वैशम्पायन जी कहते हैं, जनमेजय! जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी के क्षत्रियों का संहार किया था। यह काम कर के वे महेन्द्र पर्वत पर चले गये और वहाँ तपस्या करने लगे। क्षत्रियों का संहार हो जाने पर क्षत्रियों की वंश रक्षा तपस्वी, त्यागी, संयमी ब्राह्मणों के द्वारा हुई। कुछ ही दिनों बाद फिर क्षत्रिय राज्य की पुनः स्थापना हो गयी। क्षत्रियों के धर्म पूर्वक प्रजापालन करने से ब्राह्मण आदि वर्णाश्रमधर्मी सुखी हो गये।
क्षत्रिय राजा धर्म पूर्वक प्रजा का पालन करते थे
राजा लोग काम, क्रोध और उनके कारण होने वाले दोषों को छोड़कर धर्मानुसार शासन और पालन करने लगे। समय पर वर्षा होती। बचपन में कोई भी न मरता और युवावस्था के पहले लोगों को स्त्री-संसर्ग का ज्ञान भी न होता। क्षत्रिय बड़े-बड़े यज्ञ कर के ब्राह्मणों को खुब दक्षिणा देते और ब्राह्मण सांगोपांग त्रिकाण्ड वेद का अध्ययन करते। उस समय कोई धन लेकर शास्त्रों का अध्यापन नहीं करता था। वैश्य अपने बैलों की पूरी देखभाल करते थे।
स्वयं उनके कंधे पर जुआ नहीं रखते थे तथा कमजोर हो जाने पर भी घास, चारा आदि से उनका पालन करते रहते थे। बछड़े जब तक और कुछ नहीं खाने लगते थे, तब तक गौएँ नहीं दुही जाती थीं। व्यापारी तौलने-जोखने में बेईमानी नहीं करते थे। सभी लोग अपने वर्ण और आश्रम आदि के अधिकारानुसार अपना-अपना काम करते थे। धर्महानि का तो कोई प्रसंग ही नहीं आता था। गौओं और स्त्रियों को उचित समय पर ही बच्चे होते थे। यहाँ तक कि लता और वृक्ष भी ऋतुकाल में ही फलते-फूलते थे। उस समय सत्ययुग था जिससे हर प्रकार आनन्द छा रहा था।
जब सर्वत्र आनंद छा रहा था उसी समय अचानक से राक्षस पैदा होने लगे
जिस समय इस प्रकार आनन्द छा रहा था, उसी समय क्षत्रियों में राक्षस उत्पन्न होने लगे। उस समय देवताओं ने युद्ध में दैत्यो को बार-बार हराया और ऐश्वर्य से च्युत कर दिया। वे न केवल मनुष्यों में बल्कि बैलों, घोड़ों, गधों, ऊँटों, भैंसों और मृगों में भी पैदा हुए। पृथ्वी उनके भार से त्रस्त हो गयी। दैत्य और दानव मदोन्मत्त तथा उच्छृखल राजाओं के रूप में भी उत्पन्न हुए।
उन्होंने तरह-तरह के रूप धारण कर के पृथ्वी को भर दिया और सारी प्रजा को सताने लगे। उनकी उच्छृखलता से पीड़ित और उद्विग्न होकर पृथ्वी ब्रह्मा जी की शरण में गयी। उस समय वह इतनी भाराक्रान्त हो रही थी कि शेष, कच्छप और दिग्गज भी उसे उठाने में असमर्थ हो गये थे। प्रजापति भगवान ब्रह्मा ने शरणागत पृथ्वी से कहा, ‘देवि! तू जिस कार्य के लिये मेरे पास आयी है, उसके लिये मैं सब देवताओं को नियुक्त करूँगा।’ पृथ्वी लौट आयीं।
ब्रह्मा जी की आज्ञा से देवता धरती पर उतरने की तैयारी में लग गए
ब्रह्मा जी ने देवताओं को आज्ञा दी कि ‘तुम लोग पृथ्वी का भार उतारने के लिये अपने-अपने अंशों से अलग-अलग पृथ्वी पर अवतार लो।’ इसके बाद गन्धर्व और अप्सराओं को भी बुलाकर कहा, ‘तुम लोग भी स्वेच्छानुसार अपने-अपने अंश से जन्म लो। ‘सब देवताओं ने ब्रह्मा जी के सत्य, हितकारी और प्रयोजनानुकूल वचन को स्वीकार किया। इसके बाद सब ने शत्रुनाशक भगवान नारायण के पास जाने के लिये वैकुण्ठ की यात्रा की। वे प्रभु अपने कर कमलों में चक्र और गदा रखते हैं उनके वस्त्र पीले हैं।
देवराज इंद्र व समस्त देवताओं की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने भी अवतार ग्रहण करना स्वीकार किया
शरीर की कान्ति नीली है। उनका वक्षःस्थल ऊँचा और नेत्र बड़े मोहक हैं। उनके वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न है, वे सर्वशक्तिमान् तथा सबके स्वामी हैं। सभी देवता उनकी पूजा करते हैं। इन्द्र ने उनसे प्रार्थना की कि आप पृथ्वी का भार उतारने के लिये अंशावतार ग्रहण कीजिये। भगवान ने ‘तथास्तु’ कहकर स्वीकार किया।
इन्द्र ने भगवान विष्णु से अवतार ग्रहण करने के सम्बन्ध में परामर्श किया, तदनुसार देवताओं को आज्ञा दी और फिर वैकुण्ठ से चले आये। अब देवता लोग प्रजा के कल्याण और राक्षसों के विनाश के लिये क्रमश: पृथ्वी पर अवतीर्ण होने लगे। वे स्वेच्छानुसार ब्रह्मर्षियों अथवा राजर्षियों के वंश में जन्म लेकर मनुष्य-भोजी असुरों का संहार करने लगे। वे बचपन में ही इतने बलवान् थे कि असुरगण उनका बाल भी बाँका नहीं कर सकते थे।