समान असत्य है। शरीर ही इस संसार वृक्ष का दृढ़ मूल है (अर्थात शरीर ही इस संसार को अनुभव करने का मूल कारण है)’।
विचित्र बात यह है कि संसार रुपी वृक्ष की जड़ ऊपर की ओर है और इसकी शाखाएं नीचे की ओर हैं। पृथ्वी में छिपी हुई इसकी जड़ अव्यक्तमूल प्रकृति है, जो अप्रत्यक्ष होने से सिर्फ अगम और अनुमानगम्य है। ब्रह्म ही शाश्वत है, जो ऊपर की ओर स्थित है। वृक्ष की प्रधान शाखा ब्रह्मा तथा अवान्तर शाखाएं देवता, पितर, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि क्रम से नीचे हैं।
व्यक्त एवं अव्यक्त रूप से यह वृक्ष अपने कारण रूप ब्रह्म में स्थित है तथा नित्य एवं सनातन है। इसका मूल कारण ही विशुद्ध तत्व ब्रह्म है। वही अमृत है तथा सभी लोक उसी में स्थित तथा उसी के आश्रित है, कोई भी इसका अतिक्रमण नहीं कर सकता है।
अविद्या के कारण मनुष्य सदा सुख-दुःख से युक्त होकर इस संसार में फंसा हुआ है। ज्ञानी पुरूष इस संसार वृक्ष को उच्छेद कर मुक्त हो जाते हैं। अज्ञानी मनुष्य इस वृक्ष का उच्छेद नहीं कर पाते हैं। ज्ञानरूपी खड्ग से ही संसार वृक्ष को छिन्न-भिन्न किया जा सकता है।
नरसिंहपुराण में इस वृक्ष का वर्णन इस प्रकार किया गया है ‘यह संसार वृक्ष अव्यक्त ब्रह्मरूपी मूल से प्रकट हुआ है। उन्हीं से प्रकट होकर हमारे सामने इस रूप में खड़ा है। बुद्धि, प्रज्ञा या परमचेतना (महतत्व) उसका तना है, इन्द्रियां ही उसके अंकुर और कोटर हैं। पंचमहाभूत उसकी बड़ी-बड़ी डालियां हैं। धर्म-अधर्म उसके फूल हैं। उस वृक्ष का फल सुख-दुःख है।
भगवान श्री कृष्ण गीता में इस संसार वृक्ष के संबंध में इस प्रकार का उपदेश देते हैं ‘एक शाश्वत अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष हे, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं और शाखाएं नीचे की ओर हैं, पत्तियां वैदिक स्तोत्र हैं, जो इस वृक्ष को जानता है, वह वेदों का ज्ञाता है। इस वृक्ष की शाखाएं ऊपर तथा नीचे की ओर फैली हुई हैं तथा प्रकृति के तीन गुणों द्वारा पोषित हैं। इसकी शाखाएं इन्द्रियों के विषय हैं। इस वृक्ष की जड़े नीचे की ओर भी जाती हैं, जो सकाम कर्मों से बंधी हुई हैं।
जैसे जलाशय के किनारे के वृक्ष का प्रतिबिम्ब जलाशय में दिखता है, वैस ही यह संसार वृक्ष पारलौकिक जगतरूपी वृक्ष का प्रतिबिम्ब मात्र है। जो मनुष्य इस संसार वृक्ष से निकलना चाहता है उसे ज्ञान के माध्यम से इस वृक्ष को जानना चाहिये। उसके बाद उस वृक्ष से संबंध-विच्छेद करना चाहिये। इस वृक्ष की शाखाएं चतुर्दिक फैली हुई है। जीवों की उच्च योनियां हैं, यथा-देव, गंधर्व आदि।
जिस प्रकार वृक्ष का पोषण जल से होता है उसी प्रकार इस वृक्ष का पोषण प्रकृति के तीन गुणों (सत्व, रज और तम)-से होता है। वृक्ष की टहिनयां इन्द्रिय विषय हैं और विभिन्न गुणों के विकास से हम विभिन्न प्रकार के इन्द्रिय विषयों का भोग करते हैं। इसकी सहायक जड़ें आसक्तियां तथा विरक्तियां हैं, जो विभिन्न प्रकार के कष्ट तथा इन्द्रिय भोग के विभिन्न रूप हैं।
वास्तविक जड़ (मूल) तो ब्रह्मलोक में है, किंतु अन्य जड़ें मर्त्यलोक में स्थित हैं। जब मनुष्य पुण्य कर्मों का फल भोग चुका होता है तो वह पुनः इस धरा पर आता है और फिर कर्म करता है। भगवान श्री कृष्ण के इस अश्वत्थ वृक्ष का स्वरूप अनुभव से परे है। इसका आदि भी समझ से परे है तथा आधार और अंत कहां है, यह भी नहीं समझा जा सकता है।
परंतु मनुष्य को चाहिये कि इसके दृढ़ मूल को विरक्ति के कुठार (कुदाल)-से काट गिराये। इसके उपरान्त ऐसे स्थान की खोज करनी चाहिये, जहां जाकर लौटना नहीं पड़े तथा भगवत्प्राप्ति हो जाय। इस प्रसंग में ‘असंख्य’ शब्द महत्वपूर्ण है। विषय भोग की आसक्ति सबसे प्रबल होती है।
इसलिये विवेक द्वारा वैराग्य को प्राप्त करना चाहिये। भगवान ही उस वृक्ष के आदिमूल हैं, जहां से सब कुछ निकला है। अतः भगवान का अनुग्रह प्राप्त करने के लिये केवल उनकी शरण ग्रहण करनी चाहिये। भगवान का कथन है ‘अहं सर्वस्य प्रभवः’ (गीता 10।8)। ‘मैं ही प्रत्येक वस्तु का उदगम हूं’। इस भौतिक अश्वत्थ वृक्ष के बंधन से छूटने के लिये भगवान की शरण ग्रहण करनी चाहिये।