गुरु द्रोणाचार्य के मारे जाने से दुर्योधन आदि राजा बहुत घबरा गये, शोक से उनका उत्साह नष्ट हो गया था । वे द्रोण के लिये अत्यन्त शोक करते हुए द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा के पास आकर बैठ गए और कुछ देर तक शास्त्रीय युक्तियों से उसे आश्वासन देते रहे, फिर प्रदोष के समय अपने-अपने शिविर में चले गये । कर्ण, दुःशासन और शकुनि ने दुर्योधन के ही शिविर में वह रात व्यतीत की ।
सोते समय वे चारों ही पाण्डवों को दिये हुए क्लेशों पर विचार करते रहे । पाण्डवों को जूए वाले प्रकरण में जो कष्ट भोगने पड़े थे तथा द्रौपदी को जो भरी सभा में घसीट कर लाया गया था-वे सब बातें याद करके उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हो रहा था, यह सब याद करके उनका चित्त बहुत अशान्त हो रहा था । इसके बाद जब सबेरा हुआ तो सब ने शास्त्रीय विधि के अनुसार अपना-अपना नित्यकर्म पूरा किया, फिर भाग्य पर भरोसा करके धैर्यधारण पूर्वक उन्होंने सेना को तैयार होने की आज्ञा दी और युद्धके लिये निकल पड़े ।
दुर्योधन ने कर्ण को सेनापति के पद पर अभिषिक्त किया और दही, घी, अक्षत, स्वर्ण-मुद्रा, गौ, सोना तथा बहुमूल्य वस्त्रो द्वारा उत्तम ब्राह्मणों की पूजा करके उनके आशीर्वाद प्राप्त किये । फिर सूत, मागध तथा वंदीजनों ने जय-जयकार किया । इसी प्रकार पाण्डव भी प्रातःकृत्य समाप्त कर युद्ध का निश्चय करके शिविर से बाहर निकले ।
धृतराष्ट्र ने पूछा-संजय ! अब तुम मुझे यह बताओ कि कर्ण ने सेनापति होने के बाद कौन-सा कार्य किया । संजय ने कहा-महाराज ! कर्ण की सम्मति जानकर दुर्योधन ने रणभेरी बजवायी और सेना को तैयार हो जाने की आज्ञा दी । उस समय बड़े-बड़े गजराजों, रथों, कवच बाँधने वाले मनुष्यों तथा घोड़ों का कोलाहल बढ़ने लगा । कितने ही योद्धा उतावले हो-हो कर एक-दूसरे को पुकारने लगे ।
इन सबकी मिली हुई ऊँची आवाज से आसमान गूंज उठा । इसी समय सेनापति कर्ण एक दमकते हुए रथ पर बैठा दिखायी पड़ा । उसके रथ पर श्वेत पताका फहरा रही थी । घोड़े भी सफेद थे । ध्वजा में सर्प का चिह्न बना हुआ था | रथ के भीतर सैकड़ों तरकस, गदा, कवच, शतघ्नी, किंकिणी, शक्ति, शूल, तोमर और धनुष रखे हुए थे । कर्ण ने शंख बजाया और उसकी आवाज सुनते ही योद्धा उतावले होकर दौड़े ।
इस प्रकार कौरवों की बहुत बड़ी सेना को उसने शिविर से बाहर निकाला तथा पाण्डवों को जीतने की इच्छा से वहीँ पर मगर के आकार का एक व्यूह बनाकर रणभूमि की ओर कूच किया । उस मकरव्यूह के मुख के स्थान में स्वयं कर्ण उपस्थित हुआ । दोनों नेत्रों की जगह शूरवीर शकुनि और उलूक खड़े हुए । मस्तक-भाग में अश्वत्थामा तथा कण्ठ देश में दुर्योधन के सभी भाई थे ।
व्यूह के मध्यभाग में बहुत बड़ी सेना से घिरा हुआ राजा दुर्योधन था । बायें चरण के स्थान में कृतवर्मा खड़ा हुआ, उसके साथ रणोन्मत्त ग्वालों की नारायणी सेना भी थी । दाहिने चरण की जगह कृपाचार्य थे, उनके साथ महान् धनुर्धर त्रिगर्तों और दाक्षिणात्यों की सेना थी । वाम चरण के पिछले भाग में मद्रदेशीय योद्धाओं को साथ लेकर राजा शल्य खड़े हुए । दाहिने चरण के पीछे राजा सुषेण था, उसके साथ एक हजार रथियों और तीन सौ हाथियों की सेना थी ।
व्यूह की पूँछ के स्थान में अपनी बहुत बड़ी सेना से घिरे हुए दोनों भाई चित्र और चित्रसेन थे । इस प्रकार व्यूह बनाकर कर्ण ने जब रणांगण की ओर कूच किया तो धर्मराज युधिष्ठिर ने अर्जुन को देखकर कहा “पार्थ ! देखो तो सही, कर्ण ने कौरव-सेना की किस तरह मोर्चेबंदी की है और महारथी वीर कैसे इसकी रक्षा कर रहे हैं ।
