कल्पान्त तक अपनी आयु और अपने रूप को सजीव रखने के लिए तथा अतुलनीय रूप से शक्ति शाली बनने के लिए देव शक्तियों और असुर शक्तियों ने मिलकर परम दिव्य क्षीर सागर (जिसका न कोई आदि पता चलता था न अंत) का मंथन किया ।
अनेक अलौकिक वस्तुओं और प्राणियों के निकलने के बाद जब श्वेतवस्त्रधारी भगवान् धन्वन्तरि उस दिव्य कलश को लेकर वहां प्रकट हुए, तब उस कलश के अन्दर समाये हुए उस परम रहस्यमयी द्रव्य (जिसके बारे में सभी को ज्ञात था कि इस रहस्यमयी द्रव्य, जिसे सारा ब्रह्माण्ड अमृत के नाम से जानता था, के शरीर में प्रवेश करते ही उनका शरीर समस्त ब्रह्माण्डीय शक्तियों के लिए अभेद्य हो जायेगा) के लिये आतुर असुर, अत्यन्त अभद्रता दिखाते हुए उनके (भगवान धन्वन्तरी) हाथ से अमृत-घट छीनकर भाग खड़े हुए ।
प्रत्येक असुर, उस अदभुत शक्ति एवं कल्पान्त तक अमरता प्रदान करने वाला अमृत सबसे पहले पी लेना चाहता था । वहां उपस्थित असुर समुदाय में किसी को धैर्य नहीं था । किसी को किसी का विश्वास नहीं था । ‘पूरा अमृत कहीं एक व्यक्ति ही पी गया तो?’ सभी सशंकित थे । सभी चिन्तित थे । अमृत-कलश प्राप्त करने के लिये सब परस्पर छीना-झपटी और तू-तू, मैं-मैं करते हुए मारपीट और युद्ध पर उतर आये ।
‘इसी छीना-झपटी में कहीं अमृत-कलश उलट गया और अमृत गिर गया तब?’, यह प्रश्न सबके सामने था, दरअसल वह कितना कीमती था इसका अंदाज़ा वहाँ उपस्थित सभी को था लेकिन प्रचंड स्वार्थ के सामने वस्तुस्थिति का विचार कौन करता है? वैसे भी असुर कुल से न्याय और धर्म की आशा व्यर्थ थी । दुर्बल देवता, निर्बल और निसहाय बने दूर उदास और निराश खड़े थे ।
अब उन्हें अपनी कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी, कोई विकल्प ही नहीं समझ आ रहा था उन्हें । अचानक से कोलाहल शान्त हो गया । देवता और दानवों, दोनों की दृष्टि एक स्थान पर टिक गयी । अनुपम, अद्वितीय रूप-लावण्य-सम्पन्न एक लोकोत्तर रमणी सामने बनी खड़ी थी । सर से लेकर पैर तक-उसके अंग-अंग पर कोटि-कोटि रतियों (कामदेव की प्रियतमा) का अनूप रूप न्योछावर था, उसके आगे सुन्दर से सुन्दरतम स्त्री का रूप-सौन्दर्य भी सर्वथा फीका था ।
उन मोहिनी रूपधारी श्री भगवान् को देखकर पहले तो सभी भौचक्के थे फिर सब-के-सब मोहित, सब-के-सब मुग्ध हो कर विह्वल हो गये । “सुन्दिरि! अब तुम ही उचित निर्णय कर दो” । असुरराज ने बड़े गर्व के साथ आगे बढ़ते हुए उस अदभुत छटा बिखेरती हुई त्रैलोक्य मोहिनी से कहा । “हम सभी कश्यप के पुत्र हैं और अमृत-प्राप्ति के लिये हमने समान रूप से श्रम किया है । तुम इसे हम दैत्य और देवताओं में निष्पक्ष भाव से वितरित कर दो, जिससे हमारा यह विवाद समाप्त हो जाये” ।
उस ब्रह्माण्ड सुंदरी ने पहली बार अपने कम्पन करते हुए होंठों से लजाते हुए कहा “तो आप लोग परम पुनीत महर्षि कश्यप की संतान हैं” । संगीत की स्वर लहरियों जैसी आवाज़ के बाद अपनी मन्दस्मित से तो मानो मोहिनी ने जैसे अमृत की वर्षा ही कर दी । “और मेरी जाति और कुल-शील से आप सभी सर्वथा अपरिचित हैं । फिर आप लोग मेरा विश्वास कर यह महान दायित्व मुझे क्यों सौंप रहे हैं”?
