जिसका अवतार होता है , वह क्या है ? अवतार से पूर्व क्या होता है ? अवतार का कारण क्या है ? इन सब बातों पर विचार करने के लिये हम वेदों की ऋचाओं पर दृष्टिपात करते हैं।
ऋग्वेद (10।129।1) में कहा गया है ‘अवतार या सृष्टि के पूर्व न असत था, न सत था, न रज था, इन से परे जो था, उसका कोई माप नहीं था। उस समय न मृत्यु थी, न अमृत (जीवन) था, न रात्रि थी, न दिन था तथा न कोई ठौर (प्रकेत) ही था।
कौन इस प्रकृति का भक्षण कर अपने पास रखे हुए है, इसको कहने या बताने वाला भी तो कोई नहीं था। यह सृष्टि कहां से आयी ? या किसने इसे उत्पन्न किया ? इसे बताने वाला भी कोई नहीं था।
जो इस सृष्टि का अध्यक्ष परम व्योम में बसता है, वह इसके विषय में जानता है अथवा नहीं भी जानता है , इसे कौन कहे ? सर्वप्रथम शून्य (कुछ नहीं ) था। महाकाश ही शून्य है।
विष्णु के सहस्रनामों में एक नाम शून्य था इसलिये कहना चाहिये कि पहले – पहल विष्णुत्व था। वेदवचन है – असत में सत विद्यमान है। सत में भूतकाल की घटनाएं विद्यमान होती हैं।
जो कुछ भविष्य में घटित होने वाला है, वह भूतकाल में हो चुका होता है। इसी को कहते हैं – भव्य मे भूत स्थित होता है। भूतकाल में भविष्य प्रतिष्ठित होता है अर्थात जो भूतकाल में घटा है, वह सब भविष्य में भी होगा। वेद के मंत्र से प्रकट है कि असत से सत होता है।
प्रकृति क्या है
अर्थात अव्यक्त मूल प्रकृति, जिसमें तीनों गुण साम्यावस्था में होते हैं, उससे व्यक्त प्रकृति – गुणों की विकृति होती है। यह सृष्टि का आरम्भ है या अव्यक्त का व्यक्त में अवतरण है। प्रकृति (असत ) का प्रथम अवतार महत्तत्व ( सत ) है।
सृष्टि का अभाव असत है अभाव से भाव की उत्पत्ति है। सृष्टि का भाव सत है। उपनिषद का उदघोष है ‘असद वा इदमग्र आसीत। ततो वै सदजायत। ’ ( तैत्तिरीयोपनिषद 2।7।1 ) सृष्टि के पूर्व यह असत तत्व ही था।
इसी से सत उत्पन्न हुआ। असत का अर्थ अंधकार भी है। असत से सत हुआ, इसका अर्थ है – अंधकार से प्रकाश की उत्पत्ति हुई। यह प्रकट सत्य है – रात्रि के गर्भ से प्रकाश ( सूर्योदय ) होता है। महाकाश में से एक साथ असंख्य ज्योतियां अनेक रूपों में प्रकट हुईं।
यह ज्योतिर्मय ब्रह्म का प्रथम अवतार है जिसे हिरण्यगर्भ कहते हैं। यह सूर्य ही हिरण्य गर्भ ( ब्रह्मा ) हैं जो असंख्य हिरण्य गर्भ हैं। ये ही भगवान हैं। ‘भा’ भाति – चमकता है तथा ‘गम’ गच्छति – चलता है, इसमें मतुप प्रत्यय लगाने पर भगवत शब्द बना है।
भगवतसु=भगवान – जो चलता हुआ चमकता है अथवा चमकता हुआ चलता है। भगवान में इच्छा हुई, उसने चाहा। बहुत प्रजावाला होऊँ, यह उसने तप (उद्योग) किया। उसने तप करके, यह सब विश्व रचा। यह जो कुछ भी (दृश्यमान) है। उसे रच कर उसमें ही अनुप्रविष्ट हुआ – अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट हुआ।
वास्तव में भगवान ने अपने आप को ही अनेक रूपों में प्रकट किया। यह सृष्टि भगवान से भिन्न नहीं है। पदार्थ अलग है, भगवान अलग हैं – ऐसा मानना अज्ञानता है; क्योंकि भगवान के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं हैं।
‘ब्रह्मैव इदं सर्वम् ’ ( नृसिंहोत्तर0 उप0 7 ) अदृश्य अवस्था में प्रकृति और पुरूष दोनों एक ही हैं, विष्णु रूप ही हैं। वामन पुराण के, गजेन्द्र मोक्ष में स्तुति की गयी है ‘ऊँ नमो मूलप्रकृतये अजिताय महात्मने।’ इससे प्रकृति – पुरूष का ऐक्य या ब्रह्मत्व सिद्ध होता है। यह सबसे पहले का अवतार हुआ।
