महाभारत का युद्ध अपने चरम पर था, उसी समय दुर्योधन ने कर्ण के पास जाकर कहा “राधानन्दन ! यह युद्ध स्वर्ग का खुला हुआ दरवाजा है, जो हमें स्वतः प्राप्त हो गया है । सौभाग्यशाली क्षत्रियों को ही ऐसा युद्ध मिला करता है । यदि तुम लोगों ने युद्ध में पाण्डवों को मारा तो धन-धान्य से सम्पन्न पृथ्वी प्राप्त करोगे और यदि शत्रुओं के हाथ से तुम्ही मारे गये तो वीर पुरुषों को प्राप्त होने योग्य पुण्य लोक पाओगे” ।
दुर्योधन की बात सुनकर श्रेष्ठ क्षत्रियों ने हर्षध्वनि की । फिर सब ओर बाजे बजने लगे । उस समय अश्वत्थामा ने वहाँ पहुँचकर आपके योद्धाओं को हर्षित करते हुए कहा “आप सब लोगों ने तो देखा ही था कि मेरे पिता अस्त्र डालकर योग में स्थित हो गये थे, तो भी उन्हें धृष्टद्युम्न ने मारा । इसके कारण तो मुझे अमर्ष है ही, मित्र दुर्योधन का हित भी करना है ।
इसलिये क्षत्रियो ! मैं आपके समक्ष यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि धृष्टद्युम्न को मारे बिना अपना कवच नहीं उतारूँगा । यदि मेरी प्रतिज्ञा झूठी हो तो मुझे स्वर्ग न मिले । लड़ाई में अर्जुन या भीमसेन जो भी मेरा सामना करने आयेंगे, उन सबको कुचल डालूँगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है” । अश्वत्थामा के ऐसा कहने पर कौरवों की सेना ने एक साथ होकर पाण्डवों पर धावा किया ।
साथ ही पाण्डवों का भी उस पर आक्रमण हुआ । दोनों दलों में घोर संग्राम होने लगा । मनुष्यों का भीषण संहार मचा | प्रलय काल का दृश्य उपस्थित हो गया । उस समय पाण्डवों के पक्ष में युधिष्ठिर की और हमारे दल में कर्ण की प्रधानता थी । खूब जोर से मार-काट हुई । खून की धारा बह चली । संशप्तकों में से अब थोड़े ही बच गये थे ।
इसलिये धृष्टद्युम्न तथा पाण्डव-महारथियों ने सब राजाओं को साथ लेकर कर्ण पर ही धावा किया । किंतु कर्ण ने अकेले ही उन सबका बढ़ाव रोक दिया । धृष्टद्युम्न ने कर्ण को एक बाण मारकर कहा “अरे ! खड़ा रह, खड़ा रह, कहाँ भागा जाता है” ? यह सुनकर कर्ण क्रोध में भर गया और धृष्टद्युम्न का धनुष काटकर उसने उसको नौ बाण मारे । धृष्टद्युम्न का कवच कट गया ।
इसके बाद उसने भी दूसरा धनुष लिया और कर्ण को सत्तर बाणों से घायल किया । अब तो कर्ण को बड़ा कोप हुआ, उसने धृष्टद्युम्न पर मृत्युदण्ड के समान भयंकर बाण का प्रहार किया । उस बाण को धृष्टद्युम्नकी ओर आते देख सात्यकि ने अपने हाथ की फुर्ती दिखाते हुए सहसा उसके सात टुकड़े कर डाले । यह देख कर्ण ने बाणों की वर्षा करके सात्यकि को चारों ओर से घेर लिया और सात नाराचों से उसे बींध डाला ।
सात्यकि ने भी कर्ण का यही हाल किया । फिर उन दोनों में विचित्र प्रकार से घोर युद्ध हुआ, जिसे देखने और सुनने से भी भय होता था । इसी बीच में धृष्टद्युम्न पर अश्वत्थामा ने चढ़ाई की । उसने आते ही क्रोध में भरकर कहा “ओ ब्रह्महत्यारे ! आज मैं तुझे मौत के मुँह में भेज दूंगा । अगर अर्जुन ने तेरी रक्षा नहीं की, यदि तू लड़ाई में डटा रह गया और सामना छोड़कर भागा नहीं, तो आज तुझे तेरे पाप का दण्ड अवश्य मिलेगा, तू कुशल से नहीं रह सकेगा” ।