“हमें आप पर पूर्ण विश्वास है”। मोहिनी रूपधारी जगत्पति श्री भगवान् के अलौकिक सौन्दर्य से मोहित असुरों ने अमृत-घट उनके हाथ में दे दिया । जब जगत नियंता स्वयं, नारी सौन्दर्य की समस्त रूप-राशियों के साथ हों तो उनके आगे समस्त प्रकार के लौकिक और अलौकिक रूप-सौन्दर्य एक तिनके के समान भी नहीं ठहर सकते |
असुर गण बेबस थे वहाँ, उन्हें उस मोहिनी के रूप सौन्दर्य के आगे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था | “मेरी वितरण-पद्धति में यदि आप लोगों को तनिक भी आपत्ति न हो तो मैं यह कार्य कर सकती हूँ” । अत्यन्त मोहग्रस्त करने वाली मोहिनी ने समस्त असुरों से आश्वासन चाहा । “अन्यथा, उचित होगा यह काम आप लोग स्वयं कर लें” ।
“हमें कोई आपत्ति नहीं” । मोहिनी की मधुर, संगीतमय वाणी सुनकर विह्वल हुए दैत्यों ने मुस्कुरा कर मोहिनी से कहा-“आप निष्पक्ष भाव से अमृत-वितरण करने के लिए स्वतंत्र हैं” । देवता और दैत्य-दोनों ने एक दिन उपवास कर स्नान किया (उस अमृत को अपने अन्दर धारण करने के लिए यह आवश्यक था) । अगले दिन नए वस्त्र धारण कर अग्नि में आहुतियाँ दीं गयीं ।
ब्राह्मणों से स्वस्ति पाठ कराया गया और पूर्वाग्र कुशों के आसनों पर पृथक-पृथक पंक्ति में सुर और असुर गण बैठ गये । अकल्पनीय सौन्दर्य राशि की स्वामिनी मोहिनी ने अपने सुकोमल कर कमलों मे अमृत कलश उठाया । कमर में बंधे उसके स्वर्णमय नूपुर झंकृत हो उठे । उस समय देवता और असुरों, दोनों की दृष्टि भुवन मोहिनी की ओर ही थी ।
मोहिनी ने मुस्कराते हुए दैत्यों को और दृष्टिपात किया । वे हर्ष से कामोन्मत्त हो रहे थे । मोहिनी रूपधारी विश्वात्मा प्रभु ने दैत्यों की ओर देखते और मुस्कराते हुए दूर की पंक्ति में बैठे देवताओं को अमृत-पान कराना प्रारम्भ किया । अपने वचन और त्रैलोक्य-दुर्लभ मोहिनी के नारी सौन्दर्य की रूपराशि से मर्माहत असुरगण चुपचाप अपनी पारी की प्रतीक्षा कर रहे थे ।
उन्हें लावण्यमयी मोहिनी की प्रेम-प्राप्ति की आशा थी, विश्वास था । लेकिन कुछ ही समय बाद धैर्य-धारण न कर सकने के कारण छाया-पुत्र राहु देवताओं के वेष में सूर्य और चन्द्र के समीप, उनकी पंक्ति में बैठ गया । अमृत उसके कण्ठ के नीचे उतर भी न पाया था कि दोनों देवताओं (सूर्य और चन्द्र) ने इंगित कर दिया और दूसरे ही क्षण क्षीराब्धिशायी प्रभु के तीक्ष्णतम चक्र से उसका मस्तक कटकर पृथ्वी पर जा गिरा ।
चौंककर दानवों ने देखा तो मोहिनी, शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी सजल मेघश्याम श्री विष्णु बन गयी । असुरों का मोह-भंग हुआ । उन्होंने कुपित होकर शस्त्र उठाया और एक अति भयंकर देवासुर-संग्राम छिड़ गया । सम्पूर्ण सृष्टि ही माया के अधीश्वर भगवान् की माया है । काम के वशीभूत हुए सभी प्रभु के उस मायारूप पर ही तो लुब्ध हैं, आकृष्ट हैं ।
आसुरी भाव से अमरता प्रदान करने वाला अमृत प्राप्त होना सम्भव नहीं । वह तो करूणामय प्रभु की शरण में आने से ही सम्भव है “निर्दयी और पापाचारी मनुष्यों को भगवान् के चरण कमलों की प्राप्ति कभी हो नहीं सकती । वे तो भक्ति भाव से युक्त मनुष्य को ही प्राप्त होते हैं । इसी से उन्होंने स्त्री का मायामय रूप धारण करके दैत्यों को मोहित किया और अपने शरणागत निर्बल और निसहाय देवताओं को समुद्र-मंथन से निकले हुए अमुत का पान कराया । “मैं उन प्रभु के चरण कमलों में नमस्कार करता हूँ” ।