धृतराष्ट्र की महासेना में जितने बड़े-बड़े वीर थे, वे सब प्रायः मारे जा चुके हैं, अब थोड़े ही रह गये हैं । अत: मैं तो इसे तिनके के समान समझता हूँ । इस सेना में सूतपुत्र कर्ण ही एक महान् धनुर्धर वीर है, जिसे देवता भी नहीं जीत सकते । महाबाहो ! अब उस कर्ण को मार डालने से ही तुम्हारी विजय होगी और मेरे हृदय का काँटा भी निकल जायगा । इसलिये तुम इच्छानुसार अपनी सेना की व्यूहरचना करो ।”
बड़े भाई की बात सुनकर अर्जुन ने शत्रुओं के मुकाबले में अपनी सेना का अर्धचन्द्राकार व्यूह बनाया । उसके वाम भाग में भीमसेन, दाहिने भाग में धृष्टद्युम्न तथा मध्य में राजा युधिष्ठिर और अर्जुन खड़े हुए । नकुल और सहदेव-ये दोनों युधिष्ठिरके पीछे थे । पंचालदेशीय युधामन्यु और उत्तमौजा अर्जुन के पहियों की रक्षा करने लगे । शेष वीरों में से जिन्हें व्यूहमें जहाँ स्थान मिला, वे वहीं खूब उत्साह के साथ डट गये ।
इस प्रकार, कौरव तथा पाण्डवों ने व्यूह बनाकर फिर युद्ध में मन लगाया । दोनों दलों में ऊँची आवाज करने वाले बाजे बज उठे । विजयाभिलाषी शूरवीरों का सिंहनाद सुनायी देने लगा । महान् धनुर्धर कर्ण को व्यूह के मुहाने पर कवच धारण किये उपस्थित देख कौरव-योद्धा द्रोणाचार्य के वियोग का दुःख भूल गये । इसके बाद कर्ण तथा अर्जुन आमने-सामने आकर खड़े हुए और दोनों एक-दूसरे को देखते ही क्रोध में भर गये ।
उनके सैनिक भी उछलते-कूदते हुए परस्पर जा भिड़े । फिर तो भयानक युद्ध छिड़ गया, हाथी, घोड़े और रथों के सवार तथा पैदल योद्धा एक-दूसरे पर प्रहार करने लगे । वे अर्धचन्द्र, भल्ल, क्षुरप्र, तलवार, पट्टिश और फरसों से अपने प्रतिपक्षियों के मस्तक काटने लगे । मरे हुए वीर, हाथी, घोड़ों तथा रथों से गिर-गिरकर धराशायी होने लगे ।
सैनिकों के हाथ, पैर और हथियार सभी चलने लगे, उनके द्वारा वहाँ महान् संहार आरम्भ हो गया । इस प्रकार जब सेना का विध्वंस हो रहा था, उसी समय भीमसेन आदि पाण्डव शत्रु पक्ष पर चढ़ आये । भीमसेन हाथी पर बैठे हुए थे । उन्हें दूर से ही आते देख राजा क्षेमधूर्ति ने, जो स्वयं भी हाथी पर सवार था, युद्ध के लिये ललकारा और उन पर धावा कर दिया । पहले उन दोनों के हाथियों में ही युद्ध आरम्भ हुआ ।
जब हाथी लड़ते लड़ते आपस में सट गये तो वे दोनों वीर तोमरों से एक-दूसरे पर जोरदार प्रहार करने लगे । फिर धनुष उठाकर दोनों ने दोनों को बींधना आरम्भ किया । थोड़ी ही देर में उन्होंने एक-दूसरे का धनुष काट कर सिंहनाद किया और परस्पर शक्ति एवं तोमरों की झड़ी लगा दी । इसी बीच में क्षेमधूर्ति ने बड़े वेग से एक तोमर का प्रहार कर भीमसेन की छाती छेद डाली, फिर गरजते हुए उसने छ: तोमर और मारे ।
भीमसेन ने भी धनुष उठाया और बाणों की वर्षा से शत्रु के हाथी को बहुत पीड़ित किया, इससे वह भाग चला, रोकने से भी नहीं रुका । क्षेमधूर्ति ने किसी तरह हाथी को काबू में किया और क्रोध में भरकर भीमसेन को बाणों से बींध डाला । साथ ही उनके हाथी के भी मर्मस्थानों में चोट पहुँचायी । हाथी उस आघात को न सह सका । वह प्राण त्याग कर पृथ्वी पर गिर पड़ा । भीमसेन उसके गिरने से पहले ही कूदकर जमीन पर आ गये और अपनी गदा के प्रहार से शत्रु के हाथी को भी उन्होंने मार गिराया ।
क्षेमधूर्ति भी हाथी से कूदकर नीचे आ गया और तलवार उठाकर भीमसेन की ओर दौड़ा । यह देख भीम ने उस पर गदा से चोट की । उसके आघात से क्षेमधूर्ति के प्राण-पखेरू उड़ गये और वह तलवार के साथ ही हाथी के पास गिर पड़ा । महाराज ! क्षेमधूर्ति कुलूत देश का यशस्वी राजा था, उसे मारा गया देख उसकी सेना व्यथित होकर रणभूमि से भागने लगी ।
उधर कर्ण और अर्जुन का भीषण संग्राम होने वाला था, जिस पर पूरे युद्ध का भविष्य टिका था |