‘कामः तदग्रे समवर्तत ’ ( ऋक0 10।129।4 ) भगवान विष्णु के सहस्रनामों से एक नाम है – काम। यह भगवान का अमूर्त रूप है जो की हृदयगत भाव है। ज्योतिर्मय ब्रह्म ने अपने को ग्रहों के रूप में व्यक्त किया।
पृथ्वी , चन्द्र , भौम , बुध , बृहस्पति , शुक्र , शनि – ये सूर्य के पार्थिव ( विकृत ) रूप हैं। इस परिवार को सौर मण्डल कहते हैं। ऐसे असंख्य सौर मण्डल हैं और प्रत्येक में एक – एक पृथ्वी है। पृथ्वी पति परमात्मा सूर्य है, जो पृथ्वी पर नाना जीवों के रूप में प्रकट ( अवतरित ) होता रहता है।
भगवान के 24 अवतार क्या हैं
प्रकृति के विकार या विकास का नाम भी अवतार है। अवतार का सरल एवं सुस्पष्ट अर्थ है, आगमन , प्राकट्य , इन्द्रियगम्य होना। अगुण अकिंचन पुरूष ने अपने को प्रधान बनाया। प्रधान से अहंकार उत्पन्न हुआ।
अहंकार के सात्विक रूप से मन, राजस रूप से पांच ज्ञानेन्द्रियां एवं पांच कर्मेन्द्रियां, तामस रूप से पांच ज्ञानेन्द्रियों के विषय – शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का प्राकट्य हुआ। पांच विषय पांच तन्मात्रा कहलाते हैं। इन तन्मात्राओं से पांच महाभूत उत्पन्न हुए। शब्द से आकाश, स्पर्श से वायु, रूप से तेज, रस से जल, गंध से पृथ्वी का उदभव हुआ।
ये 24 प्रकृतियां ( 1 प्रधान, 1 अहंकार, 1 मन, 1 महतत्व, 5 ज्ञानेन्द्रियां, 5 कर्मेेन्द्रियां, 5 तन्मात्रा, 5 भूत) ही परमात्मा के 24 अवतार हैं। यह भगवान का प्राकृतिक अवतार है। ये अवतार नित्य और सूक्ष्म हैं। अवतारक पुरूष को हमारा प्रणाम।
चौदह प्रकार की प्राणिक सृष्टि है। इसे 14 भुवन के नाम से जाना जाता है। ‘चतुर्दशविधो भूतसर्गः’ ( सांख्यसूत्र 18 )। चौदह प्रकार की प्राणिक सृष्टि में आठ प्रकार की देवी सृष्टि है, पांच प्रकार की तिर्यक योनियों की सृष्टि है तथा एक प्रकार ही मानुष सृष्टि है। संक्षेप में यही भौतिक सृष्टि है। ऐसा उपनिषदों का कथन है।
ब्रह्मा, प्रजापत्य, ऐन्द्र, दैव, गान्धर्व , पित्र्य, विदेह और प्रकृतिलय – ये आठ दैव-सर्ग हैं। यह सत्व प्रधान सृष्टि है और सबसे ऊपर है। नौवां मानुष -सर्ग है, जो रजोगुण प्रधान है। इसकी मध्य स्थिति है। मनुष्य से नीचे पशु, पक्षी, सरीसृप, कीट तथा स्थावर (वृक्षादि) – यह पांच प्रकार का तिर्यक-सर्ग है।
मनुष्य – सर्ग एवं तिर्यक – सर्ग तो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हैं, किंतु दैव – सर्ग सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियगोचर नहीं है। इसे देखने के लिये दिव्य नेत्र चाहिये। जितनी भी योनियां है, वे भगवान की हैं। उनमें भगवान गर्भ स्थापन (जीव रचना का कार्य) करते हैं, जिससे प्राणी उत्पन्न होते हैं।
शास्त्र के अनुसार योनियां 84 लाख हैं। बृहद विष्णु पुराण के मत से 9 लाख जलज, 20 लाख स्थावर, 10 लाख पक्षी, 30 लाख पशु, 11 लाख कृमिकीट तथा 4 लाख मनुष्य हैं। ध्यान देने वाली बात ये है कि ये योनियों के प्रकार, भेद या जातियां हैं।
कर्मविपाक के अनुसार 30 लाख प्रकार के स्थावर, 9 लाख प्रकार के जलज, 10 लाख प्रकार के कृमि, 11 लाख प्रकार के पक्षी, 20 लाख प्रकार के पशु तथा 4 लाख प्रकार के मनुष्य हैं। इन चौरासी लाख प्रकार की योनियों के माध्यम से भगवान ही आविर्भूत हो रहे हैं। एक साथ् इतने अवतार धारण करने वाले ईश को हमारा प्रणाम।