उसके ऐसा कहने पर धृष्टद्युम्न बोला “तेरी बात का उत्तर मेरी वह तलवार ही देगी, जो तेरे पिता को संग्राम में मुँहतोड़ जवाब दे चुकी है” । यों कहकर सेनापति धृष्टद्युम्न ने अमर्ष में भरकर अश्वत्थामा को एक तीखे बाण से बींध डाला । इससे अश्वत्थामा को बड़ा क्रोध हुआ । उसने इतने बाणों की वर्षा की जिनसे धृष्टद्युम्न के चारों ओर की दिशाएँ ढक गयीं ।
इसी प्रकार धृष्टद्युम्न ने भी कर्ण के देखते-देखते द्रोण कुमार को अपने सायकों से आच्छादित कर दिया तथा उसका धनुष भी काट डाला । अश्वत्थामा ने वह धनुष फेंक दिया और दूसरा धनुष-बाण हाथ में लेकर उससे धृष्टद्युम्न के धनुष, शक्ति, गदा, ध्वजा, घोड़े, सारथि तथा रथ को पलक मारते-मारते नष्ट कर दिया ।
तब धृष्टद्युम्न ने ढाल और तलवार हाथ में ली, किंतु महारथी अश्वत्थामा ने भल्लों से मारकर उनके भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले, साथ ही उसने अनेकों बाणों से धृष्टद्युम्न को बहुत घायल कर दिया । यह सब करने पर भी जब वह धृष्टद्युम्न का नाश न कर सका तो धनुष फेंककर धृष्टद्युम्न को पकड़ने के लिये दौड़ा । .
इसी बीच में श्रीकृष्ण की दृष्टि उधर गयी, उन्होंने अर्जुन से कहा “पार्थ ! वह देखो, अश्वत्थामा धृष्टद्युम्न को मारने के लिये बड़ा भारी उद्योग कर रहा है । इसमें संदेह नहीं कि वह उसे मार सकता है । धृष्टद्युम्न अब काल के समान अश्वत्थामा का ग्रास बना ही चाहता है, इसलिये तुम इसे शीघ्र छुड़ाओ” । ऐसा कहकर महाप्रतापी भगवान् श्रीकृष्ण ने, जहाँ अश्वत्थामा था, उधर ही अपने घोड़े बढ़ाये ।
श्रीकृष्ण और अर्जुन को आते देख उसने धृष्टद्युम्न को मारने का विशेष उद्योग किया । अर्जुन ने जब देखा कि अश्वत्थामा द्रुपद कुमार को घसीट रहा है, तो उसके ऊपर बहुत-से बाण मारे । गाण्डीव से छूटे हुए वे बाण, जैसे साँप अपनी बाँबी में घुसते हैं, उसी प्रकार अश्वत्थामा के शरीर में धंस गये । उनसे पीड़ित होकर द्रोण-पुत्र ने धृष्टद्युम्न को तो छोड़ दिया और अपने रथ में बैठकर धनुष हाथ में ले अर्जुन को बींधना आरम्भ कर दिया ।
इतने में सहदेव ने धृष्टद्युम्न को अपने रथ पर बिठाकर वहाँ से अन्यत्र हटा दिया । अर्जुन ने भी द्रोण-कुमार को बाणों से बींधना आरम्भ किया । इससे अश्वत्थामा का क्रोध बहुत बढ़ गया । उसने अर्जुन की भुजाओं तथा छाती में भी बाण मारे । तब अर्जुन ने अश्वत्थामा के ऊपर द्वितीय कालदण्ड के समान एक नाराच चलाया । वह उसके कंधे पर लगा । लगते ही अश्वत्थामा विह्वल होकर रथ की बैठक में बैठ गया ।
उस समय उसे बड़ी वेदना हुई । उसकी यह अवस्था देख सारथि बड़ी फुर्ती के साथ उसे रणांगण से बाहर ले गया । महाराज ! इस प्रकार धृष्टद्युम्न को संकट से मुक्त और अश्वत्थामा को पीड़ित देख पांचाल वीरों ने बड़े जोर से गर्जना की । हजारों दिव्य बाजे बज उठे। सब लोग सिंहनाद करने लगे । तदनन्तर, अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से बोले “अब संशप्तकों की ओर चलिये, उनका संहार करना इस समय मेरे लिये प्रधान काम है” । उनकी बात सुनकर भगवान् हवा से बातें करने वाले अपने रथ के द्वारा संशप्तकों की ओर चल दिये ।