84 लाख योनियों का संक्षेपीकरण किया जाय तो 8+4=12=>1+2=3 योनियां हैं – तमोगुणी राक्षस, रजोगुणी मनुष्य तथा सात्विक देवता।ज्योतिष शास्त्र की इन तीन योनियों में परमात्मा सर्वत्र वर्त रहा है – त्रियोनये परमात्मने नमः।
भगवान का लिंग अवतार लोक मान्य है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों के रूप में कौन इनकी अर्चना नहीं करता ? 12 राशियां – मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ तथा मीन ही 12 ज्योतिर्लिंग हैं। पूर्वी क्षितिज पर लग्न के रूप में दिखायी पड़ता है। ये 12 ज्योतिर्लिंगों का प्रभाव मास के रूप में दिखायी पड़ता है।
ये 12 ज्योतिर्लिंग विष्णु के स्वरूप हैं इसीलिए इनका कभी नाश नहीं होता। वचन है – परमात्मा अपनी प्रकृति ( माया ) का आश्रय लेकर नाना रूपों (अवतारों ) की सृष्टि करता है। श्रुति वाक्य है – ‘इन्द्रो मायाभिः पुरूरूप ईयते’ ( बृह0 उप0 2।5।19)|
इसी बात को गीता में इस प्रकार से कहा गया है ‘भगवान की अध्यक्षता में प्रकृति स्वयं चराचर विश्व का सृजन करती है अर्थात अवतारों की कारक यह प्रकृति है। प्रकृति का आश्रय लेकर परमात्मा शरीर धारण करता है और नाना योनियों के रूप में आविर्भूत होता है।
भगवान की शाश्वत योनि आकाश ( शून्य ) है। भगवान का स्वरूप आकाश है। भगवान के माता – पिता, बन्धु, सखा, संतति – सब कुछ यह आकाश है। भगवान इस आकाश में से ही अपने आप को प्रकट करते रहते हैं।
आकाश गंगाएं, नीहारिकाएं, नक्षत्र मण्डल, धमूकेतु, ग्रहगण आदि भगवान के रूप हैं। इस प्रकार भगवान अगुण से सगुण, अरूप से सरूप तथा शून्य से अशून्य बनते हैं। यह भगवान की लीला ( माया ) है। इन माया को हमारा नमस्कार।
परमात्मा समस्त विरोधाभासों का आश्रय है, अस्ति – नास्तिमय है, अग्रीषोमात्मक है, अर्धनारीश्वर है। इसलिये वह पूर्ण है। पूर्ण परमात्मा के समस्त अवतार पूर्ण हैं। अजायमान ईश्वर नाना प्रकार से जायमान होता है – अपने अप्रकट रूप् को प्रकट करता है – अवतार लेता है।
मंत्र है, ‘अजायमानो बहुधा वि जायते’ ( यजु0 31।19 )। जो ईश भीतर है, वही बाहर है, वही भीतर है। मंत्र है, ‘यदन्तरं तद बाह्यं यद बाह्यं तदन्तरम।’ ( अथर्व0 2।30।4 ) परोक्ष परमात्मा ही प्रत्यक्ष परमेश है। जीव को समाधि मे इसकी अनुभूति होती है। ‘योऽसावादित्ये पुरूषः सोऽसावहम।’ ( यजु0 10।17 ) सूर्य मण्डल में जो ईश्वर विद्यमान है, वही मैं हूँ।
भगवान अवतार लेने के लिये हर क्षण सन्नद्ध रहते हैं। भगवान का एक अवतार है – यज्ञरूप। प्रज्वलित अग्नि में आहुतियों को स्वाहा युक्त मंत्रों में डालना यज्ञ है – ‘यज्ञो वै स्वाहाकारः’ ( शतपथ ब्राह्मण 3।1।3।27 )। काष्ठ को मथ कर उसमें से अग्नि को प्रज्वलित करना ही भगवान को प्रकट करना है।
प्रज्वलित अग्नि साक्षात परमदेव है। पार्थिव अग्नि, पार्थिव भगवान है। दिव्य अग्नि का अवतार है। दिव्य अग्नि धूम रहित है, पार्थिव अग्नि सधूम होती है। जो अंतर निर्गुण एवं सगुण ईश्वर या अशरीरी एवं शरीरधारी भगवान में है, वही अंतर दिव्याग्नि ( सूर्य ) एवं पार्थिवाग्नि ( यज्ञ ) में है।
अग्नि पवित्र करने वाला होने से पावक है, पवित्र होने से शुचि है, प्रकाश से युक्त होने के कारण शुक्र है, पाप नाशक होने से शोचि है, अविनाशी होने से अमत्र्य है। यह अग्नि राक्षसों से हमारी रक्षा करता है। इसलिये यह स्तुत्य, ईश है। यह अग्निरूपी भगवान की कथा है। इससे दुर्बुद्धि का नाश होता है, सदबुद्धि की प्राप्ति होती है, जीवन चमकता है, अभय होता है, आनंद का आगम होता है – जन्म सार्थक होता है।